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रेप रेप रेप, अब ब्रेक

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दिल्‍ली से केरल तक रेप की ख़बरें। भारतीय संस्‍कृति ऐसी तो नहीं। फिर क्‍यूं अपने घर में, देश की राजधानी में सेव नहीं गर्ल। लड़कियां कल का भविष्‍य हैं, कहकर कन्‍या भ्रूण हत्‍या पर तो रोक लगाने की हम सब जंग लड़ रहे हैं, लेकिन जिंदा लड़कियों को जिन्‍दा लाश में तब्‍दील करने के खिलाफ कब लड़ना शुरू करेंगे हम। कभी दिल्‍ली की चलती बस में लड़की के साथ रेप होता है, तो कभी घर में उसके अपने ही उसके बदन के कपड़े तार तार कर देते हैं। कभी केरल से ख़बर आती है बाप ने अपनी बेटी से कई सालों तक किया रेप। रेप रेप रेप सुनकर तंग आ चुके हैं, अब ब्रेक लगना चाहिए। गैंग रेप की घटना होने के बाद सारा कसूर पुलिस प्रशासन पर डाल देते हैं। हजारों मामलों की पैरवी कर रही पुलिस इस को भी एक मामला समझ कार्रवाई शुरू कर देती है। कई सालों बाद कोर्ट आरोपियों को कुछ साल की सजा सुना देती है, मगर रेप एक लड़की को कई सालों तक की सजा सुना देता है। उसके भीतर एक अनजाने से डर को ताउम्र भर के लिए भर देता है। सिने जगत  से लेकर मीडिया पर कसनी होगी नकेल हर तरफ सेक्‍स सेक्‍स, अश्‍लीलता अश्‍लीलता। जो दिमाग को पूरी तरह काम वासना से भ

चर्चाएं, चर्चाएं, बस चर्चाएं

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हम कितने फुर्सत में हैं। हमारी फुर्सत एक 27 साल के युवक (फेसबुक का संस्‍थापक) को अरबपतियों की श्रेणी में लाकर खड़ा कर देती है। इंटरनेट कंपनियों को भी मालोमाल कर देती है। हमारे देश में सब कुछ खत्‍म हो सकता है, मगर बे मतलबी बहस कभी खत्‍म नहीं होगी, क्‍यूंकि पंजाबी में एक कहावत है, वेहला बनिया की करे, इधर दे बट्टे उधर धरे, मतलब फुरसतिया दुकानदार क्‍या करे, इधर से उठाकर बटटा उधर रखे। आमिर खान का सत्‍यमेव जयते शुरू हुआ तो उसकी प्रशंसा करने की बजाय लोगों ने उसकी पत्‍िन का मुद्दा उठा लिया, अगर पीड़ित महिलाओं पर किस्‍त आए तो आमिर की पत्‍नि को बुलाना चाहिए, जबकि उनके तलाक के बाद से अब तक दोनों परिवारों की ओर से किसी भी प्रकार की बयानबाजी सामने नहीं आई, दोनों ने शादी की थी अपनी मर्जी से, छोड़ा अपनी मर्जी से, बोले तू कौन मैं खाम खा। जब महिलाएं मां बनने वाली होती है, तो उनका शरीर शिथिल हो जाता है, वो थोड़ी सी मोटी दिखाई पड़ने लगती है, शायद 95 फीसद महिलाओं के साथ तो ऐसा ही होता है, मगर जब ऐश्‍वर्या राय बच्‍चन के साथ ऐसा हुआ तो पूरे देश में चर्चा छिड़ गई कि ऐश मोटी हो गई। अखबारों ने भी लिख डाला,

