वो रोज मरती रही

र कर सवाल खुद से
वो रोज मरती रही,
अपने दर्द को
शब्दों के बर्तन भरती रही,

कुछ लोग आए
कहकर कलाकारी चले गए
और वो बूंद बूंद बन
बर्तन के इस पार झरती रही।

खुशियाँ खड़ी थी दो कदम दूर,
लेकिन दर्द के पर्दे ने आँखें खुलने न दी
वो मंजिल के पास पहुंच हौंसला हरती रही।

उसने दर्द को साथी बना लिया,
सुखों को देख, कर दिए दरवाजे बंद
फिर सिकवे दीवारों से करती रही।

रोज चढ़ता सूर्य उसके आंगन,
लेकिन अंधेरे से कर बैठी दोस्ती
वो पगली रोशनी से डरती रही।

इक दिन गली उसकी,
आया खुशियों का बनजारा,
बजाए इक तारा,
गाए प्यारा प्यारा,
बाहर जो ढूँढे तू पगली,
वो भीतर तेरे,
कृष्ण तेरा भीतर मीरा,
बैठा लगाए डेरे,

सुन गीत फकीर बनजारे का,
ऐसी लगन लगी,
रहने खुद में वो मगन लगी
देखते देखते दिन बदले,
रात भी सुबह हो चली,
हर पल खुशनुमा हो गया,
दर्द कहीं खुशियों की भीड़ में खो गया।

कई दिनों बाद फिर लौटा बनजारा,
लिए हाथ में इक तारा,
सुन धुन तारे की,
मस्त हुई,
उसके बाद न खुशी की सुबह
कभी अस्त हुई।

भार
कुलवंत हैप्पी

टिप्पणियाँ

  1. रोज चढ़ता सूर्य उसके आंगन,
    लेकिन अंधेरे से कर बैठी दोस्ती
    वो पगली रोशनी से डरती रही।

    ............लाजवाब पंक्तियाँ ............

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  2. ग़ज़ब की कविता ... कोई बार सोचता हूँ इतना अच्छा कैसे लिखा जाता है .

    जवाब देंहटाएं
  3. सरल और सुंदर शब्द के साथ बेहतरीन भाव..एक सशक्त कविता....धन्यवाद कुलवंत जी

    जवाब देंहटाएं
  4. बहुत खूब!! उम्दा अभिव्यक्ति!

    जवाब देंहटाएं
  5. कुलवंत जी ,
    ....सीख अपनी जगह अच्छी है ...पर वास्तविक ज़िन्दगी में कोई ऐसा नहीं कर पता .....ये तब हो सकता है जब वह पारिवारिक उलझनों से मुक्त हो भक्ति में लीन हो जाये ......आप ने तो एक साधारण स्त्री को देवी बना दिया ....सब अत्याचार करते रहे और वो हाथ जोड़े खड़ी रहे .....ऐसी स्थिति में या तो कोई पागल हो जाएगी या देवी बन जाएगी ....रही मीरा बनने की बात ....तो वह उसी युग में संभव था .....आज के युग में तो मंदिरों में भी वहशी बैठे हैं ...वह किसके सहारे जियेगी .....!?!

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  6. अच्छी अभिव्यक्ति....हरिकीरत हीर जी से सहमत हूँ...

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  7. @हरकिरत हीर, आपकी बात काफी हद तक सही हो सकती है, हाँ मैंने बात औरत की नहीं की, बल्कि आत्मा की है, जो औरत के लिबास पहने बैठी, जो पुरुष के लिबास को भी पहने बैठी है। लिबास नहीं, दुखी तो आत्मा है। तुम्हारे नाम के पीछे हीर है, आप जानते हो...अगर ज्यादती के हीर के साथ हुई तो रांझे के साथ भी कम ज्यादतियाँ न हुई थी। वो भी औरतें थी, जिन्होंने रांझे को घर से बेदखल करने में अहम भूमिका निभाई।

    एक हाथ से ताली नहीं बजती...शीघ्र

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  8. बहुत बढिया कविताई।
    कुलवंत हैप्पी जी।

    नव संवत्सर की हार्दिक बधाई

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  9. kulvant ji

    aaj ki abhivyakti to sahi mayno mein jeev aur brahma ke milan ki parinati hai..........har aatma mein usi ka vaas hai aur usse mile bina kabhi koi khushi kaho ya sukoon kisi ko bhi kahin nhi mila magar jab bhakti mein leen ho use hi bhaja tab kisi ki chah nhi rahi aur yahi hum sab ka param dhyey hai aur usi disha mein ham kadam nhi badhate aur umra bhar bechain rahte hain uske liye hamein ghar tyagne ki kya jaroorat hai ya kahin jaane ki meera to ghar baithkar bhi bana ja sakta hai sirf apni soch ki disha badalni hogi aur apn aman parampita ke charno mein leen karna hoga.

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  10. उसके बाद न खुशी की सुबह
    कभी अस्त हुई।
    iska matlab......?

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  11. रोज चढ़ता सूर्य उसके आंगन,
    लेकिन अंधेरे से कर बैठी दोस्ती
    वो पगली रोशनी से डरती रही।
    सूर्य उसी को रोशनी दे पाता है जो खुले में होता है.

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  12. ख़ुशी और गम नदी के दो पाट हैं |एक पर खड़े हों तो दूसरा आँखों से ओझल रहता है|इसीलिए झाल्लेविचारानुसार जिस घाट पर भी हों वोही स्वीकार करलेने में ही समझदारी है|

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  13. बहुत ही मार्मिक कविता है दिल को छू लेने वाली...सहज सरल शब्दों में गहरे भाव लिए...

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  14. pa ek baat batao banjare ki khushiyo mai koi kaise kho sakta hai ....agra wo banjara hai to hamare liye rkega thode wo to pal 2 pal ki khushi de kar chala jayega...................

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