कुछ तुम कहो, कुछ हम कहें

अपना ये संवाद न टूटे
हाथ से हाथ न छूटे
ये सिलसिले यूँ ही चलते रहें
कुछ तुम कहो, कुछ हम कहें
न हो तेरी बात खत्म
न हो ये रात खत्म
ये सिलसिले यूँ ही चलते रहें
कुछ तुम कहो, कुछ हम कहें

मिलने दे आँखों को आँखों से
दे गर्म हवा मुझको साँसों से
ये सिलसिले यूँ ही चलते रहें
कुछ तुम कहो, कुछ हम कहें

हाथ खेलना चाहें तेरे बालों से
लाली होंठ माँगते तेरे गालों से
ये सिलसिले यूँ ही चलते रहें
कुछ तुम कहो, कुछ हम कहें

टिप्पणियाँ

  1. सच में सिलसिले कभी खत्म नहीं होने चाहिए। कुलवंत जी लिखते हैं। और हम आते रहेंगे। वादा।

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  2. बहुत सुन्दर सिलसिले हैं जो ज़िन्दगी को ज़िन्दगी से आदमी को आदमी से जोडे रखते हैं बहुत अच्छा रचना बधाई और आशीर्वाद

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  3. बहुत अच्छा सिलसिला बयाँ किया है....

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  4. bahut badhiya sir ji ........sringaar ras se poorn hai

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  5. sundar silsila...


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