आमसूत्र कहता है; मिलन उतना ही मीठा होता है

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आमसूत्र कहता है कि लालच को जितना पकने दो, मिलन उतना ही मीठा होता है। सबर करो सबर करो, और बरसने दो अम्‍बर को। गहरे पर सुनहरे रंग तैरने दो, बहक यह महकने दो, क्‍यूंकि सबर का फल मीठा होता है, मीठे रसीले आमों से बना मैंगो स्‍लाइस, आपसे मिलने को बेसबर है। आम का मौसम है। बात आम की न होगी तो किसकी होगी। मगर अफसोस के आम की बात नहीं होती। संसद में भी बात होती है तो खास की। आम आदमी की बात कौन करता है। अब जब उंगलियां 22 साल पुरानी इमानदारी पर उठ रही हैं तो लाजमी है कि खास जज्‍बाती तो होगा ही, क्‍यूंकि आखिर वह भी तो आदमी है, भले ही आम नहीं। जी हां, पी चिदंबरम। जो कह रहे हैं शक मत करो, खंजर खोप दो। वो कहते हैं बार बार मत बहस करो। कसाब को गोली मार दो। आखिर इतने चिढ़चिढ़े कैसे हो गए चिदंबरम। चिदंबरम ऐसे बर्ताव कर रहे हैं, जैसे निरंतर काम पर जाने के बाद आम आदमी करने लगता है। वो ही घसीटी पिट राहें। वो ही गलियां। वो ही चेहरे। वो ही रूम। वो ही कानों में गूंजती आवाजें। लगता है चिदंबरम को हॉलीडे पैकेज देने का वक्‍त आ गया। शायद मेरा सुझाव वैसा ही जैसा, दिलीप कुमार को देवदास रिलीज होने के बाद कुछ डॉक्‍टरों

सिर्फ नाम बदला है

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वो बारह साल की है। पढ़ने में अव्‍वल। पिता बेहद गरीब। मगर पिता को उम्‍मीद है कि उसकी बेटी पढ़ लिखकर कुछ बनेगी। अचानक एक दिन बारह साल की मासूम के पेट में दर्द उठता है। वो अपने मां बाप से सच नहीं बोल पाती, अंदर ही अंदर घुटन महसूस करने लगती है। आखिर अपने पेट की बात, अपनी सहेली को बताती है, और वो मासूम सहेली घर जाकर अपने माता पिता को। अगली सवेर उसके माता पिता कुछ अन्‍य पड़ोसियों को लेकर स्‍कूल पहुंचते हैं और स्‍कूल में मीटिंग बुलाई जाती है। बिना कुछ सोच समझे एक तरफा फैसला सुनाते बारह साल की मानसी को स्‍कूल से बाहर कर दिया जाता है। टूट चुका पिता अपनी बच्‍ची को लेकर डॉक्‍टर के यहां पहुंचता है, तो पता चलता है कि बच्‍ची मां नहीं बनने वाली, उसके पेट में नॉर्मल दर्द है। मगर डॉक्‍टर एक और बात कहता है, जो चौंका देती है, कि मानसी का कौमार्य भंग हो चुका है। गरीब पिता अपनी बच्‍ची को किसी दूसरे स्‍कूल में दाखिल करवाने के लिए लेकर जाता है, तो रास्‍ते में पता चलता है कि उसकी बेटी को पेट का दर्द देने वाला कोई और नहीं, उसी की जान पहचान का एक कार चालक है, जो खुद दो बच्‍चों का बाप है। अगली सुबह मानसी

जब नेता फंसे 'बड़े आराम से'

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बड़े आराम से। यह संवाद तो आप ने जरूर सुना होगा, अगर आप टीवी के दीवाने हैं। अगर, नहीं सुना तो मैं बता देता हूं, यह संवाद छोटे नवाब सैफ अली खान बोलते हैं, अमूल माचो के विज्ञापन में। अमूल माचो पहनकर सैफ मियां, एक हत्‍या की गुत्‍थी को ''बड़े आराम से'' सुलझा लेते हैं, क्‍यूंकि ''अमूल माचो'' इतनी पॉवरफुल बनियान है कि मरा हुआ आदमी खुद उठकर बोलता है कि उसका खून किसने किया। इस विज्ञापन को देखने के बाद सरकार को शक हुआ कि जो घोटाले बड़े आराम से सामने आए हैं, उसमें अमूल माचो का बड़ा हाथ है। घोटालों के सामने आते ही सरकार ने गुप्‍त बैठक का आयोजन कर नेताओं को सतर्क करते हुए कहा कि वह ''अपना लक पहनकर चलें'' मतलब लक्‍स कॉजी पहनें, वरना पकड़े जाने पर सरकार व पार्टी जिम्‍मेदार नहीं होगी। गुप्‍त बैठक से निकलकर नेता जैसे ही कार में बैठकर लक्‍स कॉजी लेने के लिए निकले तो रास्‍ते में ट्रैफिक पुलिस वाले ने नेता की गाड़ी को रोक लिया। नेता गुस्‍से में आ गए, आते भी क्‍यूं न जनाब। आखिर परिवहन मंत्री हैं, और उनके वाहन को बीच रास्‍ते रोक दिया जाए, बुरा तो लगेगा ही।

