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मार्च, 2010 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

लेकिन, मुझे तो इक घर की जरूरत है

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(1) जिस्म के जख्म मिट्टी से भी आराम आए रूह के जख्मों के लिए लेप भी काम न आए (2) वक्त वो बच्चा है, जो खिलौने तोड़कर फिर जोड़ने की कला सीखता है (3) माँ का आँचल तो हमेशा याद रहा, मगर, भूल गया बूढ़े बरगद को छाँव तले जिसकी खेला अक्सर। (4) जब कभी भी, टूटते सितारे को देखता हूँ यादों में किसी, अपने प्यारे को देखता हूँ। (5) जब तेरी यादें धुँधली सी होने लगे, तेरे दिए जख्म खरोंच लेता हूँ। (6) तेरे शहर में मकानों की कमी नहीं, लेकिन, मुझे तो इक घर की जरूरत है वेलकम लिखा शहर में हर दर पर खुले जो, मुझे उस दर की जरूरत है आभार

हैप्पी अभिनंदन में संजय भास्कर

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है प्पी अभिनंदन में आज आप जिस ब्लॉगर हस्ती से रूबरू होने जा रहे हैं, उस ब्लॉगर हस्ती ने बहुत कम समय में बहुत ज्यादा प्यार हासिल कर लिया है, अपने नेक इरादों और अच्छी रचनाओं के बल पर। वो अपनी बात कहने के लिए ज्यादा शब्दों का इस्तेमाल नहीं करते, बल्कि अपने दिल की बात रखने के लिए वो दो चार पंक्तियाँ ही लिखते हैं, लेकिन पढ़ने का शौक इतना कि वो हर ब्लॉग पर मिल जाएंगे, जैसे सूर्य हर घर में रोशनी कर देता है, वैसे ही हमारे हरमन प्यारे ब्लॉगर संजय भास्कर जी भी हर ब्लॉग अपने विचारों का प्रकाश जरूर डालकर आते हैं। मैंने जब उनके ब्लॉग की पहली पोस्ट देखी, जो 19 जुलाई 2009 को प्रकाशित हुई, वो रोमन लिपि में थी सिर्फ एक लाईन में, लेकिन उनकी 'आदत.. मुस्कुराने की' ने उनको हिन्दी लिपि सीखने के लिए मजबूर कर ही दिया। उनकी मुस्कराने, पढ़ने और कुछ नया सीखने की आदत ने उनको एक शानदार ब्लॉगर बना ही दिया। आगे के बारे में वो क्या सोचते हैं, इसके बारे जाने के लिए पढ़िए, मेरे सवाल, उनके जवाब। कुलवंत हैप्पी : आप ब्लॉगदुनिया में कैसे, कब और क्यों आए? यहाँ आने के बाद क्या कभी कुछ अलग सा महसूस हुआ? संजय भास्कर

नेता, अभिनेता और प्रचार विक्रेता

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जब हम तीनों बहन भाई छोटे थे, तब आम बच्चों की तरह हमको भी टीवी देखने का बहुत शौक था, मुझे सबसे ज्यादा शौक था। मेरे कारण ही घर में कोई टीवी न टिक सका, मैं उसके कान (चैनल ट्यूनर) मोड़ मोड़कर खराब कर देता था। पिता को अक्सर सात बजे वाली क्षेत्रिय ख़बरें सुनी होती थी, वो सात बजे से पहले ही टीवी शुरू कर लेते थे, लेकिन जब कभी हमें टीवी देखते देखते देर रात होने लगती तो बाहर सोने की कोशिश कर रहे पिता की आवाज आती,"कंजरों बंद कर दो, इन्होंने तो पैसे कमाने हैं, तुम्हें बर्बाद कर देंगे टीवी वाले"। तब पिता की बात मुझे बेहद बुरी लगती, लगे भी क्यों न टीवी मनोरंजन के लिए तो होता है, और अगर कोई वो भी न करने दे तो बुरा लगता ही है, लेकिन अब इंदौर में पिछले पाँच माह से अकेला रह रहा हूँ, घर में केबल तार भी है, मगर देखने को मन नहीं करता, क्योंकि पिता की कही हुई वो कड़वी बात आज अहसास दिलाती है कि देश के नेता, अभिनेता और अब प्रचार विक्रेता (न्यूज चैनल) भी देश की जनता को उलझाने में लगे हुए हैं। आज 24 घंटे 7 दिन निरंतर चलने वाले न्यूज चैनल वो सात बजे वाली खबरों सी गरिमा बरकरार नहीं रख पा रहे, पहले जनता को

