एक गुमशुदा निराकार की तलाश
इस दुनिया में इंसान आता भी खाली हाथ है और जाता भी, लेकिन आने से जाने तक वो एक तलाश में ही जुटा रहता है। तलाश भी ऐसी जो खत्म नहीं होती और इंसान खुद खत्म हो जाता है। वो उस तलाश के साथ पैदा नहीं होता, लेकिन जैसे ही वो थोड़ा सा बड़ा होता है तो उसको उस तलाश अभियान का हिस्सा बना दिया जाता है, जिसको उसके पूर्वज, उसके अभिभावक भी नहीं मुकम्मल कर पाए, यह तलाश अभियान निरंतर चलता रहता है। जिसकी तलाश है, उसका कोई रूप ही नहीं, कुछ कहते हैं कि वो निराकार है। कितनी हैरानी की बात है इंसान उसकी तलाश में है, जिसका कोई आकार ही नहीं। इस निराकार की तलाश में इंसान खत्म हो जाता है, लेकिन उसका अभियान खत्म नहीं होता, क्योंकि उसने अपने खत्म होने से पहले इस तलाश अभियान को अपने बच्चों के हवाले कर दिया, जिस भटकन में वो चला गया, उसकी भटकन में उसके बच्चे भी चले जाएंगे।
ऐसा सदियों से होता आ रहा है, और अविराम चल भी रहा है तलाश अभियान। खोजना क्या है कुछ पता नहीं, वो है कैसा कुछ पता नहीं, हाँ अगर हमें पता है तो बस इतना कि कोई है जिसको हमें खोजना है। वो हमारी मदद करेगा, मतलब उसकी तलाश करो और खुद की मदद खुद करने का यत्न मत करो। मुझे मनुष्य और मृग में कोई ज्यादा फर्क नहीं लगता है, मनुष्य की तरह मृग भी कस्तूरी की तलाश में जंगल में भटकते भटकते मर जाता है, जबकि कस्तूरी तो उसकी नाभी में ही होती है। जैसे मृग की नाभी में कस्तूरी होती है, वैसे ही मनुष्य आत्मा में प्रमात्मा का वास होता है।
इसके बारे में लाईफ पॉजिटिव की संपादिका सुमा वर्गीज ने अगस्त 2009 के अंक में बहुत सुंदर शब्दों में कुछ ऐसे लिखा है। मनुष्य को बनाने और उसे ईश्वर की खोज करने और ईश्वर को जानने का कार्य सौंप कर परमात्मा एक बड़ी उलझन में फंस गए। उनके सामने जो समस्या थी कि वह यह थी कि वह कहाँ जाकर छिपे जहां मनुष्य उन्हें आसानी से न ढूँढ सके, पर्वत में जाकर छिपें या गहरे समुद्र में या मेघों के बीच उड़ते रहें, वह जाएं तो जाएं कहां? आखिरकार उन्हें अपनी उलझन का समाधान मिल ही गया। "मैं आदमी की आत्मा में निवास करूंगा" उन्होंने कहा, "क्योंकि यही एक जगह है, जहां मनुष्य मुझे ढूँढ निकालने की सोच भी नहीं सकेगा"।
सच में कुछ ऐसा ही हुआ, जिन्होंने परमात्मा को जाना है, उन्होंने भीतर से ही जानना है। अगर परमात्मा जंगलों में होते तो शेरों चीतों अन्य जानवरों को मिल जाते, अगर परमात्मा समुद्र में होते तो मछलियों को मिल जाते, अगर परमात्मा आसमां में मेघों के संग उड़ रहे होते तो शायद पक्षियों परिंदों से मिल जाते। मगर परमात्मा ने ऐसी जगह ढूँढ ली, जहाँ पहुंचने के लिए इंसान को खुद के भीतर उतरना होगा, लेकिन वो ऐसा करने में हमेशा असफल हुआ, क्योंकि उसको बाहरी दुनिया ने अंदर लौटने का मौका ही नहीं दिया, तलाश की जिम्मेदारी इतनी