नटराजन का ख्‍वाब; पिंजरे की बुलबुल

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एक के बाद एक घोटाला उछलकर बाहर आ रहा है। कांग्रेस की छवि दिन ब दिन महात्‍मा गांधी की तरह धूमिल होती जा रही है। कांग्रेस के नेता पूरी तरह बुखला चुके हैं, वो अपने निकम्‍मे नेताओं को सुधारने की बजाय पूरी शक्‍ति मीडिया को ''पिंजरे की बुलबुल'' बनाने पर खर्च कर रहे हैं, जो लोकतंत्र के बिल्‍कुल उल्‍ट है। शायद कांग्रेस के नेता पानी के बहा को नहीं जानते, वो सोचते हैं कि पानी के बहा को बड़े बड़े बांध बनाकर रोका जा सकता है, लेकिन वो नहीं जानते कि पानी अपना रास्‍ता खुद बनाता है, पानी जीवन है तो विनाश भी है। अगर आप मीडिया के मुंह पर ताला जड़ेंगे तो लोग अपनी बात कहने के लिए दूसरे साधनों को चुनेंगे। अंग्रेजों के वक्‍त इतना बड़ा और इतना तेज तर्रार मीडिया भी तो नहीं था, मगर फिर भी जनमत तैयार करने में मीडिया ने अहम योगदान अदा किया था। कांग्रेसी नेता की पोल किसी अधिकारिक मीडिया ने तो नहीं खोली, जिस पर मीनाक्षी नटराजन बिल लाकर नकेल कसना चाहती हैं। शायद मीनाक्षी नटराजन राहुल बाबा की दोस्‍ती में इतना व्‍यस्‍त रहती हैं कि उनको वो लाइन भी याद नहीं होगी, जो लोग आम बोलते हैं, '

बोफोर्स घोटाला, अमिताभ का बयान और मेरी प्रतिक्रिया

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बोफोर्स घोटाला, कब सामने आया, यकीनन जब मैं तीसरा बसंत देख रहा था, यानि 1987, इस घोटाले का पर्दाफाश अंग्रेजी दैनिक समाचार पत्र द हिंदु की संवाददाता चित्रा सुब्रह्मण्‍यम ने किया, मगर सीबीआई ने इस मामले में चार्जशीट उस समय दाखिल की, जब मैं पांच साल पूरे कर छठे की तरफ बढ़ रहा था। इसके बाद सरकारें बदली, स्‍थितियां परिस्‍थितियां बदली, मैं भी समय के साथ साथ बड़ा होता चला गया। लेकिन मुझे इस घोटाले की जानकारी उस समय मिली जब इस घोटाले के कथित दलाल ओत्तावियो क्‍वोत्रिकी की हिरासत के लिए सीबीआई जद्दोजहद कर रही थी, और मैं एक न्‍यूज वेबसाइट के लिए कीबोर्ड पर उंगलियां चला रहा था, तकरीबन तब मैं पच्‍चीस साल का हो चुका था, और यह घोटाला करीबन 22 साल का। आप सोच रहे होंगे कि घोटाले और मेरी उम्र में क्‍या तालुक है, तालुक है पाठक साहिब, क्‍यूंकि जब यह घोटाला हुआ तो राजीव गांधी का नाम उछलकर सामने आया, चूंकि वह उस समय प्रधानमंत्री बने थे, और राजीव गांधी प्रधानमंत्री कब बने, जब इंदिरा गांधी का मौत हुई, और जब इंदिरा की मौत हुई, तब मैं पांच दिन का था, एक वो ही ऐसी घटना है, जिसने मेरे जन्‍मदिन की पुष्‍टि