कुछ क्षणिकाओं की पोटली से

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1. हम भी दिल लगाते, थोड़ा सा सम्हल पढ़ी होती अगर, जरा सी भी रमल -: रमल- भविष्य की घटनाएं बताने वाली विद्या (2) मुश्किलों में भले ही अकेला था मैं, खुशियों के दौर में, ओपीडी के बाहर खड़े मरीजों से लम्बी थी मेरे दोस्तों की फेहरिस्त। ओपीडी-out patient department (3) खुदा करे वो भी शर्म में रहें और हम भी शर्म में रहें ताउम्र वो भी भ्रम में रहें और हम भी भ्रम में रहें बेशक दूर रहें, लेकिन मुहब्बत के पाक धर्म में रहें पहले वो कहें, पहले वो कहें हम इस क्रम में रहें (4) मत पूछ हाल-ए-दिल क्या बताऊं, बस इतना कह देता हूँ खेतिहर मजदूर का नंगा पाँव देख लेना तूफान के बाद कोई गाँव देख लेना (5) मुहब्बत के नाम पर जमाने ने लूटा है कई दफा मुहब्बत में पहले सी रवानगी लाऊं कैसे (6) औरत को कब किसी ने नकारा है मैंने ही नहीं, सबने औरत को कभी माँ, कभी बहन, कभी बुआ, कभी दादी, कभी नानी, तो कभी देवी कह पुकारा है। सो किओं मंदा आखिए, जितु जन्महि राजान श्री गुरू नानक देव ने उच्चारा है। वो रोया उम्र भर हैप्पी, जिसने भी औरत को धिधकारा है। (7) मोहब्बत मेरी तिजारत नहीं, प्रपोज कोई

आओ करते हैं कुछ परे की बात

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विज्ञापन बहुत रो लिए किसी को याद कर नहीं करनी, अब मरे की बात खिलते हुए फूल, पेड़ पौधे बुला रहे छोड़ो सूखे की, करो हरे की बात आलम देखो, सोहणी की दीवानगी का कब तक करते रहेंगे घड़े की बात आओ खुद लिखें कुछ नई इबारत बहुत हुई देश के लिए लड़े की बात चर्चा, बहस में ही गुजरी जिन्दगी आओ करते हैं कुछ परे की बात सोहणी- जो अपने प्रेमी महीवाल को मिलने के लिए कच्चे घड़े के सहारे चेनाब नदी में कूद गई थी, और अधर में डूब गई थी। परे की बात : कुछ हटकर.. आभार

कंधे बदलते देखे

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चिता पर तो अक्सर लाशें जलती हैं दोस्तो, मैंने तो जिन्दा इंसान चिंता में जलते देखे। तब जाना, जरूरत न पैरों की चलने के लिए जब भारत में कानून बिन पैर चलते देखे। फरेबियों को जफा भी रास आई दुनिया में, सच्चे दिल आशिक अक्सर हाथ मलते देखे। सुना था मैंने, चार कंधों पर जाता है इंसाँ मगर, कदम दर कदम कंधे बदलते देखे। कुछ ही थे, जिन्होंने बदले वक्त के साँचे वरना हैप्पी, मैंने लोग साँचों में ढलते देखे।  चलते चलते : प्रिय मित्र जनक सिंह झाला की कलम से निकले कुछ अल्फाज। हमारे जनाजे को उठाने वाले कंधे बदले, रूह के रुकस्त होने पै कुछ रिश्ते बदले, एक तेरा सहारा काफी था मेरे दोस्त, वरना, जिंदगी में कुछ लोग अपने आपसे बदले। आभार

