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फ़रवरी, 2010 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

मैं था अज्ञानी

1- मेरे काफिले में बहुत समझदार थे, बहुत विद्वान थे, सब चल दिए भगवान की तलाश में जंगल की ओर, और मैं था अज्ञानी बस माँ को ही ताँकता रहा। 2- कहूँ तो क्या कहूँ, चुप रहूँ तो कैसे रहूँ, शब्द आते होठों पर नि:शब्द हो जाते हैं। ढूँढने निकल पड़ता हूँ जो खो जाते हैं। फिर मिलता है एक शब्द अद्बुत वो कमतर सा लगता है तुम ही बतला देना सूर्य को क्या दिखाऊं। 1. समीर लाल समीर के काव्य संग्रह बिखरे मोती से कुछ पंक्तियाँ पढ़ने के बाद जो दिल में आया लिख डाला, 2. खुशदीप सहगल की एक पोस्ट पढ़ने के बाद लिखा था। आ भार कुलवंत हैप्पी

चीन का एक और काला अध्याय

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बाघों की सुरक्षा को लेकर भारत में चिंतन किया जा है। मोबाइल संदेशों के मार्फत उनको बचाने के लिए अभियान चलाए जा रहे हैं, कुछ दिनों बाद 7 अप्रैल टाईगर प्रोजेक्ट स्थापना दिवस है, बाघ बचाओ परियोजना की स्थापना 7 अप्रैल 1973 हुई। इस स्थापना भी कोई खास रंग नहीं ला सकती, यही कारण है कि भारत में बाघों की संख्या 1411 रह गई है। जहाँ भारत में बाघ बचाओ के लिए एसएमएस किए जा रहे हैं, वहीं भारत से आबादी और ताकत के मुकाबले में आगे निकल चुका चीन उन बाघों को अपने स्वार्थ के लिए खत्म किए जा रहा है। ऐसा ही कुछ खुलासा डेली मेल नामक वेबसाईट में प्रकाशित एक खबर में किया गया है। डेली मेल में प्रकाशित ख़बर के अनुसार चीन के गुइलिन शहर में एक ऐसा फार्म है जहां अनुमानों के मुताबिक करीब 1500 बाघ बाजार में उपयोग के लिए पाले जा रहे हैं। इन बाघों की हड्डियों से शराब तैयार की जा रही है, पहले तो चीन केवल दवाईयाँ तैयार करता था इनकी हड्डियों से। गौरतलब है कि यह संख्या दुनिया में आज बचे कुल बाघों की संख्या की आधी है। एक ही पिंजरे में कई-कई बाघों को रखा जा रहा है और मौत ही इनकी नियति है। जबकि इस काले अध्याय के सामने आने स

हैप्पी अभिनंदन में ललित शर्मा

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हैप्पी अभिनंदन में आज आपको जिस ब्लॉगर हस्ती से रूबरू करवाने जा रहा हूँ, वैसे तो आप उन्हें अच्छी तरह वाकिफ होंगे, लेकिन किसी शख्स के बारे में जितना जाना जाए, उतना कम ही पड़ता है। वो हर रोज किसी न किसी ब्लॉगर का चर्चा मंच , चर्चा हिन्दी चिट्ठों की !!! जैसे अन्य ब्लॉगों के जरिए प्रचार प्रसार करते हैं। कई क्षेत्रीय भाषाओं का ज्ञान भी रखते हैं, ताऊ और फौजी उनको बेहद प्यारे हैं, सच में उनकी मुछें जहाँ ताऊ की याद दिलाती हैं, वहीं उनके ब्लॉगों पर लगे स्वयं के फौजी वाले कार्टून उनके देश भक्ति के जज्बे को उजागर करते हैं, वैसे हरियाणा के घर घर में एक फौजी पैदा होता है, ऐसी बात भी प्रचलन में है। अगर देखा जाए तो अभनपुर छत्तीसगढ़ की शान ब्लॉगर ललित शर्मा जी भी फौजी से कम नहीं, वो बात अलहदा है कि उनकी हाथ में बंदूक की जगह कलम है, वैसे एक महान एवं महरूम पत्रकार प्रभाष जोशी ने कहा है कि जब तोप न चले तो अखबार निकालो, मतलब कलम उठाओ, क्रांति लाओ। आओ चर्चा पान की दुकान पर करने वाले एक कलम के फौजी से जानते हैं उनके दिल की बातें। कुलवंत हैप्पी : पंजाबी बापू के खुंडे 'लठ' की तरह हरियाणा का ताऊ ब