आखिर छवि किसी की धूमिल हो रही है

आखिर छवि किसी की धूमिल हो रही है समझ से परे है, भारत सरकार की, इंडियन एक्‍सप्रेस की या सेनाध्‍यक्ष वीके सिंह की। कल रात प्राइम टाइम में इंडियन एक्‍सप्रेस के चीफ इन एडिटर शेखर गुप्‍ता ने एक बात जोरदार कही, जो शायद सभी मीडिया वालों के लिए गौर करने लायक है। श्री गुप्‍ता ने कहा कि इंडियन एक्‍सप्रेस ने जो प्रकाशित किया, अगर वह गलत है तो मीडिया को सामने लाकर रखना चाहिए, अगर इंडियन एक्‍सप्रेस में प्रकाशित बात सही है तो मीडिया वालों को उसका फलोअप करना चाहिए। इससे एक बात तो तय होती है कि इंडियन एक्‍सप्रेस को अपने पत्रकारों पर पूर्ण विश्‍वास है, जो होना भी चाहिए। फिर अभी अभी फेसबुक पर कुमार आलोक का स्‍टेटस अपडेट पढ़ा, जिसमें लिखा था, खबर है कि यूपीए में सरकार के एक बडे मंत्री के इशारे पर जनरल वीके सिंह की छवि धूमिल करने के लिए कल एक्सप्रेस में खबर छपरवाई गयी। मंत्री के रिश्तेदार बडे बडे आर्मस डीलर हैं। कुमार आलोक दूरदर्शन न्‍यूज में सीनियर पत्रकार हैं, ऐसे में उनकी बात को भी नकारा नहीं जा सकता। मगर सवाल यह उठता है कि इस पूरे घटनाक्रम में आखिर किसी की छवि धूमिल हो रही है, उस समाचार पत्र की जो अपन

अगर जंग जीतनी है तो.....बन जाओ सुनहरे मोतियों की माला।

छोटी छोटी चीजें जीवन की दिशा बदल सकती हैं, लेकिन उन छोटी छोटी चीजों पर अमल होना चाहिए, इस रविवार मैं अपने ससुराल में था, यहां घर के मुख्‍य द्वार पर कुछ इंग्‍लिश्‍ा की पंक्‍ितयां लिखी हुई हैं, जिनका मतलब शायद मेरे हिसाब से यह निकलता है, अगर हम एक साथ आ जाते हैं, तो यह शुरूआत है, अगर हम एक साथ बने रहते हैं तो यह उन्‍नति है, अगर हम एक साथ मिलकर कार्य करते हैं तो सफलता निश्‍िचत है। इस पंक्‍ित को पढ़ने के बाद लगा, क्‍या यह पंक्‍ित हमारे आज के उन नेताओं ने नहीं पढ़ी, जो काले धन को लेकर, लोकपाल बिल को दिल्‍ली में अनशन कर रहे हैं, अगर पढ़ी होती तो शायद बाबा रामदेव, अन्‍ना हजारे अलग अलग टीम बनाकर एक ही मिशन के लिए न लड़ते, बात चाहे लोकपाल बिल की हो या कालेधन को बाहर से लाने की, बात तो सरकार से जुड़ी हुई है। बचपन में एक कहानी कई दफा लिखी, क्‍योंकि उसको लिखने पर मुझे अंक मिलते थे, वो कहानी इम्‍ितहानों में से पास करवाने में अहम रोल अदा करती थी। एकता से जुड़ी वह कहानी, जिसमें एक किसान के चार पुत्र होते हैं, और किसान उनको पहले एक लकड़ी तोड़ने के लिए देता है और वह तोड़ देते हैं, फिर वह उनको लकड़िय

सावधान! देश उबल रहा है

मेरे घर गुजराती समाचार पत्र आता है, जिसके पहले पन्‍ने पर समाचार था कि देश की सुरक्षा को खतरा, इस समाचार को पढ़ने के बाद पहले पहल तो लगा कि देश का मीडिया देश हित की सोचता है या चीन जैसे दुश्‍मन की, जो ऐसी जानकारियां खुफिया तरीकों से जुटाने के लिए लाखों रुपए खर्च करता है। फिर एकांक विज्ञापन की एक पंक्‍ित 'देश उबल रहा है' याद आ गई, जो कई दिनों से मेरे दिमाग में बार बार बज रही है। जो कई दशकों से नहीं हुआ, और अब हो रहा है यह उबलते हुए देश की निशानी नहीं तो क्‍या है? इस समाचार को पढ़ने के बाद मैं काम को निकल गया, हुआ वही जो मेरे दिमाग में समाचार पढ़ने के बाद आया, कि अब राजनेता सेनाध्‍यक्ष की कुर्सी को निशाना बनाएंगे, सभी नेताओं ने प्रतिक्रिया देना शुरू कर दी, जो मुंह में आया बोल दिया, जानकारियां लीक करने वाले मीडिया के लिए जश्‍न का दिन बन गया, क्‍योंकि पूरा दिन पंचायत बिठाने का अवसर जो मिल गया था। मीडिया ने एक की सवाल पूछा क्‍या सेनाध्‍यक्ष को बर्खास्‍त किया जाना चाहिए, किसी ने यह नहीं कहा कि जो सेनाध्‍यक्ष ने पत्र में लिखा, उस पर जांच बिठाई जानी चाहिए, आखिर कहां कमियां रह गई के दे