मिलन से उत्सव तक

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तु मने मुझे गले से लगा लिया पहले की भांति फिर अपना लिया न कोई गिला किया, ना ही शिकवा शिकायत ना ही दी मुझे कोई हिदायत बस पकड़कर चूम लिया मुझे मानो तुम, मेरे ही इंतजार में थे तुम सच जानो, मैं इस स्पर्श को भूल सा गया था किसी के किए हुए एहसान की तरह मैं भी उलझकर रह गया था मायावी जाल में आम इंसान की तरह मगर आज मेरे कदम मुझे खींच लाए छत्त की ओर मुझे ऐसा खींचा, जैसे पतंग खींचे डोर छत्त पर आते ही मुझे, तुमने प्रकाशमयी बाँहों में भर लिया तेरे इस स्पर्श ने जगा डाला मेरी सोई आत्मा को तेरे प्रकाश की किरणें बूँदें बन बरसने लगी मेरे रूह की बंज़र जमीं फिर से हरी भरी हो गई तुमने मुझे जैसे ही छूआ, हवाओं ने पत्तों से टकराकर वैसे ही संगीत बना डाला पंछियों ने सुर में गाकर तेरे मेरे मिलन को उत्सव बना डाला। तेरे प्रकाश ने भीतर का अंधकार मिटा दिया, जैसे लहरों ने नदी के किनारे लिखे नाम। इस रचना द्वारा मैंने सूर्य और मानवी प्रेम को दर्शाने की कोशिश की है। दोनों के बीच के रिश्ते को दर्शाने की कोशिश। सूर्य और मानव में भी एक प्रेमी प्रेमिका का रिश्ता है, लेकिन प्रेम शून्य की अवस्था म

मन की बातें...जो विचार बन गई

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हँ सता हुआ चेहरा, खिलता हुआ फूल, उगता हुआ सूर्य व बहता हुआ पानी रोज देखने की आदत डालो। मुस्कराना आ जाएगा। -: कुलवंत हैप्पी ई श्वर को आज तक किसी ने परिभाषित नहीं, लेकिन जो मैंने जाना, वो ईश्वर हमारे भीतर है, और कला ही उसका असली रूप है। तुम्हारी कला ही तुम को सुख शांति यश और समृद्धि दे सकती है। जो तुम ईश्वर से पाने की इच्छा रखते हो। -: कुलवंत हैप्पी बॉ स की झूठी जी-हजूरी से अच्छा है, किसी गरीब को सच्चे दिल से थैंक्स कहना। क्योंकि यहाँ प्रकट किया धन्यवाद तुम्हें आत्मिक शांति देगा। -: कुलवंत हैप्पी अ गर इंवेस्टमेंट करना ही है, तो क्यों न प्रेम किया जाए, ताकि जब रिटर्न हो, तो हमें कागज के चंद टुकड़ों से कुछ बेहतर मिले। :-कुलवंत हैप्पी हे ईश्वर, जो भी तुमने मुझे दिया, वो मेरे लिए अत्यंत दुर्लभ है। मैं उसके लिए तेरा सदैव शुक्रिया अदा करता हूँ। :-कुलवंत हैप्पी आभार

हैप्पी अभिनंदन में गिरीश बिल्लोरे

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हैप्पी अभिनंदन में आज जिस ब्लॉगर हस्ती से आपकी मुलाकात होने जा रही है, वो लेखन ब्लॉगिंग से पॉडकास्टिंग ब्लॉगिंग तक पहुंच बना चुके हैं। वो जबलपुर में बैठकर भी दुनिया के किसी भी कोने में बैठे ब्लॉगर साथी के पास कुछ ही मिनटों में पहुंचकर, अपनी मधुर मीठी आवाज से उनके कानों में बातों का शहद खोलते, कुछ सवालों के मार्फत उनके भीतर के विचारों को जन जन तक पहुंचा देते हैं। अब उनके बारे में कुछ और कहने की जरूरत तो रह ही न गई, आप समझ ही गए होंगे मैं उनकी बात कर रहा हूँ, जो ब्लॉगर जगत के साँचे में बिल्कुल फिट बैठ गए, लेकिन गीत लिखने के शौकीन फिर भी कहते हैं गिरीश बिल्लोरे मिसफिट । कुलवंत हैप्पी : आपने ब्लॉगवुड में आगमन कब और कैसे किया? गिरीश बिल्लोरे : उस बच्चे के लिए नेट से जुड़ा जिसे आप सब आभास जोशी के नाम से जानतें हैं, बस मुझे नेट पर मिली श्रद्धा जैन जी और फिर पूर्णिमा वर्मा जी फिर छपाक से एक दिन मिले एक उड़न तश्तरी आई तीनों ने बना दिया ब्लॉगर। कुलवंत हैप्पी : आपका लेखन ब्लॉगिंग से पॉडकास्टिंग ब्लॉगिंग की ओर जाना कैसे हुआ? गिरीश बिल्लोरे : किसी कवि नें कहा ''मैं वो परवाना नहीं जो

