कुछ तुम कहो, कुछ हम कहें
अपना ये संवाद न टूटे
हाथ से हाथ न छूटे
ये सिलसिले यूँ ही चलते रहें
कुछ तुम कहो, कुछ हम कहें
न हो तेरी बात खत्म
न हो ये रात खत्म
ये सिलसिले यूँ ही चलते रहें
कुछ तुम कहो, कुछ हम कहें
मिलने दे आँखों को आँखों से
दे गर्म हवा मुझको साँसों से
ये सिलसिले यूँ ही चलते रहें
कुछ तुम कहो, कुछ हम कहें
हाथ खेलना चाहें तेरे बालों से
लाली होंठ माँगते तेरे गालों से
ये सिलसिले यूँ ही चलते रहें
कुछ तुम कहो, कुछ हम कहें
हाथ से हाथ न छूटे
ये सिलसिले यूँ ही चलते रहें
कुछ तुम कहो, कुछ हम कहें
न हो तेरी बात खत्म
न हो ये रात खत्म
ये सिलसिले यूँ ही चलते रहें
कुछ तुम कहो, कुछ हम कहें
मिलने दे आँखों को आँखों से
दे गर्म हवा मुझको साँसों से
ये सिलसिले यूँ ही चलते रहें
कुछ तुम कहो, कुछ हम कहें
हाथ खेलना चाहें तेरे बालों से
लाली होंठ माँगते तेरे गालों से
ये सिलसिले यूँ ही चलते रहें
कुछ तुम कहो, कुछ हम कहें
सच में सिलसिले कभी खत्म नहीं होने चाहिए। कुलवंत जी लिखते हैं। और हम आते रहेंगे। वादा।
जवाब देंहटाएंबेहतरीन सिलसिला!
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर सिलसिले हैं जो ज़िन्दगी को ज़िन्दगी से आदमी को आदमी से जोडे रखते हैं बहुत अच्छा रचना बधाई और आशीर्वाद
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छा सिलसिला बयाँ किया है....
जवाब देंहटाएंbahut badhiya sir ji ........sringaar ras se poorn hai
जवाब देंहटाएंबहुत लाजवाब.
जवाब देंहटाएंरामराम.
sundar likha hai
जवाब देंहटाएंsundar silsila...
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bahut khoob!
जवाब देंहटाएंबहुत खूब, लाजबाब !
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