हे माँ तेरी शान में

स्कूल से आते जब देरी हो जाती थी। चिंता में आंखें नम तेरी हो जाती थी। मेरी देरी पर घर में सबसे अधिक माँ तू ही तो कुरलाती थी। गलती पर जब भी डाँटते पिताश्री तुम ही तो माँ बचाती थी। खेलते खेलते जब भी चोट लगती देख चोट मेरी माँ तू सहम जाती थी। मैं पगला अक्सर ऐसे ही रूठ जाता, मां तुम बड़े दुलार से मनाती थी। नहीं भूला, याद है माँ, एक दफा मारा था जब तुमने मुझे। मुझसे ज्यादा हुआ था दर्द माँ तुझे। तूने हमेशा मेरे लिए दुआएं की। मेरी सब अपने सिर बलाएं ली। आज शोहरत भी है, दौलत भी है। खूब सारी पास मेरे मौहलत भी है। मगर गम है। सोच आँख नम है। क्योंकि उसको देखने के लिए माँ तुम नहीं इस जहान में। अगर होता मेरे बस में, माँ रख लेता, कर गड़बड़ी रब्ब के विधान में। जितने भी शब्द लिखूं कम ही है हे माँ तेरी शान में। आ भार कुलवंत हैप्पी

गुरू

मैं ने इस कविता को बहुत पहले अपने एक पाठक की गुजारिश पर लिखा था, लेकिन युवा सोच युवा खयालात पर पहली बार प्रकाशित कर रहा हूँ, उम्मीद करता हूँ कि मेरे जैसे अकवि की कलम और जेहन से निकले भाव आपको पसंद आएंगे। अकवि इसलिए क्योंकि काव्य की बहुत समझ नहीं, या फिर कभी समझने की कोशिश नहीं की। गु रू एक मार्ग है, मंजिल तक जाने का, गुरू एक साधन है, भगवान को पाने का गुरू एक प्रकाशयंत्र है, अज्ञानता को मिटाने का, पहले गुरू हैं माता पिता, जिसने बोलना सिखाया, दूसरे गुरू शिक्षक हैं, जिन्होंने जीना बतलाया, तीसरा वक्त है, जो पांव पांव पर सिखाता है परिस्थितियों से निपटना है वो हर शख्स गुरू, सिखाता जो जीने का सलीका, इस मतलबी दुनिया में 'हैप्पी' रहने का तरीका,   आ भार कुलवंत हैप्पी

एक गुमशुदा निराकार की तलाश

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इस दुनिया में इंसान आता भी खाली हाथ है और जाता भी, लेकिन आने से जाने तक वो एक तलाश में ही जुटा रहता है। तलाश भी ऐसी जो खत्म नहीं होती और इंसान खुद खत्म हो जाता है। वो उस तलाश के साथ पैदा नहीं होता, लेकिन जैसे ही वो थोड़ा सा बड़ा होता है तो उसको उस तलाश अभियान का हिस्सा बना दिया जाता है, जिसको उसके पूर्वज, उसके अभिभावक भी नहीं मुकम्मल कर पाए, यह तलाश अभियान निरंतर चलता रहता है। जिसकी तलाश है, उसका कोई रूप ही नहीं, कुछ कहते हैं कि वो निराकार है। कितनी हैरानी की बात है इंसान उसकी तलाश में है, जिसका कोई आकार ही नहीं। इस निराकार की तलाश में इंसान खत्म हो जाता है, लेकिन उसका अभियान खत्म नहीं होता, क्योंकि उसने अपने खत्म होने से पहले इस तलाश अभियान को अपने बच्चों के हवाले कर दिया, जिस भटकन में वो चला गया, उसकी भटकन में उसके बच्चे भी चले जाएंगे। ऐसा सदियों से होता आ रहा है, और अविराम चल भी रहा है तलाश अभियान। खोजना क्या है कुछ पता नहीं, वो है कैसा कुछ पता नहीं, हाँ अगर हमें पता है तो बस इतना कि कोई है जिसको हमें खोजना है। वो हमारी मदद करेगा, मतलब उसकी तलाश करो और खुद की मदद खुद करने का यत्न मत