लव सेक्स और धोखा बनाम नग्न एमएमएस क्लिप

फिल्म के निर्देशक और निर्माता ने फिल्म का शीर्षक समयोचित निकाला है, क्योंकि ज्यादातर दुनिया ऐसी होती जा रही है, प्रेम अभिनय की सीढ़ी जिस्म के बंगले तक पहुंचने के लिए लोग लगाते हैं, स्वार्थ पूरा होते ही उड़ जाते हैं जैसे फूलों का रस पीकर तितलियाँ। मुझे फिल्म के शीर्षक से कोई एतराज नहीं, लेकिन फिल्म समीक्षाएं पढ़ने के बाद फिल्म से जरूर एतराज हो गया है, ऐसा भी नहीं कि मैं कह रहा हूँ कि खोसला का घोंसला और ओए लक्की लक्की ओए जैसी फिल्म देने वाला निर्देशक एक घटिया फिल्म बनाएगा।    मैं जो बात करने जा रहा हूँ, वो फिल्म में न्यूड सीन के बारे में है, कहते हैं कि निर्देशक ने बहुत साधारण वीडियो कैमरों से बहुत ही उम्दा ढंग से इन सीनों को फिल्माया है। अगर कोई साधारण कैमरे से अच्छी चीज का फिल्मांकन करता है तो इस बात के लिए उसकी प्रशंसा कर सकता हूँ, अगर कोई कहता है कि उसने नग्न एमएमएस क्लिप को भी बढ़िया ढंग से शूट किया तो मुझे समझ नहीं आता कि उसकी प्रशंसा कैसे और क्यों करूँ। हाँ, बात कर रहे थे, फिल्म में नग्न दृश्य डालने की, शायद पहली बार ऐसा हिन्दी फिल्म में हुआ, हमबिस्तर होते तो हर फिल्म में दिखाई

कुछ टुकड़े शब्दों के

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(1) तेरे नेक इरादों के आगे, सिर झुकाना नहीं पड़ता खुद ब खुद झुकता है ए मेरे खुदा। (2) मेरे शब्द तो अक्सर काले थे, बिल्कुल कौए जैसे, फिर भी उन्होंने कई रंग निकाल लिए। (3) कहीं जलते चिराग-ए-घी तो कहीं तेल को तरसते दीए देखे। (4) एक बार कहा था तेरे हाथों की लकीरों में नाम नहीं मेरा, याद है मुझे आज भी, लहू से लथपथ वो हाथ तेरा (5) पहले पहल लगा, मैंने अपना हारा दिल, फिर देखा, बदले में मिला प्यारा दिल। (6) दामन बचाकर रखना जवानी में इश्क की आग से घर को आग लगी है अक्सर घर के चिराग से कह गया एक अजनबी राहगीर चलते चलते लक्ष्य पर रख निगाह एकलव्य की तरह जो भी कर अच्छा कर एक कर्तव्य की तरह कह गया एक अजनबी राहगीर चलते चलते जितनी चादर पैर उतने पसारो, मुँह दूसरी की थाली में न मारो  कह गया एक अजनबी राहगीर चलते चलते कबर खोद किसी ओर के लिए वक्त अपना जाया न कर कहना है काम जमाने का, बात हर मन को लगाया न कर कह गया एक अजनबी राहगीर चलते चलते आ भार

आओ चलें आनंद की ओर

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हिन्दुस्तान में एक परंपरा सदियों से चली आ रही है, बचपन खेल कूद में निकल जाता, और जवानी मस्त मौला माहौल के साथ। कुछ साल परिवार के लिए पैसा कमाने में, अंतिम में दिनों में पूजा पाठ करना शुरू हो जाता है, आत्मशांति के लिए। हम सारी उम्र निकाल देते हैं, आत्म को रौंदने में और अंत सालों में हम उस आत्म में शांति का वास करवाना चाहते हैं, कभी टूटे हुए, कूचले हुए फूल खुशबू देते हैं, कभी नहीं। टूटे हुए फूल को फेवीक्विक लगाकर एक पौधे के साथ जोड़ने की कोशिश मुझे तो व्यर्थ लगती है, शायद किसी को लगता हो कि वो फूल जीवित हो जाएगा। और दूसरी बात। हमने बुढ़ापे को अंतिम समय को मान लिया, जबकि मौत आने का तो कोई समय ही नहीं, मौत कभी उम्र नहीं देखती। जब हम बुढ़ापे तक पहुंच जाते हैं, तब हमें क्यों लगने लगता है हम मरने वाले हैं, इस भय से हम क्यों ग्रस्त हो जाते हैं। क्या हमने किसी को जवानी में मरते हुए नहीं देखा? क्या कभी हमने नवजात को दम तोड़ते हुए नहीं देखा? क्या कभी हमने किशोरावस्था में किसी को शमशान जाते हुए नहीं देखा? फिर ऐसा क्यों सोचते हैं  कि बुढ़ापा अंतिम समय है, मैंने तो लोगों को 150 वर्ष से भी ज्यादा जीते हुए

