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मई, 2009 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

क्या लौटेगी बॉलीवुड की रंगत !

फिल्म निर्माता और मल्टीप्लेक्स वालों के बीच समझौता होने की संभावनाएं बन चुकी है, लगता है जल्द ही बॉलीवुड के लिए खुल जाएंगे मल्टीप्लेक्सों के दरवाजे, और दर्शक पहले की तरह दस्तक देंगे, इस साल के छ: महीने गुजर चुके हैं, और अभी छ: बाकी हैं। पहले छ: महीनों में बॉलीवुड कोई करिश्मा नहीं दिखा सका, बॉक्स ऑफिस पर अक्षय कुमार दो एवं शाहरुख खान एक फ्लॉप दे चुके हैं, अगर इस हफ्ते के दौरान मल्टीप्लेक्सों के कपाट खुलते हैं तो बॉलीवुड से दस्तक देने वालों की लम्बी कतार है, जिनमें सबसे पहले अक्षय कुमार, रितिक रोशन, शाहिद कपूर, जॉन इब्राहिम दस्तक देंगे। अक्षय कुमार ने साल की शुरूआत जनवरी में फिल्म 'चांदनी चौक टू चाइना' से की, लेकिन सफर बिल्कुल उबाऊ था, अक्षय कुमार और दीपिका पादुकोण को चांदनी चौक से चाइना तक सफर करवाने वाली फिल्म निर्माता कंपनी को मोटा नुक्सान झेलना पड़ा, जबकि शाहरुख खान की होम प्रोडक्शन कंपनी रेड चिलीज़ को भी बिल्लू ने तगड़ा झट्टका दिया है। अगर कोई कमाऊ फिल्म निकली तो वो थी अनुराग बासु की कम बजट में जर्बदस्त था फिल्म, जिसने बॉक्स ऑफिस पर मोटी कमाई की और अभय दिओल के डूबते कैरियर तो स

कविता-सड़क

टहल रहा था, एक पुरानी सड़क पर सुबह का वक्त था सूर्य उग रहा था, पंछी घोंसलों को छोड़ निकल रहे थे दूर किसी की ओर इस दौरां एक आवाज सुनी मेरे कानों ने सड़क कुछ कह रही थी ये बोल थे उसके कोई पूछता नहीं मेरे हाल को कोई समझता नहीं मेरे हाल को आते हैं, जाते हैं हर रोज नए नए राहगीर ओवरलोड़ ट्रकों ने, बसों ने दिया जिस्म मेरा चीर सिस्कती हूं, चिल्लाती हूं, बहाती हूं, अत्यंत नीर फिर भी नहीं समझता कोई मेरी पीर

नहीं चखी चार दिन से सब्जी

मैं बठिंडा के लिए निकला और नागदा से मुझे फिरोजपुर जनता पकड़नी थी, लेकिन वो गाड़ी रात को दस बजे के करीब आती है, मैंने सात बजे नागदा पहुँच गया, सोचा क्यों न, नागदा की सैर कर ली जाये, मैं बाज़ार घूमते घूमते बाज़ार के बीचों बीच पहुँच गया, यहाँ कुछ महिलाऐं एवं पुरुष धरने पर बैठे हुए, वहां पर लगे बोर्ड पढने के बाद पता चला के वो सब्जी भाजी वाले हैं, जिनकी जगह छीन ली गयी है, कहो तो उनकी रोजीरोटी छीन ली, वो अपनी मांग को लेकर पिछले सोमवार से बैठे हुए हैं, दिलचस्प बात तो ये है के पिछले सोमवार से जयादातर नागदा वासिओं ने सब्जी का स्वाद चखकर नहीं देखा, क्योंकि वो सब्जी नहीं ला रहे, पता नहीं ये कब तक चलेगी, पर मैं तो इस पोस्ट के साथ बठिंडा के लिए रवाना हो जऊंगा, बस दुआ करता हूँ, नागदा वासिओं को सब्जी मिले और सब्जी वालों को उनकी जगह, तब तक के लिए इजाजत चाहूँगा, मैं गूगल की गूगल इंडिक ट्रांस्लितेरेशन लब्स का अति आभारी हूँ, जो हिंदी लिखने में हर जगह सही हो रही है.