मुझे माफ कर देना

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मुझे माफ कर देना उतर सकी न पूरी तेरी मुहब्बत के क्षितिज पर हाँ, मुझे ले बैठा लज्जा, शर्म और बदनामी का डर जो किए थे वादे निकले रेत के टीले या पानी पे खींची लकीर जो तुम समझो क्षमा चाहती हूँ, जो, तेरे लिए जमाने से मैं लड़ न सकी कदम से कदम और कंधे से मिला कंधा साथ तेरे खड़ न सकी बेवफा, खुदगर्ज धोखेबाज जो चाहे देना नाम मुझे लेकिन याद रखना रिश्ता तोड़ने से पहले कई दफा खुद भी टूटी हूँ मैं मजबूरियों, बेबसियों के आगे टेक घुटने माँ बाप के लिए बन गोलक फूटी हूँ मैं तेरा सामना कर सकूँ हिम्मत न इतनी जुटा पाई मैं हर बार की तरह अब भी समझ लेना मेरी बेबसी लाचारी को जो बोलकर न सुना पाई मैं। आ भार कुलवंत हैप्पी

हैप्पी अभिनंदन में कार्टूनिस्ट कीर्तिश भट्ट

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हैप्पी अभिनंदन में आज ब्लॉगवुड की जिस हस्ती से आप रूबरू होने जा रहे हैं, वो कम शब्दों में बहुत बड़ी बात कहने में यकीन रखते हैं। कहूँ तो गागर में सागर भरने की कोशिश करते हैं और सफल भी होते हैं, सच में कोई अतिशोक्ति नहीं। हररोज आप उनके इस हुनर और कला से रूबरू होते हैं। जी हाँ, मैं आज आपकी मुलाकात बामुलाहिजा के संचालक और शानदार कार्टूनिस्ट कीर्तिश भट्ट से करवाने जा रहा हूँ। वो क्या सोचते हैं ब्लॉगवुड के बारे में और कैसे पहुंचे जहाँ तक उनकी कहानी उनकी जुबानी खुद ही पढ़िएगा। कुलवंत हैप्पी : आपने अपने ब्लॉग पर भारतीय कार्टून और भारतीय कार्टूनिस्ट से सम्बद्ध लेख का लिंक तो दिया है, लेकिन खुद के बारे में कुछ नहीं लिखा, विशेष कारण? कीर्तिश भट्ट : ज हाँ तक 'भारतीय कार्टून और भारतीय कार्टूनिस्ट से सम्बद्ध लेख का ' सवाल है तो वो लिंक मैंने इसलिए लगाया है क्योंकि हिंदी विकिपीडिया पर इस विषय से सम्बद्ध लेख मैं लिख रहा हूँ, लिंक पर दिए गए लेख मेरे लिखे हुए हैं. कई पूर्ण है कई आधे अधूरे हैं जिन्हें जानकारी के आभाव मैं पूरा नहीं कर पाया हूँ. लिंक देने कई कारण है जैसे कि अन्य कार्टूनिस्ट भी अ

भारत की सबसे बड़ी दुश्मन

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कुछ दिन पहले गुजरात प्रवास के दौरान हिम्मतनगर से 29 किलोमीटर दूर स्थित ईडर गया दोस्त से मिलने। ईडर शहर को पत्थर के बीचोबीच बसा देखकर घूमने का मन हुआ। वहाँ एक बहुत ऊंची पत्थरों से बनी हुई पहाड़ी है..जिस पर एक राजा का महल है, जो आजकल खण्डहर हो चुका है। उसके बीच लगा सारा कीमत सामान निकाल लिया गया है। बस वहाँ अगर कुछ बचा है तो केवल और केवल प्रेमी युगलों के नाम, जिनके बारे में कुछ पता नहीं कि वो इन नामों की तरह आज भी साथ साथ हैं या फिर नहीं। सारी दीवारें काली मिली..जैसे दीवारें न हो कोई रफ कापी के पन्ने हों। कुछ कुछ तो ऐसे जिद्दी आशिक भी यहाँ आए, जिन्होंने दीवारों को कुरेद कुरेद नाम लिखे।। तल से काफी किलोमीटर ऊंची इस पहाड़ी पर खण्डहर राजमहल के अलावा दो जैन मंदिर, हिन्दु देवी देवताओं के मंदिर और मुस्लिम पीर बाबा का पीरखाना भी। राजमहल जहाँ आज अंतिम साँसें ले रहा है, वहीं श्वेताम्बर जैन मंदिर का करोड़ों रुपए खर्च कर पुन:निर्माण किया जा रहा है। वहाँ मुझे महावीर की याद आती, जो निर्वस्त्र रूप में मुझे कहीं जगह मिल चुके हैं प्रतिमा के रूप में। महावीर की निर्वस्त्र मूर्ति देखकर मैं आज तक हँसा नहीं, हा