और खुद को जाना

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भी ड़ से निकल, शोर-गुल से दूर हो, जिम्मेदारियों को अलहदा कर खुद से रात को चुपके से, नींद के ताबूत में अपने आपको रख हर रात की तरह गहरी नींद में सोई आँखों के बंद दरवाजे पर ठक ठक हुई, स्वप्न बन आया कोई पकड़ हाथ मेरा  मुझे उठाकर ले गया साथ अपने वहाँ, देखती थी रोज जिसके सपने मेरे सूखे, मुरझाए ओंठों पर घिस डाला तोड़कर गुलाब उसने गालों पर लगा दिया हल्का सा स्पर्श का गुलाल उसने चुपके से खोल दिए बाल उसने फिर गुम हो गया, मैं झूमने को तैयार थी बाँहें हवा में लहराने को बे-करार थी शायद सुनी हवाओं ने दिल की बात या फिर वो हवा बन बहने लगा पता नहीं मीठी मीठी पवन चलने लगी जुल्फें उड़ने लगी बाँहें खुद ब खुद तनने लगी, मन का बगीचा खिल उठा, बाहर के बगीचे की तरह आनंद के भँवर आने लगे गीत गुनगुनाने लगे पैर थिरकने लगे, मैं पगलाने लगी तितलियों के संग उड़ते, मस्त हवाओं, झूमते पौधों के साथ झूमते हुए गुनगुनाने लगी हर तरफ आनंद ही आनंद जिसकी तलाश थी पल पल भूल गई, कौन हूँ, किसी दुनिया से आई हूँ, बस ऐसा लगा, कुदरत ने इसके लिए बनाई हूँ, जो हूँ, वो ही बनना था मुझे, देर से समझ पाई हूँ, क

वो रोज मरती रही

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क र कर सवाल खुद से वो रोज मरती रही, अपने दर्द को शब्दों के बर्तन भरती रही, कुछ लोग आए कहकर कलाकारी चले गए और वो बूंद बूंद बन बर्तन के इस पार झरती रही। खुशियाँ खड़ी थी दो कदम दूर, लेकिन दर्द के पर्दे ने आँखें खुलने न दी वो मंजिल के पास पहुंच हौंसला हरती रही। उसने दर्द को साथी बना लिया, सुखों को देख, कर दिए दरवाजे बंद फिर सिकवे दीवारों से करती रही। रोज चढ़ता सूर्य उसके आंगन, लेकिन अंधेरे से कर बैठी दोस्ती वो पगली रोशनी से डरती रही। इक दिन गली उसकी, आया खुशियों का बनजारा, बजाए इक तारा, गाए प्यारा प्यारा, बाहर जो ढूँढे तू पगली, वो भीतर तेरे, कृष्ण तेरा भीतर मीरा, बैठा लगाए डेरे, सुन गीत फकीर बनजारे का, ऐसी लगन लगी, रहने खुद में वो मगन लगी देखते देखते दिन बदले, रात भी सुबह हो चली, हर पल खुशनुमा हो गया, दर्द कहीं खुशियों की भीड़ में खो गया। कई दिनों बाद फिर लौटा बनजारा, लिए हाथ में इक तारा, सुन धुन तारे की, मस्त हुई, उसके बाद न खुशी की सुबह कभी अस्त हुई। आ भार