18 वर्ष बाद भी नहीं मिला इंसाफ

राजीव गांधी की पुण्यतिधि पर 18 की उम्र में कदम रखते ही एक भारतीय को मताधिकार हासिल हो जाता है, इंसान किशोरावस्था पार कर यौवन में कदम रखता है, 18 साल का सफर कोई कम नहीं होता, इस दौरान इंसान जिन्दगी में कई उतार चढ़ाव देख लेता है, लेकिन अफसोस की बात है कि 18 साल बाद भी कांग्रेस स्व.राजीव गांधी को केवल एक श्रृद्धांजलि भेंट कर रही है, इन 18 सालों में हिंदुस्तान की सरकारें उस साजिश का पर्दाफाश नहीं कर पाई, जिसके तहत आज से डेढ़ दशक पहले 21 मई 1991 को तमिलनाडु के श्रीपेरंबदूर में एक जनसभा के दौरान लिट्टे के एक आत्मघाती हमलावर ने राजीव गांधी की सांसें छीन ली थी. वो हमला एक नेता पर नहीं था, बल्कि पूरे देश के सुरक्षातंत्र को ठेंगा दिखाना था, मगर हिंदुस्तानी सरकारें आई और चली गई, मगर राजीव गांधी की हत्या के पीछे कौन लोग थे, आज भी एक रहस्य है. सच सामने भी आ जाता लेकिन राजीव गांधी की 18वीं पुण्यतिथि से पहले ही श्रीलंकाई सेनाओं ने कुख्यात हिंसक आंदोलन के नेतृत्वकर्ता लिबरेशन टाइगर्स ऑफ तमिल ईलम (लिट्टे) प्रमुख वेलुपिल्लई प्रभाकरण को सदा के लिए चुप करवा दिया.हत्या के पीछे जिसका सबसे ज्यादा हाथ मानना ज

काले चिट्ठे खोलती 'पत्रकार की मौत'

पिछली बार जब बठिंडा गया था, तो कुछ पंजाबी किताबें खरीदने का मन हुआ, ताकि अपनी जन्मभूमि से दूर कर्मभूमि पर कुछ तो होगा, जो मातृभाषा से मुझे जोड़े रखेगा। बस फिर क्या था, पहुंच गया रेलवे स्टेशन के स्थित एक किताबों वाली दुकान पर, जहां से अक्सर हिन्दी पत्रिकाएं खरीदा करता था, और कभी कभार किताबें, लेकिन इस बार किताबे लेने का मन बनाकर दुकान के भीतर घुसा था। मैंने कई किताबें देखी, लेकिन हाथ में दो किताबें आई, जिसमें एक थी 'पत्रकार दी मौत' हिन्दी में कहूं तो 'संवाददाता की हत्या'। इस किताब का शीर्षक पढ़ते एक बार तो ऐसा लगता है, जैसे ये कोई नावल हो, जिसका नायक कोई पत्रकार, जिसकी किसी ने निजी रंजिश के चलते हत्या कर दी हो, मगर किताब खोलते ही हमारा ये भ्रम दूर हो जाता है, क्योंकि पूरी किताब में कहीं भी पत्रकार की शारीरिक हत्या नहीं होती, हां जब भी होती है तो उसके आदर्शों की हत्या, पत्रकारिता के आदर्शों की हत्या. 'पत्रकार दी हत्या' को शब्दों में बयान करने वाला लेखक गुरनाम सिंह अकीदा खुद भी पत्रकारिता की गलियों से गुजर चुका है. उसने इस किताब में अपने आस पास घटित हुई घटनाओं का उल्

ब्लॉगरों के लिए विशेष सूचना..

सुनो सुनो, ब्लॉगर भाईयों और बहनों..मैंने ब्लॉगरों को एक मंच पर लाने के लिए orkut पर इंडियन ब्लॉगर लीग बनाई है...अगर आपकी इच्छा हो तो इसमें शीघ्र शामिल हुए..और अपने संपर्क को बढ़ाईए.. शामिल होने के लिए आसान तरीका..ओरकुट पर एक खाता और शामिल हो जाइए. ओरकुट में जाकर सर्च करें. ---Indian blogger league--. और बन जाए दोस्त सबके...

