कविता-सड़क

टहल रहा था,
एक पुरानी सड़क पर
सुबह का वक्त था
सूर्य उग रहा था,
पंछी घोंसलों को छोड़
निकल रहे थे
दूर किसी की ओर
इस दौरां
एक आवाज सुनी
मेरे कानों ने
सड़क कुछ कह रही थी
ये बोल थे उसके
कोई पूछता नहीं मेरे हाल को
कोई समझता नहीं मेरे हाल को
आते हैं, जाते हैं हर रोज
नए नए राहगीर
ओवरलोड़ ट्रकों ने, बसों ने
दिया जिस्म मेरा चीर
सिस्कती हूं, चिल्लाती हूं,
बहाती हूं, अत्यंत नीर
फिर भी नहीं समझता कोई
मेरी पीर

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