हैप्पी अभिनंदन में वृंदा गांधी

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है प्पी अभिनंदन में आज मैं आपको जिस ब्लॉगर हस्ती से रूबरू करवाने जा रहा हूँ, उसको ब्लॉग जगत में आए भले ही थोड़ा समय हुआ हो, लेकिन वो हस्ती जिस सोच और जिस ऊर्जा के साथ ब्लॉगिंग की दुनिया में आई है, उसको देखने के बाद नहीं लगता कि वो लम्बी रेस का घोड़ा नहीं। उसके भीतर कुछ अलग कुछ अहलदा करने की ललक है, वो आससान को छूना चाहती है, लेकिन अपने बल पर, शॉर्टकट उसको बिल्कुल पसंद नहीं। वो जहाँ एक तरफ पटियाला यूनिवर्सिटी से पत्रकारिता की पढ़ाई कर रही है, वहीं दूसरी तरफ ब्लॉगिंग की दुनिया में अपने लेखन का लोहा मनवाने के लिए उतर चुकी है। पत्रकारिता और ब्लॉगिंग से रूबरू हो चुकी वृंदा गांधी आखिर सोचती क्या हैं ब्लॉग जगत और बाहरी जगत के बारे में आओ जानते हैं उन्हीं की जुबानी :- कुलवंत हैप्पी : आप ब्लॉग जगत में कैसे आए, और आपको यहाँ आकर कैसा लग रहा है? वृंदा गांधी : कुछ समय पहले तक ब्लॉग मेरे लिए एक स्वप्न था क्योंकि इसके बारे में अधिक जानकारी नहीं थी। मेरा यह स्वप्न हकीकत में तब्दील हुआ, जब में अपनी ट्रेनिंग जनसत्ता समाचार-पत्र में करने गई। वहाँ सबके ब्लॉग देख एक इच्छा जागृत हुई और अरविन्द शेष जो वहाँ

धन्यवाद के बाद थप्पड़ रसीद

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मोटर साईकल पर सवार होकर मैं और मेरा मित्र जनकसिंह झाला रेलवे स्टेशन की तरफ जा रहे थे। सड़क पर मोटर कारों के अलावा काफी साईकिल भी चल रहे थे। उन साइकिलों को देखते ही एक किस्सा याद आ गया मेरे मित्र को, जैसे किसी बच्चे को खेलते देखकर हमारी आँखों के सामने हमारा बचपन जीवंत हो जाता है। उसने चलते चलते मुझे बताया कि जब वो नया नया साईकिल चलाना सीखा था, तो एक दिन अचानक उसका साईकिल एक बूढ़ी महिला से टकरा गया, वो महिला धड़म्म से जमीं पर गिरी। वो भागने की बजाय उस महिला को खड़ी कर उसके घर तक छोड़ने गया, जिसका घर में पास ही था। घर पहुंचे तो माँ के साथ हुए हादसे की बात सुनकर उस बूढ़ी महिला के बेटे ने सबसे पहले मेरे मित्र को धन्यवाद किया, क्योंकि वो उसकी माता को उसके घर तक छोड़ने आया था। और तुरंत ही पूछा,"माँ जिसने तुम्हारे बीच साईकिल मारा, वो कौन था?"। माँ ने कहा, "इसका ही साइकिल था, जो मुझे घर तक छोड़ने आया है"। उस नौजवान लड़के ने जितने प्यार के साथ धन्यवाद कहा था, उतनी ही बेरहमी से घर छोड़ने गए मेरे मित्र की गाल पर थप्पड़ रसीद कर दिया। वास्तव में हमारी अहिंसा, हमारी धार्मिकता और हमारी कृतज्ञ

आमिर खान की सफलता के पीछे क्या?

' ता रे जमीं पर' एवं 'थ्री इड्यिटस' में देश के शिक्षा सिस्टम के विरुद्ध आवाज बुलंद करते हुए आमिर खान को रुपहले पर्दे पर तो सबने देखा होगा। इन दोनों फिल्मों की अपार सफलता ने जहां आमिर खान के एक कलाकार रूपी कद को और ऊंचा किया है, वहीं आमिर खान के गम्भीर और संजीदा होने के संकेत भी दिए हैं। इन दिनों फिल्मों में आमिर खान का किरदार अलग अलग था। अगर 'तारे जमीं पर' में आमिर खान एक अदार्श टीचर था तो 'थ्री इड्यिटस' में एक अलहदा विद्यार्थी था, जो कुछ अलहदा ही करना चाहता था। इन किरदारों में अगर कुछ समानता नज़र आई तो एक जागरूक व्यक्ति का स्वाभाव और कुछ लीक से हटकर करने की जिद्द। इन दोनों किरदारों में शिक्षा सिस्टम पर सवालिया निशान लगाने वाले आमिर खान असल जिन्दगी में केवल 12वीं पास हैं। यह बात जानकर शायद किसी को हैरानी हो, लेकिन यह हकीकत है। आमिर खान ने अपना कद इतना ऊंचा कर लिया है कि कोई पूछने की हिम्मत भी नहीं कर सकता कि आप कितने पढ़े हैं। शायद यह सवाल उनकी काबलियत को देखते हुए कहीं गुम हो जाता है। कभी कभी लगता है कि आमिर खान ने देश के शिक्षा सिस्टम से तंग आकर स्कू