मनीबेन से जुड़ा तुलसी का भविष्य

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हर समय ऐसे जैसे हालात नहीं रहते, कभी इंसान सफलता के सातवें आसमां पर होता है, तो कभी वो ही इंसान असफलता की पतन पर होता है. कुछ ऐसी स्थिति में है स्मृति इरानी बनाम तुलसी, अब उसका भविष्य तय करेगा 'मनीबेन डॉट कॉम', जी हां, पंजाबी पिता और बंगाली मां की बेटी स्मृति इरानी बनाम तुलसी अब मनीबेन बनने जा रही है. बालाजी की शाखा को मजबूत करने वाला 'क्योंकि सास भी कभी बहू' के बंद होने के बाद तुलसी अपने पुराने कर्ज उतारने के लिए नया रूप धारण कर छोटे पर्दे पर फिर से दस्तक देने जा रही है, स्टार प्लस की जगह हँसी के ठहाके लगाने वाले चैनल 'सब टीवी' पर. इस बार लोगों को हंसाकर वाह वाह बटोरने वाली है स्मृति इरानी, लेकिन ये तो सीरियल आने के बाद ही पता चलेगा कि तुलसी के बाद मनीबेन स्मृति में कितना दम है. अभिनय के साथ साथ राजनीति में कदम रखने वाली स्मृति इरानी को चांदनी चौंक के बशिंदों ने नकार दिया था, उस हार का मजा चखने के बाद स्मृति ने इस बार चुनाव में अपना भाग्य अजमाने की बिल्कुल नहीं सोची, हां लेकिन भाजपा को जिताने के लिए जुटी रही. अपने अभिनय के बल पर छोटे पर्दे पर सरदारी करने वाली स

यहां भी होता है मज़ाक ?

चुनावों के नतीजे आ रहे थे, राजनीति में दिलचस्पी लेने वालों के अलावा अन्य लोगों की निगाहें भी नतीजों पर टिकी हुई थीं, शायद मेरे संस्थान की तरह अन्य मीडिया कार्योलयों में चुनावों के आ रहे रुझानों को गौर से देखा जा रहा होगा, लेकिन टेलीविजन की स्क्रीनों पर कुछ नेताओं के साथ बहुत बुरा मज़ाक हुआ, पहले तो उनको हारे हुए घोषित कर दिया गया, फिर उनको विजेता घोषित किया गया. इस मजाक का शिकारे हुए केंद्र गृहमंत्री पी. चिदंबरम, वरुण गांधी की माताश्री मेनका गांधी, रेणुका चौधरी के साथ भी ऐसा ही हुआ, लेकिन रेणुका चौधरी को पहले विजेता घोषित कर फिर उसको हारा हुआ घोषित कर दिया. इतना ही नहीं, इस तरह का हाल अनंतनाग में भी देखने को मिला, वहां पर पहले एनसी के उम्मीदवार को विजेता घोषित किया गया, अंतिम चरण में पहुंचते वो सीट पीडीपी के खाते में चली गई.

बगीची: कांग्रेस की रेस (अविनाश वाचस्‍पति)

बगीची: कांग्रेस की रेस (अविनाश वाचस्‍पति)

रामू ने चुराई रण की स्टोरी..!

रामगोपाल वर्मा एक ऎसा निर्देशक जो हमेशा विवादो में घिरा रहता है। कभी वह महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री के पीछे पीछे किसी पालतू कुत्ते की तरह मुंबई की उस ताज होटल को देखने (अपनी भविष्य की फिल्मो का प्लोट्स ढूँढने) चला जाता है जहाँ पर आतंकवादी हमला हुआ था, तो कभी बिना मतलब की फिल्मो (नि:शब्द) को बनाकर समाज को गुमराह करता रहता है। यह वही निर्देशक है जो होलीवुड के महान निर्देशक फ्रांसिस फोर्ड कपोला की फिल्म गोड फाधर से प्रेरित (प्रेरित शब्द बोलने में अच्छा लगता है इसलिए यहाँ पर लिख रहाँ हूँ वरना सही शब्द चोरी और उठांतरी है।) होकर सरकार और सरकार राज जैसी फिल्मे बनाकर सफलता का ताज अपने शिर पर पहन लेता है । यह वही शख्स है जो किसी से धोखाधड़ी करने में भी कभी पीछे मुडकर नहीं देखता। सफलता पाने के लिए कभी-कभी यह शख्स अपने नाम (राम) का भी दूरुपयोग करके देश के हितो और गीतो (राष्ट्रगान) को भी अपनी शैली में बेचने पर तैयार हो जाता है। विश्वास न आ रहा हो तो जरा इस पक्तिं को पढिए.. ''जन गण मन रण है, इस रण मैं जख्मी हुआ है भारत का भाग्यविधाता। पंजाब, सिंध, गुजरात, मराठा एक दूसरे से लड़के मर रहे है। रामू

