कुछ मिले तो साँस और मिले...
ब मुश्किल टके हाथ आते हैं कुछ हज़ार और थोड़े सैकड़े क्या काफ़ी है ज़िंदगी ख़रीदने को जो नपती है कौड़ियों में. कौड़ियाँ भी इतनी नसीब नहीं, कि मुट्ठी भर ज़रूरतें मोल ले सकूँ कुछ उम्मीदें थीं ख़्वाब के मानिंद, वो ख़्वाब तो बस सपने हुए. कुछ मिले तो साँस और मिले ख़्वाबों को हासिल हो तफ़सील. अब मुश्किलों का सबब बन रही है गुज़र क्या ख़बर आगे कटेगी या नहीं. सिर्फ रात आँखों में कट रही है अभी, सवेरा होने में कई पैसों की देर है. (तफ़सील-विस्तार) अहम बात : युवा सोच युवा खयालात की श्रेणी अतिथि कोना में प्रकाशित इस रचना के मूल लेखक श्री "कनिष्क चौहान" जी हैं।