कच्ची सड़क,,,अमृता प्रीतम और मैं
एक सप्ताह पहले पंजाब गया था, और शनिवार को ही इंदौर लौटा। मुझे किताबें खरीदने का शौक तो बहुत पहले से था, लेकिन पढ़ने का शौक पिछले दो तीन सालों से हुआ है। मैं किताब उसका शीर्षक देखकर खरीदता हूँ, लेखक देखकर नहीं। पता नहीं क्यों?। अब तक ऐसा करने से मुझे कोई नुक्सान नहीं हुआ, हर बार अच्छा ही हाथ लगा है। इस बार जब दिल्ली स्टेशन पर बैठा था, तो मेरी निगाह सामने किताबों वाली दुकान पर गई, जबकि मेरे बैग में पहले से ही मैक्सिम गोर्की की विश्व प्रसिद्ध किताब "माँ" पड़ी थी, जिसको भी मैंने केवल शीर्षक देखकर ही खरीदा था। मैं किताबों की दुकान पर गया, वहाँ सजी हुई किताबों पर नजर दौड़ाई, तो मेरी नजर किताबों के बीचोबीच पड़ी एक किताब "कच्ची सड़क" पर गई। कच्ची सड़क अमृता प्रीतम की थी, मुझे तब पता चला जब वो किताब मेरे हाथों में आई। मैंने लेखक को नहीं देखा, केवल किताब का शीर्षक देखा, शीर्षक अच्छा लगा किताब खरीद ली। शीर्षक इसलिए भी ज्यादा भा गया, जब मैं ब्लॉगस्पॉट पर पहली बार आया था, तब मेरे ब्लॉग का नाम कच्ची सड़क था, जो मेरी गलती के कारण मुझसे नष्ट हो गया था। अमृता प्रीतम महिलाओं को बेहद पसंद है, लेकिन मुझे उससे थोड़ी नफरत थी, क्योंकि उसके शब्दों का रंग जिस महिला पर चढ़ा वो गम से निजात पाने की बजाय खुद को और गमगीन महसूस करने लगी। शायद कच्ची सड़क का मेरे तक आना अमृता प्रीतम के प्रति मेरे नजरिए को बदलने का वक्त का एक मकसद हो सकता है। इस उपन्यास की शुरूआत भय से होती है, एक लड़की मीना अपने पुरुष मित्र के घर में खड़ी है, लेकिन वो अचानक अनजाने डर से सहम जाती है। शुरूआत बिल्कुल किसी हॉरर फिल्म जैसी है, धीरे धीरे उपन्यास आगे बढ़ता है, लेकिन सस्पेंस अंत तक बरकरार रहता है। उपन्यास की कहानी एक लड़की ईद गिर्द घूमती है, मीना को अधूरा सच ही पता होता है, जिसके कारण वो किसी अन्य व्यक्ति के हाथों का मोहरा भी बन जाती है। मीना जब अपने प्रेमी के घर से निकलती है, रास्ते में उसको एक लड़की मिलती है, जो उसको कहती है कि उसके असली पिता उसको बुला रहे हैं, मीना पहले डरती है, फिर उसको याद आती अपने पापा के एक दोस्त की, जिसको वो मामा भी कहती थी। लेकिन लड़की की बातों के बात मीना एक उलझन में पड़ जाती है, उसको अपनी माँ का दामन मैला सा लगने लगता है। मीना को लगता है कि वो गैर कानूनी औलाद है। उसके दो पापा हैं, जिसको वो पापा कहती है वो उसके पापा नहीं और जिसको वो पापा नहीं कह सकती वो उसके पापा है। मीना को अपने दूसरे पापा के बारे में अच्छी अच्छी बातें पता चलती हैं, लेकिन उसको लगता है कि उसकी माँ उसको वो बात नहीं बताती, जो उसकी माँ और उसके दूसरे पापा के बीच एक रिश्ता बनाती है। मीना घरवालों को बिना बताए, अपने दूसरे पापा से मिलने जाती है, उनके साथ विदेश घूमने जाती है। जिसके लिए उसको घर में तमाम झूठ बोलने पड़ते हैं। वो विदेश होकर आती है अपने दूसरे पिता के साथ, लेकिन अगले दिन का अखबार पढ़ते ही वो टूट जाती है, जमीं पर गिर जाती है। वो सब अपने प्रेमी को बताती है, जिसके बात उसका प्रेमी धीरे धीरे कर सारी बात को स्पष्ट कर लेता है, और उपन्यास खत्म हो जाता है। अमृता प्रीतम ने उपन्यास को पूरी लय में लिखा है, कहीं से भी लय टूटती नहीं। उपन्यास के जरिए शायद अमृता प्रीतम कहना चाहती थी कि अधूरे सच के साथ मत चलो, वरना मीना की तरह किसी के हाथ का मोहरा बनकर रह जाओगे।
आभार
कुलवंत हैप्पी
कच्ची सड़क-रोचक लग रही है किताब. कभी मौका लगा तो जरुर पढ़ेंगे.
जवाब देंहटाएंkahani behad rochak hogi,kabhi mauka lga to zarur paduga.achhi prastitee.
जवाब देंहटाएंvikas pandey
www.vicharokadarpan.com
आपने तो एक बूंद टपका दी। अब तरसते रहो। आपकी पुस्तके खरीदने की आदत पसन्द आयी।
जवाब देंहटाएंअमृता जी का यह अच्छा उपन्यास है इसमे दुख को एक ताकत के रूप मे इस्तेमाल किया गया है ।
जवाब देंहटाएंamrita ji ka likha padhna.......bahut asar karta hai!
जवाब देंहटाएंamrita ji ka likha padhna.......bahut asar karta hai!
जवाब देंहटाएंयार अब समझ मे आया कि जिसे मामा कहना पड रहा है जरूरी नही कि वो मामा ही हो.
जवाब देंहटाएंJitna achha amrita ji ne likha hai utna hi achha vayakhayan aapne bhi kiya hai
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