शादी मुहब्बत की नहीं, ख्वाहिश की पूर्ति है

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अहा! जिन्दगी के फरवरी 2010 अंक में प्रकाशित एवं सुरजीत द्वारा अनुवादित मुमताज मुफ्ती की "वह बच्चा" कहानी के अंत में नायिका नायक से मिलने आती है। नायक नायिका से बहुत नाराज है, लेकिन नायिका नायक को बताती है कि वो घर नहीं गई, सिर्फ उसको मनाने के लिए लाहौर से उसके पास आई है। इस तरह प्रेम भाव से उसने नायक से पहले कभी बात नहीं की थी, नायक को नायिका का प्रेम देखकर गुस्सा आ जाता है, लेकिन नायिका नजाकत को समझते हुए कहती है मुझे पता है तुम मुझसे बेहद मुहब्बत करते हो। नायिका अपनी बात जारी रखते हुए कहती है “मैं जानती हूं कि तुम में एक बच्चा है। मासूम बच्चा, जो बेलाग, बेगर्ज, बेमकसद मुझे चाहता है। अरशी, तुम्हारी मुहब्बत मेरी जिन्दगी का एकमात्र सरमाया है, जिसके सहारे मैं सारी जिन्दगी गुजार सकती हूं। नायक चिल्लाते हुए कहता है “ फिर तुमने उसको ठुकरा क्यों दिया, तुमने उसको रद्द क्यों कर दिया। नायिका कहती है कि मैं उसको नहीं ठुकराया, उस पर तो मुझे गर्व है, मैंने तो केवल तुम्हारी शादी का प्रस्ताव ठुकराया है। गुस्से के कारण आपा खो चुका नायक चिल्लाते हुए पूछता है आखिर क्यों? नायिका बोलती है “अरशी

गायब हो रहे हैं टिप्पणी बॉक्स

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आज सब ब्लॉगरों को पढ़ने की इच्छा थी, लिखने की बिल्कुल नहीं। लेकिन जब पढ़ते पढ़ते पी.सी.गोदियाल जी के ब्लॉग पर पहुंचा तो क्या देखता हूँ कि टिप्पणी बॉक्स गायब है। अब वहाँ पर अपने विचार भी व्यक्त नहीं कर सकता। अब उनके ब्लॉग पर नहीं लिख सकता कि उन्होंने कितना अच्छा लिखा है और कितना साधारण लिखा है। ऐसे ही और कई ब्लॉग हैं, जो ऐसा करने से मना कर देते हैं। आखिर ऐसा क्यों हो रहा है कि टिप्पणी बॉक्स गायब हो रहे हैं। ये ब्लॉगवुड है, बठिंडा नहीं कि नगर निगम वालों ने रात को सीवरेजों के ढक्कन लगाए और सुबह होते ही गायब हो गए। यहाँ टिप्पणी बॉक्स खुद हटाए जाते हैं। ऐसा नहीं कि टिप्पणी बॉक्स गलती से गायब हो गए, इनको सोच समझकर एक लम्बे अध्ययन के बाद गायब किया गया है। शायद उन्होंने अध्ययन में पाया कि हमारे कुछ टिप्पणीकर्ता अपने ब्लॉग पते देने के लिए इन टिप्पणी बॉक्सों का गलत इस्तेमाल करते हैं, कहीं कहीं तो पाया गया है कि लेख कुछ और होता है और टिप्पणी कुछ और। पिछले दिनों ब्लॉगवुड में घुघूती बासूती ब्लॉग पर लिखी एक पोस्ट भी कुछ ऐसा ही बयान करती थी। क्या उस पोस्ट में घुघूती बासूती ने खुद ही पढ़ लीजिए।   केव

