टुकड़ों की जिन्‍दगी ; रिटर्न टू इंडिया

कई बार हमने अपने बहनों भाईयों और दोस्‍तों को बड़े उत्‍साह के साथ जीमैट या जीआरई, टीओएफईएल की तैयारी करते, अमेरिकी दूतावास के सामने लम्‍बी कतारें लगाए और छात्रवृत्‍ति पाने के लिए तमाम कोशिशें करते देखा है, उनका मकसद सिर्फ इतना होता है कि वे अमेरिकी सपने को जीना चाहते हैं। वे कोला कोला, मिक्‍की माऊस, हैरिसन फोर्ड और अवसरों के देश को उड़ जाना चाहते हैं ताकि अपने जीवन के साथ प्रयोग कर सकें, परंपराओं और लालफीताशाही की घरेलू जंजीरों को तोड़ सकें।

जानी मानी लेखिका एवं स्‍तंभकार शोभा नारायण ने अपनी किताब ''रिटर्न टू इंडिया'' में बड़ी बेबाकी से अमेरिकी सपने और उसे जीने की चाहत को उकेरा है। साथ ही साथ दो परंपराओं के बीच झूल रहे लोगों के द्वंद्व के बारे में भी बड़े सलीके से बताया और जताया है। उन्‍होंने प्‍यार, परिवार, पहचान एवं घर कहने लायक एक ठिकाने की तलाश की कहानी बड़े ही मर्मस्‍पर्शी ढंग से पिरोई है।

इन कहानियों के बीच अपनी यादों को ताजा करते हुए शोभा जाहिद खान जैसे अपने दोस्‍तों की कहानी भी सुनाती हैं, जो अपने अमेरिकीकरण के लिए निरंतर प्रयासरत हैं। कहानी के बहाव के दौरान यह भी पता चलता है कि मल्‍लिकार्जुन राघवेंद्र उर्फ मिडनाइट कैसे मल्‍लिक पटेल बन जाते हैं, ताकि अपनी पत्‍िन नीना पटेल के रिश्‍तेदारों को निवेश के लिए मना सकें। ऐसी कई कहानियां एक दूसरे में गुंथी हुई मिलती हैं।

एक तरह से देखा जाए तो यह एक अप्रवासी के द्वंद्व की कहानी है, जिसे एक अप्रवसी ने अप्रवासी के लिए लिखा है। इसमें शोभा का वह सपना भी संजोया गया है, जिसमें वह घर लौटना चाहती है। एक जगह वह कहती हैं, मेरा सफर अनगिनत सफरों का प्रतीक है। मेरे द्वंद्व में बहुत सारे अप्रवासियों के द्वंद्व का अक्‍स दिखाई पड़ता है।

शोभा के सिर पर अमेरिका की धुन बचपने में ही सवार हो गई थी, जब उन्‍होंने अमेरिकी कार्टून, संगीत, फिल्‍में देखीं और आर्ची, बेटी एवं वेरॉनिका की कहानियां पढ़ीं। जब वह अमेरिका जाने के सपने को लेकर काफी गम्‍भीर होने लगीं तो उनके पिता ने आर्ची कॉमिक्‍स और मैड मैगजीन मंगाने पर रोक लगा दी और अमर चित्र कथा की ढे़रों प्रतियां घर लाने लगे ताकि शोभा को भारतीय परंपराओं और हिन्‍दु देवी देवताओं के बारे में जानकारी मिल सके। शोभा की मां अपने भाई कोअमेरिका में हुई एक दुर्घटना में खो चुकी थीं, इसलिए जब शोभा पर अमेरिका की धुन सवार होती थी तो वे उन पर बाल्‍टी भर पानी उंडेल देती थीं, मानो कोई भूत वूत उतार रही हों।

शोभा ने इस बात का ध्‍यान रखा है कि पाठक का मन अंत तक लगा रहे। इसके लिए उन्‍होंने बड़े ही दिलचस्‍प कहानी किस्‍से बुने हैं। कई मौकों पर पाठक को मुस्‍कराने का मौका दिया है। मिसाल के तौर पर शोभा ने एक जगह बताया है कि कैसे अमेरिकी विश्‍वविद्यालय में उनके चयन की ख़बर चैन्‍नई के किन्‍नरों तक पहुंच गई। या फिर किस तरह इंटरनेशनल स्‍टूडेंट्स एसोसिएशन से उन्‍हें पता चला कि सॉरी और पार्डन समानार्थी शब्‍द नहीं हैं और पास आऊट का मतलब बेहोश हो जाना होता है, न कि कॉलेज से स्‍नातक की उपाधि हासिल करना।

