घोष्ट राइंटिंग - हमें सोचना होगा
'पाखी' पत्रिका ने महुआ माजी के द्वारा लिखे गए उपन्यास की चोरी का विवाद खड़ा किया उससे बहुत सारे प्रश्न उठते हैं। अंग्रेजी में भी ऐसी घटनाओं के कारण बहसें हुई हैं और लेखन की मौलिकता संदेह के घेरे में आयी और उन्हें रचनाकार की सम्मानित सूची से हटा दिया गया।
लेकिन हिंदी में यह ताजा प्रकरण इसलिए महत्वपूर्ण है कि पिछले दिनों लेखन में महत्वाकांक्षियों की एक पूरी फौज आ गयी है और वे साहित्य के इतिहास में 'महान्' हो जाना चाहते हैं। इसमें फिर चाहे तन, मन के अलावा धन ही क्यों न लगाना पड़ें। इसमें पत्रिका के सम्पादकों के साथ एक गठजोड़ की भूमिका भी देखी जानी चाहिए। कई बार प्रकाशकों के साथ इस गठजोड़ की भूमिका की जांच भी की जा सकती है।
पश्चिम में तो अब आलोचक की हैसियत रही नहीं कि उसके 'कहे बोले' गए से कोई लेखक महान हो जाए या उसकी महानता की चौतरफा स्वीकृति हो जाए। वहां प्रकाशनगृह ही लेखक पैदा करते हैं वे ही उन्हें महान भी बनाते हैं। अब माना जा रहा है कि यह सिलसिला यहां हिंदी में भी चल पड़ा है।
आलोचक का प्रभाव धुंधला गया है और प्रकाशक ही अब लेखक को 'आइकनिक' बना सकता है। हिंदी में ऐसे कई उदीयमान और चमकीले लेखक हो रहे हैं, जो वे किसी न किसी के डंडे पर चढ़कर, झंडे की तरह लहरा सकने की स्थिति में आ गए हैं। लिखने-पढ़ने की बिरादरी वाले लोगों के बीच
होने के नाते हम भी जानते हैं कि प्रभु जोशी ने न केवल कुछेक घोष्ट पेंटर बना दिए हैं बल्कि घोष्ट कहानीकार भी। अब वे ही घोष्ट खूब छप रहे हैं और पुरस्कार हथिया रहे हैं। और भी कोई प्रभु हो सकता है। ऐसी स्थिति इसलिए भी बनने लगी है कि पत्रिकाओं की तादाद बढ़ी और लेखक संघों का भी विघटन हो चुका है। इसलिए अब गुट है। गुटों की अपनी अपनी पत्रिकाएं हैं। अपने अपने लेखक है ही, पत्रिका के अपने अपने महान है। ऐसे महान भी हैं जो किसी न किसी की 'घोष्ट राइंटिंग' के कारण सांस ले रहे हैं।
सवाल यह उठता है कि क्या हम अब यह मान लें कि भारत का साहित्य मर गया है? उसकी मौलिकता के कोई मायने नहीं? अब साहित्य का भी राजनीति की तरह पतन हो चुका है? क्या ऐसे माहौल में हम कभी अमेरिकन और रशियन के समकक्ष खड़े हो पाएंगे? वह कौन सी वहज है जिसके
कारण हम भारत के साहित्य और साहित्यकारों को महान मानकर अपना आदर्श बनाएं, जबकि साहित्य भी अब बाजार की राह पर चल पड़ा है।
लेकिन हिंदी में यह ताजा प्रकरण इसलिए महत्वपूर्ण है कि पिछले दिनों लेखन में महत्वाकांक्षियों की एक पूरी फौज आ गयी है और वे साहित्य के इतिहास में 'महान्' हो जाना चाहते हैं। इसमें फिर चाहे तन, मन के अलावा धन ही क्यों न लगाना पड़ें। इसमें पत्रिका के सम्पादकों के साथ एक गठजोड़ की भूमिका भी देखी जानी चाहिए। कई बार प्रकाशकों के साथ इस गठजोड़ की भूमिका की जांच भी की जा सकती है।
पश्चिम में तो अब आलोचक की हैसियत रही नहीं कि उसके 'कहे बोले' गए से कोई लेखक महान हो जाए या उसकी महानता की चौतरफा स्वीकृति हो जाए। वहां प्रकाशनगृह ही लेखक पैदा करते हैं वे ही उन्हें महान भी बनाते हैं। अब माना जा रहा है कि यह सिलसिला यहां हिंदी में भी चल पड़ा है।
आलोचक का प्रभाव धुंधला गया है और प्रकाशक ही अब लेखक को 'आइकनिक' बना सकता है। हिंदी में ऐसे कई उदीयमान और चमकीले लेखक हो रहे हैं, जो वे किसी न किसी के डंडे पर चढ़कर, झंडे की तरह लहरा सकने की स्थिति में आ गए हैं। लिखने-पढ़ने की बिरादरी वाले लोगों के बीच
होने के नाते हम भी जानते हैं कि प्रभु जोशी ने न केवल कुछेक घोष्ट पेंटर बना दिए हैं बल्कि घोष्ट कहानीकार भी। अब वे ही घोष्ट खूब छप रहे हैं और पुरस्कार हथिया रहे हैं। और भी कोई प्रभु हो सकता है। ऐसी स्थिति इसलिए भी बनने लगी है कि पत्रिकाओं की तादाद बढ़ी और लेखक संघों का भी विघटन हो चुका है। इसलिए अब गुट है। गुटों की अपनी अपनी पत्रिकाएं हैं। अपने अपने लेखक है ही, पत्रिका के अपने अपने महान है। ऐसे महान भी हैं जो किसी न किसी की 'घोष्ट राइंटिंग' के कारण सांस ले रहे हैं।
सवाल यह उठता है कि क्या हम अब यह मान लें कि भारत का साहित्य मर गया है? उसकी मौलिकता के कोई मायने नहीं? अब साहित्य का भी राजनीति की तरह पतन हो चुका है? क्या ऐसे माहौल में हम कभी अमेरिकन और रशियन के समकक्ष खड़े हो पाएंगे? वह कौन सी वहज है जिसके
कारण हम भारत के साहित्य और साहित्यकारों को महान मानकर अपना आदर्श बनाएं, जबकि साहित्य भी अब बाजार की राह पर चल पड़ा है।
लेखक - अनिरुद्ध जोशी, वेब दुनिया हिन्दी डॉट कॉम,
बेहतर लेखन,
जवाब देंहटाएंजारी रहिये,
बधाई !!