"स्वप्न दिवस" और "सपनों की बात"

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दुनिया में इंसान दो तरह के होते हैं। इस वाक्य को माय नेम इज खान में सुना होगा या उससे पहले भी कई दफा सुना होगा। वैसे देखा जाए तो सिक्के के भी दो पहलू होते हैं, लेकिन मैं बात करने जा रहा हूँ सपनों की, क्योंकि 11 मार्च को ड्रीम डे है मतलब स्वप्न दिवस। इंसान की तरह सपनों की भी दो किस्में होती हैं, एक जो रात को आते हैं, और दूसरे जो हम सब दिन में संजोते हैं। रात को मतलब नींद में आने वाले सपने बिन बुलाए अतिथि जैसे होते हैं। सुखद भी, दुखद भी। लेकिन जो खुली आँख से सपने हम सब देखते हैं, वो किसी मंजिल की तरफ चलने के लिए, कुछ बनने के लिए, कुछ कर गुजरने के लिए प्रेरित करते हैं। कुछ लोगों कहते हैं कि स्वप्न सच नहीं होते, लेकिन अगर गौर से देखा जाए तो हर सफल इंसान कहता है कि मैंने बचपन में ऐसा ही सपना संजोया था। मुझे दोनों ही सही लगते हैं, क्योंकि जो सफल हुए वो खुली आँख से देखे हुए सपनों की बात कर रहे हैं, जो कुछ लोग कह रहे हैं कि स्वप्न सत्य नहीं होते वो नींद में अचानक आने वाले सपनों की बात कर रहे हैं। रात को आने वाले स्वप्न फिल्म जैसे होते हैं, उनमें कुछ भी घटित हो सकता है। आप अकेले किसी फिल्म

हैप्पी अभिनंदन में हरिप्रसाद शर्मा

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जैसे आप जानते ही हैं कि हैप्पी अभिनंदन में हर बार हम किसी न किसी ब्लॉगर हस्ती से रूबरू होते हैं हम सब और जानते हैं उनके दिल की बातें। जो ब्लॉग हस्ती इस बार हमारे बीच मौजूद है, वो पेशे से सरकारी अधिकारी हैं, लेकिन शौक से साहित्य अनुरागी, क्रिकेट कमेंटेटर भी हैं। काव्य अनुरागी से बैंक अधिकारी और उसके बाद ब्लॉगर श्री हरि शर्मा से जानते हैं उनके दिल की बातें उनकी जुबानी। कुलवंत हैप्पी : आप ब्लॉगजगत मैं कैसे आए, और आने से पहले क्या सोचा था? हरि शर्मा : भाई कुलवन्त ब्लॉग से मेरा नाता ३ साल का है और ये तब शुरू हुआ जब मै मैनपुरी जिले में था। सोचा यही था कि ये उस आदमी के लिए जो थोड़े अपने विचारों को पठनीय बनाना चाहता है वो ऐसा कर सकता है ब्लॉग के मार्फत। मैंने सबसे पहले अनीता कुमार जी का ब्लॉग पढ़ा, फिर कोशिश करता रहा। और हिन्दी टाइप करना मुश्किल था, जी और पीछे बहुत जाना पड़ेगा। कुलवंत हैप्पी : हरि जी पहले से ही कवि थे या बैंक अधिकारी के बाद कवि बने? हरि शर्मा : मेरा पहला सार्वजनिक परिचय क्रिकेट कमेन्ट्रेटर के रूप में था मेरे अपने इलाके में, और इस रूप को मेरे चाहने वाले बहुत पसन्द करते थे,