टाइम में मोदी, मीडिया में खलबली क्‍यूं

टाइम पत्रिका के पहले पन्‍ने पर गुजरात के मुख्‍यमंत्री नरेंद्र सिंह मोदी की फोटो एक लाइन बिजनस मीन मोदी, बट केन ही लीड इंडिया के साथ प्रकाशित हुई, जो यह इशारा करती है कि इस बार टाइम ने गुजरात के मुख्‍यमंत्री को लेकर स्‍टोरी प्रकाशित की है, जो किसी भी पत्रिका का कार्य होता है, लेकिन जैसे ही इस पत्रिका ने अपना एशियाई अंक प्रकाशित किया, वैसे ही भारतीय मीडिया इसको लेकर एक स्‍टोरी बनाने बैठ गया, जैसे किसी पत्रिका ने पहली बार किसी व्‍यक्‍ित पर स्‍टोरी की हो, इंडिया टूडे उठाकर देख लो, क्‍या उस के फ्रंट पेज पर किसी व्‍यक्‍ित विशेष की फोटो नहीं होती, या फिर हिन्‍दुस्तान में प्रकाशित होने वाली पत्रिकाएं पत्रिकाएं नहीं हैं, सच कहूं तो दूर के ढोल सुहाने लगते हैं। इस पत्रिका के जो जो अंश समाचार बनाकर सामने आए हैं, उनमें कुछ भी नया नहीं था, क्‍योंकि जो लाइन टाइम ने फ्रंट पेज पर लिखी है, वह पूछ रही है कि क्‍या मोदी भारत की अगुवाई कर सकते हैं, यह बात को पिछले लोक सभा चुनाव के दौरान हर मीडिया बोल रहा था, शायद मसालेदार खबरों को दिखाने वाले मीडिया की याददाश्‍त कमजोर है। अगर नरेंद्र मोदी के खिलाफ कोई लिख

मीडिया, किक्रेट और पब्‍लिक

पंजाब के पूर्व वित्‍त मंत्री व मुख्‍यमंत्री प्रकाश सिंह बादल के भतीजे ने नई पार्टी की घोषणा करते हुए कहा कि आने वाले एक साल में वह पंजाब का नक्‍शा बदलकर रख देंगे, अगर लोग उनका साथ दें तो। आखिर बात फिर तो पर आकर अटक गई। जब तक बीच से तो व पर नहीं हटेंगे तब तक देश का सुधार होना मुश्किल। पब्‍लिक के साथ की तो उम्‍मीद ही मत करो, क्‍योंकि पब्‍लिक की याददाश्‍त कमजोर है। मनप्रीत सिंह बादल ने अपनी नई पार्टी की घोषणा तब की, जब पूरा मीडिया देश को क्रिकेट के रंग में पूरी तरह भिगोने में मस्त है। मीडिया की रिपोर्टों में भी मुझे विरोधाभास के सिवाए कुछ नजर नहीं आ रहा, चैनल वाले टीआरपी के चक्कर में बस जुटे हुए हैं। मुद्दा क्‍या है, क्‍या होना चाहिए कुछ पता नहीं। वो ही मीडिया कह रहा है कि भारत के प्रधानमंत्री ने पाकिस्तान के प्रधानमंत्री को न्यौता भेजकर दोनों देशों के संबंधों में आई खटास दूर करने के लिए कदम उठाया है, लेकिन वहीं दूसरी तरफ मीडिया भारत पाकिस्तान के मैच को युद्ध की तरह पेश कर रहा है। कहीं कहता है कि दोनों देशों में दोस्ताना बढ़ेगा, वहीं किक्रेट की बात करते हुए युद्ध सी स्थिति पैदा कर देता ह