मिल्क नॉट फॉर सेल

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आज गुरूवार को सुबह माताजी के दर्शनों के लिए अम्बाजी गया, वहाँ पर माता जी का बहुत विशाल मंदिर है, इस मंदिर में माता जी के दर्शनों के लिए दूर दूर से भक्त आते हैं। मातृदर्शन के बाद वापसी में जब मैं खेड़ब्रह्मा पहुंचा तो मेरी नजर सामने जा रहे एक दूध वाहन पर पड़ी, जिसके पीछे लिखा हुआ था "मिल्क नॉट फॉर सेल"। जिसका शायद हिन्दी में अर्थ दूध बेचने के लिए नहीं, कुछ ऐसा ही निकलता है। इस पंक्ति को पढ़ते ही जेब से मोबाइल निकाला और फोटो खींच डाली। इस लाइन ने मुझको बारह तेरह साल पीछे धकेल दिया स्कूल के दिनों में। उन दिनों मैंने एक किताब में पढ़ा था कि पाकिस्तान में एक गुजरांवाला नामक गाँव है, जहाँ पर लोग दूध और पूत नहीं बेचते थे। गुजरांवाला के अलावा भी बहुत से ग्रामीण क्षेत्रों में दूध और पूत नहीं बेचे जाते थे, लेकिन आज दूध भी बिकता है और पूत भी। लोग आज अपने घर का सारा दूध डेयरी में डालकर खुद चाय पीते हैं, उस बिके हुए दूध से आज उनके घर चलते हैं। एक समय था जब गाँव में किसी के घर दामाद आता तो आस पड़ोस से दूध के लोटे बिन मंगाए ही आ जाते और विवाह शादियों में दूध खरीदना नहीं पड़ता था, बस एक बार लाउ

"युवा" बनाम "तुम हवा"

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स मय के साथ साथ "युवा" शब्द का अर्थ भी बदलता जा रहा है, कल तक युवा का मतलब केवल नौजवान से था या कहें युवावस्था से, लेकिन आज युवा का अर्थ उम्मीदों का नया सवेरा और कुछ कर गुजरने वाला व्यक्ति है। "युवा" शब्द में वैसा ही परिवर्तन देखने को मिल रहा है, जैसा "प्रेम" शब्द में देखने को मिल रहा है। पहले "प्रेम" का मतलब एक लड़की और लड़के के बीच का रिश्ता, लेकिन अब प्रेम का अर्थ विशाल हो रहा है। लोग समझने लगें हैं प्रेम के असली अर्थ को, मतलब प्रेम किसी भी वस्तु से हो सकता है चाहे वो संजीव हो और चाहे वो निर्जीव। प्रेम की तरह युवा का अर्थ भी बहुत विशाल हो गया, अब युवा का अर्थ है वो व्यक्ति जो कुछ कर गुजरने का जोश या फिर लोगों की उम्मीदों को पूरा करने का इरादा रखता हो। याद करो वो समय जब अमेरिका के राष्ट्रपति पद पर बराक ओबामा बैठा था, तो क्या वो युवावस्था में था, नहीं लेकिन फिर भी लोगों ने उसको युवा की संज्ञा दी। इतना ही नहीं  35 साल का राहुल गांधी भी जनता को युवा ही नजर आता है। इसके अलावा 38 साल का जीवन बसर करने वाले श्री स्वामी विवेकानंद जी कभी युवावस्था से बा