रण को लेकर नया विवाद

जब मैं ब्लॉग लि ख रहा था तो एक बात और सामने आई कि रण फिल्म की कहानी के गुजराती युवक द्वारा लिखी गई है, परंतु संबंधी खुलासा तो अभी नहीं हुआ, मगर युवक का दावा है कि रण की कहानी उसकी है, जिसको उसने रामगोपाल वर्मा को भेजा था, लेकिन उसका क्रैडिट उसको नहीं दिया जा रहा है. हो सकता है कि एक विवाद और राम का इंतजार कर रहा हो.. 'रण' का अर्थ युद्ध होता है और रामगोपाल वर्मा की अगली फिल्म 'रण' है. जिसके शीर्षक गीत ने वाकयुद्ध सा छेड़ दिया है. टैलीविजन की स्क्रीन से नजर हटाते हुए अखबारों की सुर्खियों से गुजरने के बाद जब ब्लॉग जगत में पहुंचा तो एक ही चीज़ पाई, वो 'जन गण मन..रण' गीत...जिसने रामगोपाल वर्मा को एक बार फिर विवादों के कटहरे में खड़ कर दिया. 'आग' का झुलसा रामू अभी ठीक नहीं हुआ था कि उसकी फिल्म कंट्रेक्ट के एक दृश्य और अहमदाबाद बंब धमाकों की समानता ने उसको फिर से आलोचनाओं का शिकार बना दिया. 'सरकार राज' एवं 'फूंक' की सफलता ने रामू के भीतर जान फूंकी थी, जो आग में झुलसने के कारण खत्म सी हो गई थी. मुम्बई आतंकवादी हमले के बाद जब पूरा देश आतंकवादियों को

पप्पूओं की शिकायत.....

शुक्रवार की सुबह मैं अपने सुसराल में था, मैंने आम दिनों की तरह दुनिया भर का हाल जानने के लिए टीवी शुरू किया, और खबरिया चैनल बदलते बदलते पहुंच गया एनडीटीवी पर, जहां पप्पूओं पर स्पेशल रिपोर्ट चल रही थी, लेकिन ये वो पप्पू नहीं थे, जिनको पप्पू श्रेणी में रखा जाता है, बल्कि ये स्टोरी उन पप्पू पर आधारित थी, जो वोट करने के बाद भी बदनाम हैं. जो डांस में नंबर एक हैं, लेकिन लोग कहते हैं कि 'पप्पू कांट डांस साला', इसको प्रस्तुत कर रहे थे मेरे पसंदीदा संवाददाता एवं न्यूज एंकर रवीश कुमार. गंभीर मुद्दों पर स्पेशल रिपोर्ट पेश करने वाले रवीश कुमार, इस खबर को पेश करते हुए खुद की हँसी को ब-मुश्किल रोके हुए थे. उनकी आंखों में हँसी सफल झलक रही थी, क्योंकि वो जानते थे कि पप्पू शब्द का इस्तेमाल उनके टीवी एवं उनके ब्लॉग पर कितने बार हुआ है, लेकिन कहते हैं ना कि जब जागो तब सुबह. फिर भी रवीश कुमार अपनी हँसी को रोके हुए अपने शब्दों के जरिए बदनाम हुए पप्पूओं को उनका खोया मान दिलाने के लिए बोलना शुरू रखा. वो बार बार कह रहे थे कि वोट बबलू नहीं देता, लेकिन बदनाम पप्पू होता है. दुनिया भर में पप्पू नामक व्यक्