जनाक्रोश से भी बेहतर हैं विकल्प, देश बदलने के

कुलवंत हैप्पी / गुड ईवनिंग/ समाचार पत्र कॉलम हिन्दुस्तान में बदलाव के समर्थकों की निगाहें इन दिनों अरब जगत में चल रहे विद्रोह प्रदर्शनों पर टिकी हुई हैं एवं कुछ लोग सोच रहे हैं कि हिन्दुस्तान में भी इस तरह के हालात बन सकते हैं और बदलाव हो सकता, लेकिन इस दौरान सोचने वाली बात तो यह है कि हिन्दुस्तान में तो पिछले छह दशकों से लोकतंत्र की बहाली हो चुकी है, यहां कोई तानाशाह गद्दी पर सालों से बिराजमान नहीं। वो बात जुदा है कि यहां लोकतांत्रिक सरकार होने के बावजूद भी देश में भूखमरी, बेरोजगारी व भ्रष्टाचार अपनी सीमाएं लांघता चला जा रहा है। इसके लिए जितनी हिन्दुस्तान की सरकार जिम्मेदार है, उससे कई गुणा ज्‍यादा तो आम जनता जिम्मेदार है, जो चुनावों में अपने मत अधिकार का इस्तेमाल करते वक्‍त पिछले दशकों की समीक्षा करना भूल जाती है। कुछ पैसों व अपने हित के कार्य सिद्ध करने के बदले वोट देती है। देश में जब जब चुनावों का वत नजदीक आता है नेता घर घर में पहुंचते हैं, लेकिन इन नेताओं की अगुवाई कौन करता है, हमीं तो करते हैं, या कहें हमीं में से कुछ लोग करते हैं, या जो समस्याएं हमें दरपेश आ रही ह

उंगली उठाने से पहले जरा सोचे

बुधवार को स्थानीय फायर बिग्रेड चौंक पर समाज सेवी संस्थाओं की ओर से हिन्दुस्तानी भ्रष्टाचार के खिलाफ जागरूकता रैली का आयोजन किया गया, जिसमें मैं भी शामिल हुआ। हाथों में जागरूकता फैलाने वाले बैनर पकड़े हम सब सडक़ के एक किनारे खड़े थे, और उन बैनरों पर जो लिखा था, वह आते जाते राहगीर तिरछी नजरों से पढ़कर अपनी मंजिल की तरफ बढ़ रहे थे। इतने में मेरे पास खड़े एक व्यक्‍ति की निगाह सामने दीवार पर लटक रहे धार्मिक संस्था के एक फलेक्‍स पर पड़ी, जिस पर लिखा हुआ था, हम बदलेंगे युग बदलेगा, हम सुधरेंगे युग सुधरेगा, उन्होंने मेरा ध्यान उस तरफ खींचते हुए कहा कि वह शब्‍द बहुत कम हैं, लेकिन बहुत कुछ कहते हैं। अपने लेखन से सागर में गागर तो कई लेखकों ने भर दिया, लेकिन हमारा जेहन उनको याद कितनी देर रखता है, अहम बात तो यह है। हमारे हाथों में पकड़े हुए बैनरों पर लिखे नारों की अंतिम पंक्‍ति भी कुछ यूं ही बयान करती है, न रिश्वत लें, न रिश्वत दें की कसम उठाएं, जो बैनर तैयार करते समय मेरे दिमाग से अचानक निकली थी। किसी पर उंगली उठानी, सडक़ों पर निकल कर प्रशासन के खिलाफ नारेबाजी करनी हमारी आदत में शुमार सा हो गया था, ल