हैप्पी अभिनंदन में रश्मि रविजा

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हैप्पी अभिनंदन में आज मैं आपको जिस ब्लॉगर हस्ती के रूबरू करवाने जा रहा हूँ, उनका और लेखन का रिश्ता बहुत पुराना है, लेकिन ब्लॉग जगत से कुछ नया। पुराने रिश्ते के कारण बने इस ने रिश्ते से इतना प्यार हो गया है उनको कि उनकी खुली आँखों ने एक सपना संजोया है ब्लॉग जगत को एक संपूर्ण पत्रिका के रूप में देखने का। ' मन की पाखी ' और ' अपनी उनकी सबकी बातें ' ब्लॉग पर शब्दों का अद्भुत जाल बुनने वाली रश्मि रविजा आकाशवाणी से जुड़ी हुई हैं, लेकिन प्यार उनका ब्लॉगजगत से भी कम नहीं। वो वहाँ से ब्लॉगवुड के लिए लिखती हैं, जहाँ से बॉलीवुड चलता है, मेरा मतलब मुम्बई नगरिया। ब्लॉग जगत को लेकर वो क्या क्या सोचती हैं और उनकी जिन्दगी के हसीं पल जानते हैं उनकी जुबानी। कुलवंत हैप्पी : आपने अपनी एक पोस्ट में ब्लॉगवुड पर सवालिया निशान लगाते हुए पूछा था कि ब्लॉग जगत एक सम्पूर्ण पत्रिका है या चटपटी ख़बरों वाला अखबार या महज एक सोशल नेटवर्किंग साईट? इनमें से आप ब्लॉगवुड को किस श्रेणी में रखना पसंद करेंगी और क्यों? रश्मि रविजा : सबसे पहले तो आपको शुक्रिया बोलूं "आपने मेरा नाम सही लिखा है" वर

भारत का एक आदर्श गाँव "कपासी"

चप्पे चप्पे कोने कोने की ख़बर देने का दावा करते हुए भारतीय ख़बरिया टैलीविजन थकते नहीं, लेकिन सच तो यह है कि मसाला ख़बरों के दायरे से बाहर निकलते ही नहीं। वरना, भारत के जिस आदर्श गाँव के बारे में, अब मैं बताने जा रहा हूँ, उसका जिक्र कब का कर चुके होते टैलीविजन वाले। इस गाँव को मैंने खुद तो देखा नहीं, लेकिन पत्रकार एवं लेखक स्वयं प्रकाश द्वारा लिखित किताब "जीना सिखा दिया" से उसके बारे में पढ़ा जरूर है। श्री स्वयं प्रकाश द्वारा लिखित किताब जीना सिखाया दिया में इस गाँव के बारे में पढ़ने के बाद इसको भारत को आदर्श गाँव कहना कोई अतिशोक्ति न होगी, जो पूने से 120 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। और इस गाँव का नाम कपासी है। किताब में लिखे अनुसार कपासी पूरी तरह नशामुक्त गाँव है, भारत में शायद ही कोई गाँव नशे की लपेट में आने से बचा हो। लेखक बताते हैं कि इस गाँव में चौबीस घंटे बिजली रहती है, क्योंकि यहाँ बिजली चोरी की आदत नहीं लोगों को, जबकि आम तौर पर भारतीय गाँवों में बिजली बामुश्किल 8 घंटे मिलती है, चाहे वहाँ बिजली चोरी होती हो या न, उनको गाँवों को छोड़कर जो आज भी बिजली से महरूम हैं। इस गा

प्रिय शर्मा जी और पुरस्कार

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प्रिय शर्मा जी हम आपको चाहते हैं पुरस्कार देना माफ कीजिए जी जनाब मुझे नहीं लेना न मैं सैफ हूँ न मैं ओबामा तुम दोगे पुरस्कार यहाँ होगा हंगामा अखबारों के ऐसे ही पन्ने होंगे काले कम खर्च न करेंगे समय टीवी वाले जब होगी हर तरफ   आलोचना आलोचना मुश्किल होगा फिर मुझको सोचना सोचना घर कैसे जाऊंगा पत्नि को मुँह कैसे दिखा लाऊंगा अच्छा है कदम अभी से रोकना रोकना

