क्या हो पाएगा मेरा देश साक्षर ऐसे में?
हिन्दुस्तान में गाँवों को देश की रूह कहा जाता है, लेकिन उस रूह की तरफ कोई देखने के लिए तैयार नहीं। देश की उस रूह में रहने वाले किसान सरकार की अनदेखियों का शिकार होकर आत्महत्याएं कर रहे हैं और बच्चे अपने अधूरे ख्वाबों के साथ अपनी जिन्दगी का सफर खत्म कर देते हैं। देश के पूर्व राष्ट्रपति श्री कलाम 2020 तक सुनहरे भारत का सपना देखते हैं, वैसे ही जैसे कि 1986 के बाद से क्रिकेट प्रेमी विश्वकप जीतने का सपना देख रहे हैं। पिछले दिनों प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने कहा कि भारत विश्व के नक्शे पर अपनी अनोखी पहचान बना रहा है, इसमें शक भी कैसा? चीन के बाद जनसंख्या में भारत का नाम ही आता है। जहां जनसंख्या होगी, वहां बाजार तो होगा ही और कोई बनिया अपने ग्राहक को बुरा भलां कैसे कहेगा? श्री सिंह जी विश्व के नक्शे से नजर हटाते हुए आप भारत के नक्शे पर नजर डालिए, उस नक्शे के भीतर जाते हुए देश की रूह पर नजर दौड़ाईए, जहां देश के लिए अनाज पैदा करने वाला व्यक्ति एक वक्त भूखा सोता है। जहां पर बच्चों में प्रतिभाएं तो हैं, लेकिन उनको निखारने के लिए सुविधाएं नहीं। जहां गरीबी का अजगर उनके सपनों को आए दिन निगल जाता है। कभी जाकर देखो देश की रूह के भीतर जहां स्कूल केवल चारदीवारी बनकर रह गए हैं, टीचरों का नामोनिशान तक नहीं। कैसी है देश की शिक्षा प्रणाली कि गांव से पढ़कर निकला हुआ टीचर किसी गाँव के स्कूल में पढ़ाना ही पसंद नहीं करता। मुझे याद है जब एक बार पंजाबी की टीचर ने अपनी बदली किसी दूसरी जगह करवा ली थी, और उसकी जगह एक नए टीचर को हमारे स्कूल में तैनात किया गया था, लेकिन हुआ क्या, वो टीचर कभी स्कूल आया ही नहीं और छ: महीनों के भीतर अपनी ऊंची पहुंच के चलते उसने अपनी बदली कहीं दूसरी जगह करवा ली। रूह को मैं जड़ कहता हूं, अगर वो जड़ ही कमजोर हो गई तो किसी पेड़ का खड़े रहना असंभव है। देश की घटिया शिक्षा प्रणाली का एक और किस्सा, चार पांच गांव में एक स्कूल जो बारहवीं तक है। वहां दाखिला लेने पहुंचे तो स्वेटर बुन रही कुछ महिला टीचरों ने कहा, तुम किसी और स्कूल में दाखिला क्यों नहीं ले लेते? यहां अच्छी पढ़ाई नहीं होती। हो सके तो तुम लोग मंडी में किसी प्राईवेट स्कूल में दाखिला ले लो। क्या बात है! जिस स्कूल में टीचर ही ऐसे होंगे, तो बच्चों का भविष्य क्या होगा आप सोच सकते हैं। उस स्कूल में एक ही टीचर काम का था, जो कभी किताब देखकर नहीं पढ़ाता था, उसका मानना था जिन्दगी में कभी रट्टा मत मारो। अगर रट्टा मारोगे तो तुम जिन्दगी के असली अध्याय को कभी समझ न पाओगे। बस वो ही एक अकेला टीचर था, जो बिना किताब के पढ़ाता, बाकी टीचर तो आँख मूंदकर पढ़ाते थे, एक बच्चा ऊंची ऊंची पढ़ता और बाकी सब किताबों पर निगाहें टिका लेते। कोई सवाल जवाब नहीं, बस पढ़ते जाओ समझ आए चाहे न। क्या ऐसी शिक्षा प्रणाली देश को किसी सफलता की तरफ लेकर जा सकती है। देश में प्रतिभाओं की कमी नहीं, कहते हर किसी को सुनता हूँ, लेकिन वो प्रतिभाएं आखिर हैं कहाँ? गरीब का अजगर, सरकार की लोक विरोधी नीतियाँ उन प्रतिभाओं को उभरने से पहले ही मार देती हैं। शिक्षा नीति में सुधार करना है तो पहले देश की रूह यानि गाँवों के स्कूलों को सुधारो। शहरी अभिभावक नम्बरों के खेल में उलझकर रह गए और गांव के गरीब अपने बच्चों को हस्ताक्षर करने योग्य ही कर पाते हैं?
वाजिब सवाल है पर जवाब दे कौन?
जवाब देंहटाएंहाँ बहुत कुछ आपके विचारो से सहमत हूँ ... विचारणीय प्रश्न है ....
जवाब देंहटाएंबहुत ही विचारणीय प्रश्न उठाए हैं आपने...हमे अपनी बुनियाद को ही सबसे पहले मज़बूत बनाना होगा ...अगर नीव मज़बूत होगी देशा का ढाँचा भी अपने दम पर आसानी से टिक पाएगा
जवाब देंहटाएंचिन्तित होना स्वभाविक है!!
जवाब देंहटाएंबहुत ही विचारणीय प्रश्न है। आपके इस आलेख ने मुझे 1982 का एक वाकया याद दिला दिया। तब एक प्रदेश की जेल में जगह न होने के कारण स्कूलों का इस्तेमाल कारावास के रूप में किया गया था और मैंने हिन्दुस्तान अख़बार में अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त की थी। आपके इस आलेख को पढ़कर उसे ढ़ूंढ़कर निकाला हूं। मैंने लिखा था --
जवाब देंहटाएं"अब ज़रा आप ही सोचिए जिस देश की सरकार एक विद्यागृह और कारागृह में अन्तर न समझती हो, उस देश के बच्चे अगर स्कूली कारा जाने से कतराएं या विद्यागृह से अपराधी होकर निकलें, तो दोष व्यवस्था का ही होगा।"
हालात आज भी नहीं बदलें हैं। यह आपके आलेख और चिंता से ज़ाहिर होता है। देश के एक चौथाई प्राथमिक स्कूलों में सिर्फ एक अध्यापक हैं और हज़ारो में तो एक भी नहीं। सिर्फ 15-20 प्र.श. प्रा.वि. में तीन या इससे अधिक शिक्षक। इससे तो पता लगता है कि सरकार बच्चों की पढ़ाई के प्रति कितनी चिंतित है। अधिकांश स्कूलों में बच्चे सिर्फ खेल में ही समय व्यतीत करते हैं। तो उनके अभिभावक अपने बच्चे को अध्ययन बंद कराकर काम पर न लगाएं तो क्या करें। फिर विद्यालय जाकर भी जिनके लिए काला अक्षर भैंस बराबर हो, उनके लिए तो यही सही है कि वे अक्ल से मूल्यवान भैंस को समझ उसकी ही सेवा करें जो उनकी उदरपूर्ति में सहायक होगी।