रक्षक से भक्षक तक

सर जी, वो कहता है कि उसको एसी चाहिए घर के लिए। वो का मतलब था डॉक्टर, क्योंकि मोबाइल पर किसी से संवाद करने वाला व्यक्ति एक उच्च दवा कंपनी का प्रतिनिधि था, जो शहर में उस कंपनी का कारोबार देखता था। इस बात को आज कई साल हो गए, शायद आज उसके संवाद में एसी की जगह एक नैनो कार आ गई होगी या फिर से भी ज्यादा महंगी कोई वस्तु आ गई होगी, क्योंकि शहर में लगातार खुल रहे अस्पताल बता रहे हैं कि शहर में मरीजों की संख्या बढ़ चुकी है, जिसके चलते दवा कारोबार में इजाफा तो लाजमी हुआ होगा।

आप सोच रहें होंगे कि मैं क्या पहेली बुझा रहा हूँ, लेकिन यह किस्सा आम आदमी की जिन्दगी को बेहद प्रभावित करता है, क्योंकि इस किस्सा में भगवान को खरीदा जा रहा है। चौंकिए मत! आम आदमी की भाषा में डॉक्टर भी तो भगवान का रूप है, और उक्त किस्सा एक डॉक्टर को लालच देकर खरीदने का ही तो है। कितनी हैरानी की बात है कि पैसे मोह से बीमार डॉक्टर शारीरिक तौर पर बीमार व्यक्तियों का इलाज कर रहे हैं।

इस में कोई दो राय नहीं होनी चाहिए कि दवा कंपनियों के पैसे से एशोआराम की जिन्दगी गुजारने वाले ज्यादातर डॉक्टर अपनी पसंदीदा कंपनियों की दवाईयाँ ही लिखकर देते हैं, जिसकी मार पड़ती है आम आदमी पर, क्योंकि दवा कंपनियां डॉक्टर को दी जाने वाली सुविधाओं का खर्च भी तो अपने ही उत्पादों से निकालेंगी।

पैसे के मोह से ग्रस्त डॉक्टरी पेशा भी बुरी तरह बर्बाद हो चुका है, अब इस पेशे में ईमानदार लोग इतने बचें, जितना आटे में नमक या फिर समुद्र किनारे नजर आने वाला आईसबर्ग (हिमखंड), ज्ञात रहे कि आइसबर्ग का 90 फीसदी हिस्सा पानी में होता है, और दस फीसदी पानी के बाहर, जो नजर आता है।

अब ज्यादातर डॉक्टरों का मकसद मरीजों को ठीक करना नहीं, बल्कि रेगुलर ग्राहक बनाना है, ताकि उनकी रोजी रोटी चलती रहे, और वो जिन्दगी को पैसे के पक्ष से सुरक्षित कर लें, पैसे की लत ऐसी लग गई है कि आम लोग सरकारी नौकरियाँ तलाशते हैं, डॉक्टर खुद के अस्पताल खोलने के बारे में सोचते हैं। मुझे याद है, जब मेरी माता श्री बीमार हुई थी, उसका मानसा के एक सरकारी अस्पताल से चल रहा था, वो पहले से चालीस फीस ठीक हो गई थी, अचानक उस युवा डॉक्टर ने सरकारी नौकरी छोड़कर खुद को अस्पताल खोल लिया, और मेरी माता की दवाई अब उसके अस्पताल से आनी शुरू हो गई, वो पहले महीने भर में बुलाता था, अब हफ्ते भर में। और मोटी फीस लेने लगा था, लेकिन कुछ हफ्तों बाद उसकी तबीयत फिर से पहले जैसी हो गई, क्योंकि अब उस डॉक्टर का मकसद खुद की आमदन बढ़ाना था, ना कि मरीज को तंदरुस्त कर घर भेजना।

लोगों ने डॉक्टर को भगवान की उपमा दी है, लेकिन अब उस भगवान के मन में इतना खोट आ गया है कि अब वो भगवान अपने दर पर आने वाले मानवों के अंगों की तस्करी करने से भी पीछे नहीं हट रहा। इतना ही नहीं, कभी कभी तो भगवान इतना क्रूर हो जाता है कि शव को भी बिन पैसे परिजनों के हवाले नहीं करता। और तो और रक्त के लिए भी अब वो निजी ब्लड बैंकों की पर्चियां काटने लगा है, आम आदमी का शोषण अब उसकी आदत में शुमार हो गया है। अपनी रक्षक की छवि को उसने भक्षक की छवि में बदल दिया।

टिप्पणियाँ

  1. Padhke dil dhakse ho gaya...beemar wyakti doctor pe wishwas na kar sake,to phir waqayi sab bhagwan bharose!Aapke aalekh ne sanjeeda kar diya....

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  2. एकदम सटीक और सत्य तथ्यों से भरी हुयी पोस्ट !

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  3. सब से पहले रंग संयोजन बदलो मेरे जैसे बूढे लोगों को बहुत मुश्किल आती है। एक तो फाँट का साईज छोटा उपर से रंग इतना गहरा। देख लो मुझे गुस्सा आ रहा है इस लिये कुछ नही कहूँगी। तुम ने बूढों का ध्यान रखना छोड दिया है। शुभकामनायें

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