कपड़ों से फर्क पड़ता है
मुम्बई में महिला पत्रकार के साथ हुए गैंग रेप हादसे के बाद कुछ नेताओं ने कहा, महिलाओं को कपड़े पहनने के मामले में थोड़ा सा विचार करना चाहिए। यकीनन यह बयान महिलाओं की आजादी छीनने सा है। अगर दूसरे पहलू से सोचें तो इसमें बुरा भी कुछ नहीं, अगर थोड़ी सी सावधानी, किसी बुरी आफत से बचा सकती है तो बुराई कुछ भी नहीं। हमारे पास आज दो सौ किलोमीटर प्रति घंटा की रफ्तार से दौड़ने वाले वाहन हैं, लेकिन अगर हर कोई इस सपीड पर कार चलाएगा तो हादसे होने संभव है। ऐसे में अगर कोई गाड़ी संभलकर चलाने की बात कहे तो बुरा नहीं मानना चाहिए। देश का ट्रैफिक, सड़कें भी देखनी होगी, केवल स्पीड देखने भर से काम तो नहीं हो सकता। ऐसी सलाह देश के कुछ नागरिकों को बेहद नागवार गुजरती है, लेकिन आग के शहर में मोम के कपड़े पहनना भी बेवकूफी से कम न होगा। हमें कहीं न कहीं समाज को देखना होगा, उसके नजरिये को समझना होगा। जब हर कदम पर सलीब हो, और हर तरफ अंधेरा फैला हो, तो यकीनन हर कदम टिकाते समय बहुत सावधानी बरतनी पड़ेगी, पहले टोह लगानी पड़ेगी है, नीचे सलीब तो नहीं, एक दम दौड़कर निकलने वाले अक्सर लहू लहान होते हैं। देश की सरकार को कोसने भर से, देश की उन लड़कियों की आबरू वापसी नहीं आ सकती, जो हवश के तेज धार हथियार से घायल हो चुकी हैं। दिल्ली से मुम्बई तक। देश का शायद ही कोई कोना इससे बचा हो। ऐसा नहीं कि सेक्सी कपड़े पहनने वाली बालाओं को निशाना बनाया जाता है, लेकिन देश के ऐसे भी कई हिस्से हैं, जहां फैशन नाम की चिड़िया ने दस्तक नहीं दी। और वहां पर भी हादसे होते हैं। उसके भी कई कारण हैं, सबसे पहला कारण कमजोर कानून और सामाजिक प्रभाव, आम बोल चाल का हो, या सिनेमा हाल का।
देश को आजाद हुए साढ़े छह दशक से अधिक का समय हो गया। सिनेमा एक शताब्दी पूरी कर गया। लेकिन देश की आजादी के बाद महिलाओं की सुरक्षा को लेकर न सरकारों ने कुछ सोचा, और दूसरी तरफ सौ साल के सिनेमे ने भी औरत को आइटम बनाने में कोई कसर तो बाकी नहीं छोड़ी। छह करोड़ का ठुमका। सिनेमा हॉल में सीटियां तालियां बटोरता है। साड़ी पहनने या सीधी सादी लड़की का किरदार हमेशा हिट फिल्म का हिस्सा तो रहा, लेकिन उस किरदार को अदा करने वाला चेहरा रुपहले पर्दे से गायब हो गया। महिलाओं को परिवार से घूमने की आजादी को मिल गई। मनपंसद कपड़े पहनने की। आजादी के साथ मुसीबतें आती हैं। इसको नकारना बेहद पागलपन होगा। महिलाएं बराबरी का अधिकार जताती हैं, जो जताना चाहिए, लेकिन वे रेलवे टिकट कटवाते हुए खुद को महिला कहते हुए आगे निकल कर टिकट कटवाने का हक भी जताती हैं। बस में सफर करते वक्त भीड़ के बीच खड़े होना आज भी जिसके लिए सलीबों पर टंगे होने से कम नहीं, वे खुले बाजार में निकलते क्यूं भूल जाती है, घर परिवार बदला है, लेकिन जमाने की सोच नहीं।
देश मॉर्डन होता जा रहा है, लेकिन आज भी युवा पीढ़ी एक नारे को बड़े गर्व से कहती है। वैसे तो पक्के ब्रह्मचारी, लेकिन जहां मिल गई वहां ***, युवा पीढ़ी की इस सोच को कैसे नकार सकते हैं। देश के बाबा भी इस नियम को फलो करते हैं। हर तरफ जब आग का गोल चक्र बना हो तो मोम के कपड़े पहनकर निकलना बेहद घातक होता है। देश की सरकार कुछ करे न करे, लेकिन स्वयं की इज्जत तो स्वयं के हाथों में है। फैसला स्वयं को करना है। देश में बलात्कार जैसे हमलों को रोकने के लिए सख्त कानूनों की जरूरत है, लेकिन कानून बनने के बाद भी सुरक्षा की गारंटी तो नहीं। देश के सौ साल के सिनेमे ने औरत को भोग विलास की चीज के रूप में पेश किया है। इस तस्वीर को धुंधला होने में वक्त लगेगा। इस समाज में लड़का स्कूटरी के पीछे बैठा, और लड़की चला रही हो तो भी लोग बेगानी निगाहों से देखते हैं। अगर कानून बनने भर से देश की जनता को सुरक्षा की गारंटी मिल गई होती तो पुलिस थाने कब के दम तोड़ गए होते, जो आज पैसे बनाने की मशीन बनते जा रहे हैं। यहां अपराधी कम दलाल अधिक मिलते हैं। छोटे मोटे केस सुलझाने में कोर्ट भले ही मात खा जाए, लेकिन दलाल लोग कभी मात नहीं खाते। ऐसा नहीं कि मानवी दिमाग को आपके कपड़े ही केवल प्रभावित करेंगे, उसके दिमाग को रुपहले पर्दे के कपड़े भी प्रभावित करते हैं। फोटो कॉपी आज भी दिमाग में यॉरॉक्स है, टूथपेस्ट आज भी कोलगेट, और डिटर्जेंट पाउडर आज भी सर्फ। प्रभाव रहता है, प्रभाव पड़ता है। कपड़ों से फर्क पड़ता है। आपका गेटअप कपड़ों से आता है, फेसबुक पर सेक्सी, हॉट जैसी प्रतिक्रियाएं पाने के बाद खुश होना अच्छी बात है, लेकिन उसका संबंध कहीं न कहीं, असल जिन्दगी से है। यह भी समझना अति जरूरी है। आपका गेटअप आपको सेक्सी, हॉट और साधारण बनाता है। आजादी की दुहाई देकर हर बात को दरकिनार नहीं किया जा सकता।
चलते चलते इतना कहूंगा, रात के 10 बजे जब मैं, अपने कार्यालय से घर की तरफ लौटता हूं तो सुनसान हाइवे पर लड़के लड़कियां टहलते हुए देखता हूं। यह कोई अजीब बात नहीं, लेकिन अजीब बात तो यह है कि लड़का पूरे ट्रैक सूट में होता है, और लड़की खुली टी शर्ट, और 12 इंच की चड्ढी में होती है।
सहमति...
