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क्यों मेरा रविवार नहीं आता

तुम थक कर हर शाम लौटते हो काम से, आैर मैं खड़ी मिलती हूं हाथ में पानी का गिलास लिए हफ्ते के छः दिन फिर आता है तुम्हारा बच्चों का रविवार, तुम्हारी, बच्चों की फरमाइशों का अंबार मुझे करना इंकार नहीं आता क्यों मेरा रविवार नहीं आता मैं जानती हूं तुमको भी खानी पड़ती होगी कभी कभार बाॅस की डांट फटकार, मैं भी सुनती हूं पूरे परिवार की डांट सिर्फ तुम्हारे लिए, ताकि शाम ढले तुमको मेरी फरियाद न सुननी पड़े काम करते हुए टूट जाती हूं बिख़र जाती हूं घर संभालते संभालते चुप रहती हूं, दर्द बाहर नहीं आता क्यों मेरा रविवार नहीं आता तुम को भी कुछ कहती हूं, तो लगता है तुम्हें बोलती हूं तुम भी नहीं सुनते मेरी दीवारों से दर्द बोलती हूं मगर, रूह को करार नहीं आता क्यों मेरा रविवार नहीं आता

जरूरी तो नहीं

जरूरी तो नहीं तेरे लबों पर लब रखूं तो चुम्बन हो जरूरी तो नहीं मेरी उंगलियां बदन छूएं तो कम्पन हो जरूरी तो नहीं तुझे अपनी बांहों में भरूं तो शांत धड़कन हो एेसा भी तो हो सकता है मेरे ख्यालों से भी तुम्हें चुम्बन हो मेरे ख्यालों से भी तुम्हें कम्पन हो मेरे ख्यालों से भी शांत धड़कन हो