शोभा भी अमेरिकी सपने को जीने के लिए बेताब थीं ग्रीन कार्ड का सपना। मगर जब ग्रीन कार्ड आया तब शोभा की नई नई शादी हुई थी और उन्‍होंने उस पत्र को बेकार की पत्र पाती समझकर मोहल्‍ले के कूड़ेदान में फेंक दिया। उनके पति रात 'जिन्‍हें वे खुद से ज्‍यादा तार्किक एवं यथार्थवादी बताती हैं' उन्‍हें एक शानदार इतालवी रेस्‍त्रां ले गए, जहां दोनों ने कैंडल लाइट डिनर, मंत्रमुग्‍ध कर देने वाले संगीत और बेहतरीन शैंपेन के साथ जश्‍न मनाया। घर लौटते समय राम ने शोभा से ग्रीन कार्ड के बारे में पूछा तब दोनों को पता चला कि ग्रीन कार्ड वाला लिफाफा तो गलती से उसने कूड़ेदान में फेंक दिया है। आखिर शोभा और राम को रात में ही निकलकर टॉर्च की रोशनी में कूड़ेदान से वो पीला लिफाफा ढूंढना पड़ा।

बाद में अमेरिका में जब शोभा को बेटी हुई तो उन्‍हें वहां पहली चुनौती का सामना करना पड़ा। चुनौती थी बेटी का नामकरण। शोभा को शीला नाम पसंद था, मगर उनके भाई श्‍याम 'जो नेवी में कैप्‍टन थे और बाद में वार्टन बिजनेस स्‍कूल से स्‍नातक हुए' को यह नाम बेकार लगा। श्‍याम ने शोभा से कहा कि अगर अमेरिकी लोग आर्नल्‍ड श्‍वाज़ेनेगर जैसे जटिल नाम का सही उच्‍चारण कर सकते हैं तो फिर वे रंजिनी भी कह सकते हैं।

मैसेच्‍युसेट्स स्‍थित माउंड हॉल्‍योक में दाखिला पाने से पहले शोभा भारत छोड़कर अमेरिका जाने के लिए उतावली थीं। वे लिखती हैं कि भारत एक ऐसा देश है, जिससे प्‍यार करना मुश्‍किलक काम है और 20 साल की उम्र में तो मेरे लिए इसका कोई मतलब ही नहीं था। ऐसा नहीं कि मैं भारत से नरफत करती थी, मेरी भावनाएं इतनी तीव्र नहीं थी, मैं तो बस सामाजिक बर्ताव को लेकर बनाए गए नियमों और रूढ़ियों से तंग आ गई थी। मगर अमेरिका में 17 साल बिताने और दूसरी बेटी मालिनी के जन्‍म के बाद शोभा भारत लौटने के लिए बेकरार रहने लगीं। मगर फिर उनके मन में द्वंद्व पैदा हो गया और अमेरिका छोड़ने के पक्ष और विपक्ष में न जाने कितने विचार उमड़ने लगे। अंतत जब उनके पति को सिंगापुर में तैनाती मिलती है तब वे कुछ और समय तक अमेरिका में ही रहने का फैसला करती हैं।

किताब की यह खूबी है कि शोभा के भीतर के पत्रकार ने संवाद को काफी महत्‍व दिया है। बयानों बातचीत एवं विचारों को पूरी जगह मिली है। पूरे 269 पन्‍ने की इस तरह संवाद एवं कहानियों को संजोते हुए पिरोए गए हैं। किताब का आवरण एयरोग्राम जैसा दिखता है जो एक अप्रवासी और उस जैसे लाखों मुसाफिरों को खोजपरक यात्राओं का प्रतिनिधित्‍व करने वाली पुस्‍तक के लिए एकदम उपयुक्‍त है।

प्रस्‍तुति - केएस नारायण,
साभार - द संडे इंडियन हिन्‍दी पत्रिका
पुस्‍तक का नाम - रिटर्न टू इंडिया
लेखिका - शोभा नारायण
प्रकाशक - रूपा
पृष्‍ठ संख्‍या - 269
कीमत - 395

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