सख्त कर दी कि वो दिशाविहीन बस चले जा रहा है। अंत कहाँ है, उसको पहुंचना कहाँ है कोई पता नहीं। उसकी यात्रा का मृत्यु के अलावा कोई अंत है, उसको खुद को पता नहीं बस चले जा रहा है। इस तलाश को रोकने के लिए हम इतना यत्न कर सकते हैं कि हम जिस तलाश में भटक रहे हैं, उस तलाश में नई पीढ़ी को भटकनें से रोकें, अगर एक भी भटकने से बच गया तो समझो। अब कारवां शुरू हो चुका है।
ऐसा सदियों से होता आ रहा है, और अविराम चल भी रहा है तलाश अभियान। खोजना क्या है कुछ पता नहीं, वो है कैसा कुछ पता नहीं, हाँ अगर हमें पता है तो बस इतना कि कोई है जिसको हमें खोजना है। वो हमारी मदद करेगा, मतलब उसकी तलाश करो और खुद की मदद खुद करने का यत्न मत करो। मुझे मनुष्य और मृग में कोई ज्यादा फर्क नहीं लगता है, मनुष्य की तरह मृग भी कस्तूरी की तलाश में जंगल में भटकते भटकते मर जाता है, जबकि कस्तूरी तो उसकी नाभी में ही होती है। जैसे मृग की नाभी में कस्तूरी होती है, वैसे ही मनुष्य आत्मा में प्रमात्मा का वास होता है।
इसके बारे में लाईफ पॉजिटिव की संपादिका सुमा वर्गीज ने अगस्त 2009 के अंक में बहुत सुंदर शब्दों में कुछ ऐसे लिखा है। मनुष्य को बनाने और उसे ईश्वर की खोज करने और ईश्वर को जानने का कार्य सौंप कर परमात्मा एक बड़ी उलझन में फंस गए। उनके सामने जो समस्या थी कि वह यह थी कि वह कहाँ जाकर छिपे जहां मनुष्य उन्हें आसानी से न ढूँढ सके, पर्वत में जाकर छिपें या गहरे समुद्र में या मेघों के बीच उड़ते रहें, वह जाएं तो जाएं कहां? आखिरकार उन्हें अपनी उलझन का समाधान मिल ही गया। "मैं आदमी की आत्मा में निवास करूंगा" उन्होंने कहा, "क्योंकि यही एक जगह है, जहां मनुष्य मुझे ढूँढ निकालने की सोच भी नहीं सकेगा"।
सच में कुछ ऐसा ही हुआ, जिन्होंने परमात्मा को जाना है, उन्होंने भीतर से ही जानना है। अगर परमात्मा जंगलों में होते तो शेरों चीतों अन्य जानवरों को मिल जाते, अगर परमात्मा समुद्र में होते तो मछलियों को मिल जाते, अगर परमात्मा आसमां में मेघों के संग उड़ रहे होते तो शायद पक्षियों परिंदों से मिल जाते। मगर परमात्मा ने ऐसी जगह ढूँढ ली, जहाँ पहुंचने के लिए इंसान को खुद के भीतर उतरना होगा, लेकिन वो ऐसा करने में हमेशा असफल हुआ, क्योंकि उसको बाहरी दुनिया ने अंदर लौटने का मौका ही नहीं दिया, तलाश की जिम्मेदारी इतनी सख्त कर दी कि वो दिशाविहीन बस चले जा रहा है। अंत कहाँ है, उसको पहुंचना कहाँ है कोई पता नहीं। उसकी यात्रा का मृत्यु के अलावा कोई अंत है, उसको खुद को पता नहीं बस चले जा रहा है। इस तलाश को रोकने के लिए हम इतना यत्न कर सकते हैं कि हम जिस तलाश में भटक रहे हैं, उस तलाश में नई पीढ़ी को भटकनें से रोकें, अगर एक भी भटकने से बच गया तो समझो। अब कारवां शुरू हो चुका है।
आभार
कुलवंत हैप्पी
अत्यन्त महत्वपूर्ण व प्रेरक प्रविष्टि !