रक्षक से भक्षक तक

सर जी, वो कहता है कि उसको एसी चाहिए घर के लिए। वो का मतलब था डॉक्टर, क्योंकि मोबाइल पर किसी से संवाद करने वाला व्यक्ति एक उच्च दवा कंपनी का प्रतिनिधि था, जो शहर में उस कंपनी का कारोबार देखता था। इस बात को आज कई साल हो गए, शायद आज उसके संवाद में एसी की जगह एक नैनो कार आ गई होगी या फिर से भी ज्यादा महंगी कोई वस्तु आ गई होगी, क्योंकि शहर में लगातार खुल रहे अस्पताल बता रहे हैं कि शहर में मरीजों की संख्या बढ़ चुकी है, जिसके चलते दवा कारोबार में इजाफा तो लाजमी हुआ होगा। आप सोच रहें होंगे कि मैं क्या पहेली बुझा रहा हूँ, लेकिन यह किस्सा आम आदमी की जिन्दगी को बेहद प्रभावित करता है, क्योंकि इस किस्सा में भगवान को खरीदा जा रहा है। चौंकिए मत! आम आदमी की भाषा में डॉक्टर भी तो भगवान का रूप है, और उक्त किस्सा एक डॉक्टर को लालच देकर खरीदने का ही तो है। कितनी हैरानी की बात है कि पैसे मोह से बीमार डॉक्टर शारीरिक तौर पर बीमार व्यक्तियों का इलाज कर रहे हैं। इस में कोई दो राय नहीं होनी चाहिए कि दवा कंपनियों के पैसे से एशोआराम की जिन्दगी गुजारने वाले ज्यादातर डॉक्टर अपनी पसंदीदा कंपनियों की दवाईयाँ ही ल

अपनों के खून से सनते हाथ

अपनों के खून से सनते हाथ, आदम से इंसान तक का सफर अभी अधूरा है को दर्शाते हैं। झूठे सम्मान की खातिर अपनों को ही मौत के घाट उतार देता है आज का आदमी। पैसे एवं झूठे सम्मान की दौड़ में उलझे व्यक्तियों ने दिल में पनपने वाले भावनाओं एवं जज्बातों के अमृत को जहर बनाकर रख दिया है, और वो जहर कई जिन्दगियों को एक साथ खत्म कर देता है। पाकिस्तान की तरह हिन्दुस्तान में भी ऑनर किलिंग के मामले निरंतर सामने आ रहे हैं, ऐसा नहीं कि भारत में ऑनर किलिंग का रुझान आज के दौर का है, ऑनर किलिंग हो तो सालों से रही है, लेकिन सुर्खियों में अब आने लगी है, शायद अब पाकिस्तान की तरह हिन्दुस्तानी हुक्मरानों को भी चाहिए कि वो भी मर्दों के लिए ऐसे कानून बनाए, जो उनको ऐसे शर्मनाक कृत्य करने की आजादी मुहैया करवाए। पाकिस्तानी मर्दों की तरह हिन्दुस्तानी मर्द भी औरतों को बड़ी आसानी से मौत की नींद सुला सके, वो अपना पुरुष एकाधिकार कायम कर सकें। वोट का चारा खाने में मशगूल सरकारें मूक हैं और खाप पंचायतें अपनी दादागिरी कर रही हैं। इन्हीं पंचायतों के दबाव में आकर माँ बाप अपने बच्चों को मौत की नींद सुला देते हैं, जिनको जन्म देने ए

क्या देखते हैं वो फिल्में...

मंगलवार को एक काम से चंडीगढ़ जाना हुआ, बठिंडा से चंडीगढ़ तक का सफर बेहद सुखद रहा, क्योंकि बठिंडा से चंडीगढ़ तक एसी कोच बसों की शुरूआत जो हो चुकी है, बसें भी ऐसी जो रेलवे विभाग के चेयर कार अपार्टमेंट को मात देती हैं। इन बसों में सुखद सीटों के अलावा फिल्म देखने की भी अद्भुत व्यवस्था है। इसी व्यवस्था के चलते सफर के दौरान कुछ समय पहले रिलीज हुई पंजाबी फिल्म मिट्टी देखने का मौका मिल गया, जिसके कारण तीन चार घंटे का लम्बा सफर बिल्कुल पकाऊ नहीं लगा। पिछले कुछ सालों से पुन:जीवित हुए पंजाबी फिल्म जगत प्रतिभाओं की कमी नहीं, इस फिल्म को देखकर लगा। फिल्म सरकार द्वारा किसानों की जमीनों को अपने हितों के लिए सस्ते दामों पर बहुराष्ट्रीय कंपनियों के हवाले करने जैसी करतूतों से रूबरू करवाते हुए किसानों की टूटती चुप्पी के बाद होने वाले साईड अफेक्टों से अवगत करवाती है। फिल्म की कहानी चार बिगड़े हुए दोस्तों से शुरू होती है, जो नेताओं के लिए गुंदागर्दी करते हैं, और एक दिन उनको अहसास होता है कि वो सही अर्थों में गुंडे नहीं, बल्कि सरदार के कुत्ते हैं, जो उसके इशारे पर दुम हिलाते हैं। वो इस जिन्दगी से निजा

कितने और हैं पैसे और शहीदी ताज?