कभी सीधी सपाट

कभी सीधी सपाट  तो कभी पहेली लगती है  कभी बेगानी सी  तो कभी सहेली लगती है  ये जिन्दगी भी अजीब है दोस्तों  पल में सब बिखर बिखर नज़र आता है अगले ही पल सब निखर निखर नजर आता है  कभी धुप कभी छाँव जिंदगी  लगती है मनचाहे दांव  जिन्दगी कभी खुशियों भरा थाल देती है  कभी कर गम से मालामाल देती है  ये जिन्दगी भी अजीब है दोस्तों

sms खोल रहें पोल

अक्सर पंजाब से दोस्त एसएमएस भेजते रहते हैं, और मेरी भी फिदरत है कि एसएमएस को हर हाल में पढ़ा जाए, क्योंकि कुछ एसएमएस असल में भी बहुत अहम होते हैं. जिनका जवाब उसकी मौके पर देना लाजमी होता है. आज ऑफिस में बैठा कीबोर्ड पर अपनी रोजाना की तरह उंगलियां चला रहा था, और कानों में एनडीटीवी इंडिया की आवाज आ रही थी, जिस पर रवीश कुमार द्वारा स्पैशल स्टोरी प्रस्तुति की जा रही थी. इतने में पास पड़े मोबाइल पर एसएमएस आने का अलर्ट सुनाई दिया. मैंने तुरंत मोबाइल उठाया और देखा कि आख़र किसका एसएमएस आया है. मोबाइल पर एक फनी एसएमएस था, जिसको पढ़कर हंसी, लेकिन उसकी अंतिम लाईन ने लिखने पर मजबूर कर दिया.वो कुछ इस तरह था... A poor man catches a fish. wife can't cook due to.. no gas no electricity no oil man puts fish back in rivar fish comes up & shouts Badal Sarkar Zindabad इसके अलावा कुछ दिन पहले मैंने अपने मित्र पत्रकार फोटोग्राफर की ओरकुट पर बड़े बादल एवं छोटे बादल का गुफतगू करता पिकचर देखा, जब मेरी नजर उसके नीचे लिखे कमेंट पर पढ़ी तो मैं हैरान रह गया. उसमें पंजाबी में लिखा हुआ था, जिसका हिंदी अनुव

शिअद कांग्रेस में नहीं, परिवारों में टक्कर

बठिंडा पिछले एक दो साल से ख़बरों में है सिख-डेरा विवाद के कारण, लेकिन अब बठिंडा अख़बारों की सुर्खियों में डेरा सिख समुदाय विवाद को लेकर नहीं बल्कि राजनीतिक घमासान को लेकर है. पंजाब की 13 लोक सभा सीटों में से बठिंडा सबसे चर्चित एवं अति-संवेदनशील सीट बन चुकी है, क्योंकि इस सीट पर पूर्व मुख्यमंत्री कैप्टन अरमिंदर सिंह का बेटा रणइंद्र सिंह और उप-मुख्यमंत्री सुखबीर सिंह बादल की पत्नी हरसिमरत कौर है. इस लोक सभा सीट पर लड़ाई कांग्रेस और शिअद के बीच नहीं बल्कि दो बड़े राजनीतिक घरानों के बीच है. ये सीट इज्जत का सवाल बन चुकी है बादल परिवार के लिए, क्योंकि कैप्टन ने अपने बेटे को बादल के गढ़ में उतारकर घर में घुसकर मारने वाली रणनीति अपनाई है. अगर बादल परिवार की बहू इस सीट से हारती है तो बादल परिवार की साख को बहुत बड़ा झटका लगेगा. सूत्रों से मिली जानकारी के अनुसार बठिंडा सीट को निकालने के लिए शिअद नेता हर हथकंडा अपनाने के लिए तैयार है. ऐसे में चुनावों के दौरान हिंसक घटनाएं होने की भी पूरी पूरी आशंकाएं, जिन्होंने सुरक्षा प्रशासन की नींद उड़ा रखी है. इन आशंकाओं में उस समय और भी इजाफा हो जाता है जब हाल में ह