मशहूर व मरहूम शायर साहिर लुधियानवीं

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"मैं पल दो पल का शायर हूँ, पल दो पल मेरी कहानी है। पल दो पल मेरी हस्ती है, पल दो पल मेरी जवानी है। हिन्दी फिल्म संगीत जगत का बेहद लोकप्रिया गीत आज भी लोगों की जुबाँ पर बिराजमान है, लेकिन इस गीत को लिखने वाली कलम के बादशाह साहिर लुधियाणवीं 25 अक्टूबर 1980 को इस दुनिया से सदा के लिए रुखस्त हो गए थे। इस महान शायर और गीतकार का जन्म लुधियाना में 8 मार्च 1921 को हुआ। साहिर लुधियानवीं कितने मजाकिया थे, इस बात का अंदाजा उनकी नरेश कुमार शाद के साथ हुई एक मुलाकात से चलता है। नरेश कुमार शाद ने आम मुलाकातियों की तरह एक रसमी सवाल किया, आप कब और कहाँ पैदा हुए? तो साहिर ने उक्त सवाल को दोहराते हुए और थोड़ा सा मुस्कराते हुए कहा, ये सवाल तो बहुत रसमी है, कुछ इसमें और जोड़ दो यार। क्यों पैदा हुए?। शाद के अगले सवाल पर साहिर कुछ फ़खरमंद और गर्वमयी नज़र आए, उन्होंने कहा कि वो बी.ए. नहीं कर सके, गौरमिंट कॉलेज लुधिआना और दयाल सिंह कॉलेज ने उनको निकाल दिया था, जो आज उस पर बड़ा गर्व करते हैं। साहिर की इस बात से शाद को साहिर का नज़र ए कॉलेज शेअर याद आ गया। लेकिन हम इन फजाओं के पाले हुए तो हैं। गर या नहीं, यहा

कच्ची सड़क,,,अमृता प्रीतम और मैं

ए क सप्ताह पहले पंजाब गया था, और शनिवार को ही इंदौर लौटा। मुझे किताबें खरीदने का शौक तो बहुत पहले से था, लेकिन पढ़ने का शौक पिछले दो तीन सालों से हुआ है। मैं किताब उसका शीर्षक देखकर खरीदता हूँ, लेखक देखकर नहीं। पता नहीं क्यों?। अब तक ऐसा करने से मुझे कोई नुक्सान नहीं हुआ, हर बार अच्छा ही हाथ लगा है। इस बार जब दिल्ली स्टेशन पर बैठा था, तो मेरी निगाह सामने किताबों वाली दुकान पर गई, जबकि मेरे बैग में पहले से ही मैक्सिम गोर्की की विश्व प्रसिद्ध किताब "माँ" पड़ी थी, जिसको भी मैंने केवल शीर्षक देखकर ही खरीदा था। मैं किताबों की दुकान पर गया, वहाँ सजी हुई किताबों पर नजर दौड़ाई, तो मेरी नजर किताबों के बीचोबीच पड़ी एक किताब "कच्ची सड़क" पर गई। कच्ची सड़क अमृता प्रीतम की थी, मुझे तब पता चला जब वो किताब मेरे हाथों में आई। मैंने लेखक को नहीं देखा, केवल किताब का शीर्षक देखा, शीर्षक अच्छा लगा किताब खरीद ली। शीर्षक इसलिए भी ज्यादा भा गया, जब मैं ब्लॉगस्पॉट पर पहली बार आया था, तब मेरे ब्लॉग का नाम कच्ची सड़क था, जो मेरी गलती के कारण मुझसे नष्ट हो गया था। अमृता प्रीतम महिलाओं को बेहद पसंद ह

हैप्पी अभिनंदन में महफूज अली

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हैप्पी अभिनंदन में आज आप जिस ब्लॉगर हस्ती से मिलने जा रहे हैं, उनकी सोच युवा है, लेकिन दिल में आज भी कोई बच्चा बसता है। उनका मिलनसार स्वाभाव, सफलता की शिखर को छूने के बाद भी जमीं से लगाव उनकी शख्सियत को चार चाँद लगाता है। नवाबों की नगरी लखनऊ के पॉश इलाके में जन्में, एक हाई स्टैंडर्ड स्कूल में पढ़े और एक बिजनसमैन के साथ साथ एक शानदार कवि के रूप में अपनी पहचान बनाई, हाँ सही पहचाना वो हैं अपने महफूज अली भाई । अपने बारे में वो और क्या क्या कहते हैं, उनकी कहानी उनकी जुबानी सुनते हैं। कुलवंत हैप्पी : अभिनेता सलमान खान से सब पूछते हैं, लेकिन महफूज अली से हम पूछना चाहेंगे शादी कब करोगे? महफूज अली : शादी इस साल हो जाने की उम्मीद है। भाई कुलवंत हैप्पी : आपकी नजर में भगवान की क्या परिभाषा है? महफूज अली : भगवान वो ताकत है जो सर्वशक्तिमान है....हर जगह है.... और भगवान ही इस दुनिया को चला रहे हैं... इस सम्पूर्ण ब्रम्हांड पर उन्हीं का शासन है...हर क्रिया -प्रक्रिया बिना भगवान् इजाज़त के नहीं होती। कुलवंत हैप्पी : आप इंग्लिश में भी कविताएं लिखते हैं और हिन्दी में भी, लेकिन असली मजा किसी भाषा म