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कुलवंत हैप्पी कितने शहीदी ताज और मुआवजा देने के लिए पैसे हैं, शायद सरकार के लेखाकार और नीतिकार सोच रहे होंगे? साथ में यह भी सोच रहे होंगे कि बड़ी मुश्किल से हवाई हादसे की ख़बर के कारण जनता का ध्यान बस्तर से हटा था, नक्सलवाद से हटा था। चलो अफजल गुरू को फाँसी भले ही अब तक नहीं दे सके, लेकिन कसाब को फाँसी की सजा सुनाकर जनता की आँख में धूल तो झोंक ही दी, जो आँखें बंद कर जीवन जीने में व्यस्त है। आजकल तो हमारे पास कोई नेता भी नहीं बचा, जो मीडिया में गलत सलत बयानबाजी कर निरंतर हो रहे नक्सली हमलों से मीडिया का और जनता का ध्यान दूर खींच सके। देखो न कितना कुछ है सोचने के लिए सरकार के सलाहकारों के पास। आप सोच रहे होंगे क्या सलाहकार सलाहकार लगा रखी है, बार बार क्यों लिख रहा हूँ सलाहकार। लेकिन क्या करूं, देश के उच्च पदों पर बैठे हुए नेतागण भी फैसला लेने से पहले अपने सलाहकारों से बात करते हैं, सलाहकार भी नेताओं से चालू हैं, वो भी वहाँ बैठे बैठे ही टेबल स्टोरी जर्नलिस्ट की तरह बैठे बैठे लम्बी चौड़ी स्टोरियों सी सलाहें नेताओं के दे डालते हैं, जो वास्तविकता से कोसों दूर होती हैं। जनता की आँख में धूल

एक खत कुमार जलजला व ब्लॉगरों को

कुमार जलजला को वापिस आना चाहिए, जो विवादों में घिरने के बाद लापता हो गए, सुना है वो दिल्ली भी गए थे, ब्लॉग सम्मेलन में शिरकत करने, लेकिन किसी ढाबे पर दाल रोटी खाकर अपनी काली कार में लेपटॉप समेत वापिस चले गए, वो ब्लॉगर सम्मेलन में भले ही वापिस न जाए, लेकिन ब्लॉगवुड में वापसी करें।

दिलों में नहीं आई दरारें

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लेखक : कुलवंत हैप्पी पिछले कई दिनों से मेरी निगाह में पाकिस्तान से जुड़ी कुछ खबरें आ रही हैं, वैसे भी मुझे अपने पड़ोसी मुल्कों की खबरों से विशेष लगाव है, केवल बम्ब धमाके वाली ख़बरों को छोड़कर। सच कहूँ तो मुझे पड़ोसी देशों से आने वाली खुशखबरें बेहद प्रभावित करती हैं। जब पड़ोसी देशों से जुड़ी किसी खुशख़बर को पढ़ता हूँ तो ऐसा लगता है कि अलग हुए भाई के बच्चों की पाती किसी ने अखबार के मार्फत मुझ तक पहुंचा दी। इन खुशख़बरों ने ऐसा प्रभावित किया कि शुक्रवार की सुबह अचानक लबों पर कुछ पंक्तियाँ आ गई। दिल्ली से इस्लामाबाद के बीच जो है फासला मिटा दे, मेरे मौला, नफरत की वादियों में फिर से, मोहब्बत गुल खिला दे, मेरे मौला, सच कहूँ, हिन्दुस्तान और पाकिस्तान के बीच अगर कोई फासला है तो वो है दिल्ली से इस्लामाबाद के बीच, मतलब राजनीतिक स्तर का फासला, दिलों में तो दूरियाँ आई ही नहीं। रिश्ते वो ही कमजोर पड़ते हैं, यहाँ दिलों में दूरियाँ आ जाएं, लेकिन यहाँ दूरियाँ राजनीतिज्ञों ने बनाई है। साहित्यकारों ने तो दोनों मुल्कों को एक करने के लिए अपनी पूरी जान लगा दी है। अगर दिलों में भी मोहब्बत मर गई होती तो शायद श्री