जवाब देंहटाएंशुक्रिया, प्रतिक्रिया देने के लिए। आपने यकीनन पूरा पढ़ा होगा, वरना कुछ तो आधे रास्ते में फैसला सुनाकर निकल लेते हैं। समय निकालने के लिए शुक्रिया। अमृता जी
हटाएंआपका विश्लेषण बिलकुल सटीक है.. खुद की सुरक्षा का ध्यान खुद को रखना जरुरी है
जवाब देंहटाएंlatest post आभार !
latest post देश किधर जा रहा है ?
कालीपद प्रसाद जी, बहुत शुक्रिया आपने अपनी राय रखी। मैं आपका आभार व्यक्त करता हूं।
हटाएंइन्हें ही सोचने दिया जाय कि
जवाब देंहटाएंइस दरिंदगी से बचने के क्या क्या उपाय हो सकते हैं-
"सोच बदलनी होगी-"
आसानी से किसकी सोच बदली जा सकती है-
या आसानी से क्या बदला जा सकता है-
सादर
कपड़े के पीछे पड़े, बिना जाँच-पड़ताल |
पड़े मुसीबत किसी पर, कोई करे सवाल |
कोई करे सवाल, हिमायत करने वालों |
व्यर्थ बाल की खाल, विषय पर नहीं निकालो |
मिले सही माहौल, रुकें ये रगड़े-लफड़े ।
देकर व्यर्थ बयान, उतारो यूँ ना कपडे ॥
रविकर जी आपने अपने विचार रखे। उसके लिए शुक्रिया। समय देने के लिए शुक्रिया।
जवाब देंहटाएंआज की ब्लॉग बुलेटिन वाकई हम मूर्ख हैं? - ब्लॉग बुलेटिन मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ...
जवाब देंहटाएंसादर आभार !
ब्लॉग बुलेटिन बहुत बहुत शुक्रिया।
हटाएंपिछले दिनों दिल्ली में रहा, अनचाहे ध्यान जाता है कि आमतौर पर हाफपैंट (और स्लीवलेस भी) के मामले में लड़के और लड़कियों का अनुपात 1 और 10 का होता है.
जवाब देंहटाएं.... बिलकुल सटीक है
जवाब देंहटाएंकुछ बयानों को तो मीडिया विवादास्पद बना देता है जबकि उनमें विवाद जैसा कुछ होता भी नहीं है !!
जवाब देंहटाएंकपड़ों को सिर्फ कपड़ों को देखकर कोई समाज कैसे रिएक्ट करता है यह उस समाज की सीविलिटी ,नागर बोध का सूचक है। भारतीय समाज आज भी आदम स्थिति में है।अभी भी चड्डी का नाप ले रहा है। उसके लिए एक और आकर्षक शब्द निकाल रहा है -क्वाटर पेंट।
जवाब देंहटाएंअध्यात्म जीवन से विलुप्त हो चुका है। कौन बतलाये ये सुन्दर काया भी प्रतिक्षण बदल रही है। इसे भोगकर भी क्या पाओगे हद का सुख। अरे सुख ही पाना है तो पाओ बे -हद का सुख। पर पहले शरीर भोग से ऊपर उठना होगा। शरीर तो जानवर भी खुली सड़क पे भोग लेते हैं। कभी अन्दर का अन्तर्मुखता का रस लेके देख बावले। बढ़ता जाएगा ये रस संसार का रस तो छीजता जाता है। ऊपर से नीचे की ओर आता है ,लाता है यह आनंद तो बढ़ता जाता है। नीचे से ऊपर ले जाता है ऊर्ध्व गामी बनाता है।
जिस दिन यह बोध हिन्दुस्तानी आध्यात्म जीवन में पूर्ण रूप से उतर जाएगा, तो शायद तब कपड़े हो या न हो से फर्क नहीं पड़ेगा, लेकिन सामाजिक स्तर उतना ऊंचा नहीं हुआ।
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