शिर्डी यात्रा के कुछ पल-3

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शिंगनापुर से लौटते लौटते तकरीबन बाद दोपहर हो चली थी। भूख जोरों से लग रही थी, भले ही सुबह एक परांठा खा लिया था। भूख मिटाने से पहले जरूरी था, शाम की बस का टिकट कटवाना। इसलिए सबसे पहले बस बुकिंग वाले के पास गया, और टिकट पहले से कटवा लिया। उसके बाद शिर्डी नगर पंचायत द्वारा संचालित अमानती सामान कक्ष में पहुंचा, वहाँ पर सामान करवाते हुए पूछा कि साईं बाबा संस्थान का भोजनालय कहाँ है, उन्होंने बताया कि यहाँ से कुछ दूरी पर स्थित है। लेकिन याद रहे कि उसको प्रसादालय कहा जाता है, भोजनालय तो मैंने बना लिया था। मैं प्रसादालय की ओर चल दिया। अब काफी दूर चलने के बाद जब प्रसादालय न आया तो सड़क किनारे बैठी सूखे अंगूर (दाख) बेच रही एक महिला से पूछा। उसने बड़ी निम्रता के साथ उत्तर दिया, लगा ही नहीं कि मैं उस महाराष्ट्र में घूम रहा हूँ, जो क्षेत्रीय भाषा संरक्षण को लेकर आए दिन सुर्खियों में होता है। थोड़ा सा आगे बढ़ा तो नजर पड़ गया, साईं बाबा का प्रसादालय।   शिर्डी यात्रा के कुछ पल पहले तो मुझे लगा कि यहाँ पर भी अन्य धार्मिक स्थलों की तरह लम्बी लम्बी कतारें लगेंगी भोजन प्राप्त करने के लिए। कुछ सेवादार अपना रौब झ

ऑस्कर में नामांकित 'कवि' का एक ट्रेलर और कुछ बातें

कुछ दिन पहले दोस्त जनकसिंह झाला के कहने पर माजिद माजिदी द्वारा निर्देशित एक इरानी फिल्म चिल्ड्रन इन हेवन का कुछ हिस्सा देखा था और आज ऑस्कर में नामांकित हुई एक दस्तावेजी फिल्म 'कवि' का ट्रेलर देखा। इन दोनों को देखने के बाद महसूस किया कि भारतीय फिल्म निर्देशक अभी बच्चे हैं, कच्चे हैं। चाहे वो राजकुमार हिरानी हो, चाहे विशाल भारद्वाज। इन दोनों महान भारतीय निर्देशकों ने अपनी बात रखने के लिए दूसरी बातों का इस्तेमाल ज्यादा किया, जिसके कारण जो कहना था, वो किसी कोने में दबा ही रह गया। जहाँ थ्री इडियट्स एक मनोरंजन फिल्म बनकर रह गई, वहीं इश्किया एक सेक्सिया फिल्म बनकर रह गई। संगीतकार विशाल भारद्वाज की छत्रछाया के तले बनी अभिषेक चौबे निर्देशित फिल्म इश्किया अंतिम में एक सेक्सिया होकर रह जाती है। किसी फिल्म के सेक्सिया और मजाकिया बनते ही कहानी का मूल मकसद खत्म हो जाता है। और लोगों के जेहन में रह जाते हैं कुछ सेक्सिया सीन या फिर हँसाने गुदगुदाने वाले संवाद। ऐसे में एक सवाल दिमाग में खड़ा हो जाता है कि क्या करोड़ खर्च कर हम ऐसी ही फिल्म बना सकते है, जो समाज को सही मार्ग न दे सके। क्या कम

राजू बन गया 'दी एंग्री यंग मैन'

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"शाहरुख खान और अमिताभ बच्चन" हिन्दी फिल्म जगत के वो नाम बन गए, जो सदियों तक याद किए जाएंगे। आपसी कशमकश के लिए या फिर बेहतरीन अभिनय के लिए। दोनों में उम्र का बहुत फासला है, लेकिन किस्मत देखो कि चाहे वो रुपहला पर्दा हो या असल जिन्दगी का रंगमंच। दोनों की दिशाएं हमेशा ही अलग रही हैं, विज्ञापनों को छोड़कर। रुपहले पर्दे पर अमिताभ बच्चन के साथ जितनी बार शाहरुख खान ने काम किया, हर बार दोनों में ठनी है। चाहे गुरूकुल के भीतर एक प्रधानाचार्य एवं आजाद खयालात के शिक्षक के बीच युद्ध, चाहे फिर घर में बाप बेटे के बीच की कलह। अक्सर दोनों किरदारों में ठनी है। असल जिन्दगी में भी दोनों के बीच रिश्ते साधारण नहीं हैं, ये बात तो जगजाहिर है। रुपहले पर्दे पर तो शाहरुख खान का किरदार हमेशा ही अमिताभ के किरदार पर भारी पड़ता रहा है, लेकिन मराठी समाज को बहकाने वाले ठाकरे परिवार को करार जवाब देकर शाहरुख खान ने असल जिन्दगी में भी बाजी मार ली है। इन्हें भी पढ़ें : जुनून...अंधेरे मकां का खौफ़ नहीं मुझको कहने को तो अमिताभ बच्चन के नाम के साथ "दी एंग्री यंग मैन" का टैग लगा हुआ है, लेकिन असल जिन्दगी में