जवाब देंहटाएंआत्म-विकास को प्रेरित करती प्रविष्टि ! आभार ।
Bhadiya aalekh aacha laga pad kar ...Aabhar!
जवाब देंहटाएंhttp://kavyamanjusha.blogspot.com/
बहुत बढ़िया .......मुझे लगता है कि इंसान इंसान इस प्रश्नों के उत्तर कि खोझ करता है कि ''हम कौन है ,ये पिर्थीवी क्या है , क्यों हम इंसान है '' ऐसे प्रश्नों का कोई उत्तर नहीं .......इसलिए ये खोज निरंतर जारी रहेगी .
जवाब देंहटाएंकहीं योग शिविर खत्म होते तक साधु बाबा न हो जाओ!! बड़ा डर लग रहा है...बेहतरीन आख्यान!!
जवाब देंहटाएंसमीर जी ने सही कहा है आज कल तुम बहुत गम्भीर चिन्तन कर रहे हो। बहुत अच्छी सार्गर्भित पोस्ट के लिये बधाई और आशीर्वाद ।
जवाब देंहटाएंसुंदर अति सुंदर.
जवाब देंहटाएंरामराम.
aaj ke yuva varg se bahut ummeed jode baithe hai hum sabhee .Maine dekha hai ve jyada satark v jagrook hai apane jeevan v bhavishy ko le .
जवाब देंहटाएंIse umr me aapkee ye sonch jwalant udahran hai ise baat ka karva shuru hone ka intzar hai............
Bahut acchee lagee ye post.............
ghar mein bitiya aayi to sudhar gaye ho kya :)
जवाब देंहटाएंbahut accha laga padhna..
सच में कुछ ऐसा ही हुआ, जिन्होंने परमात्मा को जाना है, उन्होंने भीतर से ही जानना है। अगर परमात्मा जंगलों में होते तो शेरों चीतों अन्य जानवरों को मिल जाते, अगर परमात्मा समुद्र में होते तो मछलियों को मिल जाते, अगर परमात्मा आसमां में मेघों के संग उड़ रहे होते तो शायद पक्षियों परिंदों से मिल जाते। मगर परमात्मा ने ऐसी जगह ढूँढ ली, जहाँ पहुंचने के लिए इंसान को खुद के भीतर उतरना होगा.....
जवाब देंहटाएंमुझे मेरा जवाब मिल गया..... बहुत अच्छी लगी यह पोस्ट.....
आप ने काफी अच्छी पोस्ट दी है। मेरी पोस्ट पर आपने जो सवाल छोड़ा था उसी के संदर्भ में है यह पोस्ट
जवाब देंहटाएंमान्यताएं सामूहिक ही नहीं व्यक्तिगत भी होती हैं। हो सकता है कि आपके सवाल का जवाब मिल जाए।
ALL IS WELL
जवाब देंहटाएंshayad dil ko samjhane ke liye ham apna sara dosh aur dar uparwale ko samarpit kar use dhoodhne ka dhong karte hai.....shayad isi ka naam zindagi hai dhoondhte rahiye aur kahte rahiye ALL is WELL
bahut hi wastwik charitra chitran hai badhai KULWANT BHAI
बहुत बढ़िया गुरू, ऐसे ही चलने दो।
जवाब देंहटाएंअगर परमात्मा जंगलों में होते तो शेरों चीतों अन्य जानवरों को मिल जाते ... आसमां में मेघों के संग उड़ रहे होते तो शायद पक्षियों परिंदों से मिल जाते....
वाह गुरु तू ही है असली ईश्वरीय अवतार। बहुत बढ़िया।