कोकिला का कुछ करो
'हम दोनों कितने कमीने हैं' उसने मेरी थाली से एक बर्फी का टुकड़ा उठाते हुए कहा।'वो तो ठीक है कि बेटा तुमको गुजराती आती है, वरना अब लोग चुस्त हो चुके हैं, खासकर आमिर खान की नई फिल्म 'थ्री इडियट्स' देखने के बाद" मैंने उसकी तरफ देखते हुए कहा। 'उसमें ऐसा क्या है' उसने उस बर्फी के पीस को अपने मुँह के पास ले जाते हुए पूछा। 'उसमें दिखाया गया है कि कैसे शादी में कोई ऐरा गैरा घुसकर खाने का लुत्फ लेता है, तुमको पता है जब तुम थाली उठा रहे थे तो एक व्यक्ति अपनु को संदिग्ध निगाह से देख रहा था' मैंने चमच से चावल उठाते हुए कहा। 'मुझे पता चल गया था, इसलिए तो मैं गुजराती में बोला था तुमको' उसने पुरी से एक निवाला तोड़ते हुए कहा। 'हम दोनों के पीछे बैग टंगे हुए हैं, ऐसा लगता है कि हम किसी कॉलेज या ट्यूशन से आए हैं, इस हालत में देखकर शक तो होगा ही' मैंने उसको कहा। दोनों दरवाजे के बाहर बनी फर्श की पट्टी पर बैठे मुफ्त के खाने का लुत्फ ले रहे थे, जो जमीं से नौ इंच ऊंची थी। मुफ्त के खाने का लुत्फ लेने के बाद अब बारी थी, नाट्य मंचन देखने की। शनिवार की रात को तो टिंकू टलसानिया एवं वंदना पाठक ने कमाल कर दिया था, लेकिन रविवार की रात को नए कलाकार आने वाले थे। जिनको मैं तो क्या वो गुजराती मानस भी नहीं जानता था, लेकिन फिर विश्वास था कि कुछ अच्छा ही होगा। टिंकू टलसानिया एवं वंदना पाठक का गुजराती नाटक 'जेनू खिस्सा गरम ऐनी सामे सहू नरम' देखने के बाद लगा कि रविवार की रात भी नाट्य मंचन के लेखे लगा देते हैं, अगर कुछ समझ आया तो ठीक, वरना सोच लेंगे कि एक पंजाबी गुजराती समाज में गलती से घुस गया।
'जेनु खिस्सा गरम ऐनी सामे सहू नरम' अर्थात जिसकी जेब गरम उसके सामने सब नरम एक जोरदार कटाक्ष आज के समय पर, सचमुच एक जोरदार कटाक्ष, भले ही इसकी विषय वस्तु पर कई फिल्में बन गई हों विशेषकर बागबाँ, लेकिन इसकी संवाद शैली सोचने पर मजबूर करती थी। टिंकू टलसानिया को टीवी पर तो बहुत देखा, लेकिन शनिवार की रात जो देखा वो अद्भुत था, और वंदना पाठक का अभिनय भी कोई कम न था। कहूँ तो दोनों एक से बढ़कर एक थे। टिंकू टलसानिया और वंदना पाठक का नाटक जहां एक स्वार्थी परिवार का वर्णन करता है, वहीं हेमंत झा, संजय गारोडिया अभिनीत एवं विपुल मेहता द्वारा निर्देशित 'आ कोकिला नूं क्योंक करो' एक दर्पण का काम कर गया।
इस नाटक का संदेश सिर्फ इतना था कि सब कुछ तुम्हारे पास है, लेकिन फिर भी तुम उसकी तलाश इधर उधर भटकते रहते हो, जैसे जंगल में हिरण। जिसकी वजह से हम खुद को पहचान ही नहीं पाते। सच में हकीकत है। प्रतिभा और सुंदरता सबके भीतर है, लेकिन उसको जानने की क्षमता हम अन्य वस्तुओं पर खर्च कर देते हैं और जिन्दगी को बोझ समझकर उस बोझ के तले खुद को दबाकर धीरे धीरे आत्महत्या कर लेते हैं। हम सब आत्महत्या ही करते हैं, सच में फर्क इतना है कि हम धीरे धीरे करते हैं, कुछ लोग एक पल में आत्महत्या कर लेते हैं।
'कोकिला' एक ऐसी लड़की है, जो दो भाईयों और एक पिता के स्नेह की छाँव तले पली, और तो और उसकी भाभी ने उसको कभी रसोई नहीं जाने दिया। बस कोकिला के हिस्से आई तो पूरा दिन खेलकूद, इस खेलकूद में वो भूल गई कि उसको एक दिन ससुराल जाना है, वहां जाने के लिए उसका लड़कों सा व्यवहार बदलना होगा। खेलकूद में मस्त कोकिला लड़की होकर भी लड़कियोँ सी न हो सकी, जो भी लड़का उसको देखे, और न बोल जाए। एक तो कोकिला का व्यवहार लड़कों जैसा हो गया और दूसरा उसकी कुंडली में मंगल। ऐसे में परिवार की दिक्कत और बढ़ गई। लड़के आएं और जाएं। कोकिला का पूरा परिवार दुख में पड़ जाता है, लेकिन इस दौरान उनके घर एक ड्रीममेकर आता था, जिसकी फीस दस हजार रुपए प्रति समस्या, बशर्ते अगर समस्या हल न हो तो दस गुना वापिस। दुनिया पैसे के लिए कुछ भी कर लेती है, घरवालों ने सोचा कि जाएंगे तो दस हजार, लेकिन अगर समस्या हल न हुई तो आएंगे एक लाख। ड्रीममेकर कहाँ हारने वाला था, वो तो आईना दिखाने का काम ही तो करता था। अंत में सब समस्या हल हो जाती हैं, लेकिन एक समस्या खुद ड्रीममेकर के सामने आकर खड़ी हो जाती है। उस समस्या का हल जानने के लिए अगर मौका मिले तो एक बार गुजराती नाटक आ कोकिला नु क्योंक करो जरूर देखें।
'जेनु खिस्सा गरम ऐनी सामे सहू नरम' अर्थात जिसकी जेब गरम उसके सामने सब नरम एक जोरदार कटाक्ष आज के समय पर, सचमुच एक जोरदार कटाक्ष, भले ही इसकी विषय वस्तु पर कई फिल्में बन गई हों विशेषकर बागबाँ, लेकिन इसकी संवाद शैली सोचने पर मजबूर करती थी। टिंकू टलसानिया को टीवी पर तो बहुत देखा, लेकिन शनिवार की रात जो देखा वो अद्भुत था, और वंदना पाठक का अभिनय भी कोई कम न था। कहूँ तो दोनों एक से बढ़कर एक थे। टिंकू टलसानिया और वंदना पाठक का नाटक जहां एक स्वार्थी परिवार का वर्णन करता है, वहीं हेमंत झा, संजय गारोडिया अभिनीत एवं विपुल मेहता द्वारा निर्देशित 'आ कोकिला नूं क्योंक करो' एक दर्पण का काम कर गया।
इस नाटक का संदेश सिर्फ इतना था कि सब कुछ तुम्हारे पास है, लेकिन फिर भी तुम उसकी तलाश इधर उधर भटकते रहते हो, जैसे जंगल में हिरण। जिसकी वजह से हम खुद को पहचान ही नहीं पाते। सच में हकीकत है। प्रतिभा और सुंदरता सबके भीतर है, लेकिन उसको जानने की क्षमता हम अन्य वस्तुओं पर खर्च कर देते हैं और जिन्दगी को बोझ समझकर उस बोझ के तले खुद को दबाकर धीरे धीरे आत्महत्या कर लेते हैं। हम सब आत्महत्या ही करते हैं, सच में फर्क इतना है कि हम धीरे धीरे करते हैं, कुछ लोग एक पल में आत्महत्या कर लेते हैं।
'कोकिला' एक ऐसी लड़की है, जो दो भाईयों और एक पिता के स्नेह की छाँव तले पली, और तो और उसकी भाभी ने उसको कभी रसोई नहीं जाने दिया। बस कोकिला के हिस्से आई तो पूरा दिन खेलकूद, इस खेलकूद में वो भूल गई कि उसको एक दिन ससुराल जाना है, वहां जाने के लिए उसका लड़कों सा व्यवहार बदलना होगा। खेलकूद में मस्त कोकिला लड़की होकर भी लड़कियोँ सी न हो सकी, जो भी लड़का उसको देखे, और न बोल जाए। एक तो कोकिला का व्यवहार लड़कों जैसा हो गया और दूसरा उसकी कुंडली में मंगल। ऐसे में परिवार की दिक्कत और बढ़ गई। लड़के आएं और जाएं। कोकिला का पूरा परिवार दुख में पड़ जाता है, लेकिन इस दौरान उनके घर एक ड्रीममेकर आता था, जिसकी फीस दस हजार रुपए प्रति समस्या, बशर्ते अगर समस्या हल न हो तो दस गुना वापिस। दुनिया पैसे के लिए कुछ भी कर लेती है, घरवालों ने सोचा कि जाएंगे तो दस हजार, लेकिन अगर समस्या हल न हुई तो आएंगे एक लाख। ड्रीममेकर कहाँ हारने वाला था, वो तो आईना दिखाने का काम ही तो करता था। अंत में सब समस्या हल हो जाती हैं, लेकिन एक समस्या खुद ड्रीममेकर के सामने आकर खड़ी हो जाती है। उस समस्या का हल जानने के लिए अगर मौका मिले तो एक बार गुजराती नाटक आ कोकिला नु क्योंक करो जरूर देखें।
कुलवंत जी बहुत ही बढ़िया ब्लॉग है !
जवाब देंहटाएंऐसी पोस्ट लिखते हो की पढने वाला भी खो जाये , सब कुछ जीवंत वर्णित लगता है
!
अच्छी जानकारी। धन्यवाद।
जवाब देंहटाएंबहुत बडिया प्रस्तुती बधाई शुभकामनायें
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