हैप्पी अभिनंदन में निर्मला कपिला

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हैप्पी अभिनंदन में आप ब्लॉगवुड की जिस हस्ती से मिलने जा रहे हैं, वे उन युवाओं के लिए किसी प्रेरणास्रोत से कम नहीं, जो समय न होने का बहाना लगाकर अपने कामों को बीच में छोड़ देते हैं। उम्र के जिस पड़ाव पर वीर बहुटी की लेखिका हैं, उस पड़ाव पर आपने ज्यादातर लोगों को राम राम कहते, गप्पे मारते या फिर सुबह की सैर करते हुए देखा होगा, लेकिन उन्होंने उस पड़ाव पर जाकर अपने शौक को नया आयाम दिया, और उम्र के इस छोर पर बैठी निर्मला कपिला जी छूटे हुए कई किनारों पर अफसोस करने की बजाय, उसको कोसने की बजाय, लुत्फ उठा रही हैं। कहें तो गुरदास मान के उस गीत के बोल को सच साबित कर रही हैं, जिसमें गुरदास मान ने कहा था, उम्र 'च की रक्खिया दिल होना चाहीदा जवान, उम्रां तां पूछ दे नादान। ब्लॉगवुड में कई बच्चों से माँ का दर्जा पा चुकी निर्मला कपिला से हुई कुलवंत हैप्पी की छोटी सी वार्तालाप के कुछ अंश : कुलवंत हैप्पी : सुना है आप कम्प्यूटर ज्यादा नहीं जानती, फिर ब्लॉग अपडेट कैसे कर पाती हैं, ये जरूर जानना चाहेंगे? निर्मला जी : जब मेरे दामाद ने मेरा ब्लॉग बनाया तो उस दिन उसने मुझे टाईप करना और पोस्टिन्ग करना स

शिर्डी यात्रा के कुछ पल-2

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शिर्डी से शिंगनापुर अब बाहर आया तो सोचा कि प्रसाद किसी अन्य जगह पर चढ़ता होगा शायद, लेकिन प्रसाद चढ़ाने के लिए कोई जगह न मिली। जहाँ अगरबत्तियाँ जल रही थी, वहाँ जाकर जब प्रसाद वाले लिफाफे को टिटोला तो बीच में उसके अगरबत्ती न निकली। अब क्या हो सकता था, केवल एक तिलक अपनी उंगली से अपने माथे पर करने के अलावा, सो किया, और लगते हाथ एक पेड़ के तले बने छोटे मंदिर में माथा भी टेक दिया। अब जनकसिंह झाला की बात याद आ गई "कहीं मंदिर देखें बिना भाग मत आना"। सो मंदिर देखना लाजमी भी हो गया। अपनी नजरें इधर उधर चलते चलते दौड़ाई तो निगाह जाकर एक संग्रहालय पर अटक गई। मैं उसके संग्रहालय के भीतर गया, साईं बाबा से जुड़ी हुई बहुत सी वस्तुएं देखीं, लेकिन इस दौरान मुझे एक बात का दुख हुआ कि इंग्लिश और मराठी के सिवाय किसी भी भाषा में उनका वर्णन न था, खासकर हिन्दी में न होने का दुख हुआ। संग्रहालय में मुझे साईं बाबा की सादगी ने कायल कर दिया। यहाँ पर चक्की, दो मग्गे, एक जोड़ा जूतों का, और पहने वाले बस्तरों के अलावा और भी बहुत कुछ था। कहते हैं कि चक्की साईं जी खुद चलाते थे, एक दिन उनको चक्की चलाते देखकर शिर्डी वास