जनाक्रोश से भी बेहतर हैं विकल्प, देश बदलने के
कुलवंत हैप्पी / गुड ईवनिंग/ समाचार पत्र कॉलम
हिन्दुस्तान में बदलाव के समर्थकों की निगाहें इन दिनों अरब जगत में चल रहे विद्रोह प्रदर्शनों पर टिकी हुई हैं एवं कुछ लोग सोच रहे हैं कि हिन्दुस्तान में भी इस तरह के हालात बन सकते हैं और बदलाव हो सकता, लेकिन इस दौरान सोचने वाली बात तो यह है कि हिन्दुस्तान में तो पिछले छह दशकों से लोकतंत्र की बहाली हो चुकी है, यहां कोई तानाशाह गद्दी पर सालों से बिराजमान नहीं। वो बात जुदा है कि यहां लोकतांत्रिक सरकार होने के बावजूद भी देश में भूखमरी, बेरोजगारी व भ्रष्टाचार अपनी सीमाएं लांघता चला जा रहा है। इसके लिए जितनी हिन्दुस्तान की सरकार जिम्मेदार है, उससे कई गुणा ज्यादा तो आम जनता जिम्मेदार है, जो चुनावों में अपने मत अधिकार का इस्तेमाल करते वक्त पिछले दशकों की समीक्षा करना भूल जाती है। कुछ पैसों व अपने हित के कार्य सिद्ध करने के बदले वोट देती है। देश में जब जब चुनावों का वत नजदीक आता है नेता घर घर में पहुंचते हैं, लेकिन इन नेताओं की अगुवाई कौन करता है, हमीं तो करते हैं, या कहें हमीं में से कुछ लोग करते हैं, या जो समस्याएं हमें दरपेश आ रही हैं, उनको नहीं आती, जो नेताओं के लिए वोट मांगने के लिए हमारे दर आते हैं। पार्षद किसी नेता को अपनी दहलीज नहीं लाया कि हम भूल जाते हैं, यह वो शख्स है, जिसके खिलाफ जनाक्रोश के ख्वाब संजो रहे थे कुछ समय पूर्व, यह उसकी सरकार के प्रतिनिधि हैं, जिन्होंने डिग्री हाथों में लेकर नौकरी मांगने गए कुछ बेरोजगारों पर लाठियां बरसाई। यह भूलने की आदत ही तो आफत बन चुकी है। एक शहर में बहुत बड़ा बम्ब धमाका होता है, एवं कुछ घंटों बाद सुन टूटती है एवं शहर पहले सी चहल पहल का अहसास करता है। इसको साहस कहो, चाहे कमजोर याददाशत का नतीजा। पुलिस प्रशासन सांप निकालने के बाद लकीर पीटने की कहावत को सच करते हुए कुछ समय सुरक्षा कड़ी करता है, फिर वह भी अपनी जिम्मेदारी भूल जाता है। आज टीवी व समाचार पत्रों में अरब जगत में हो रहा जनाक्रोश छाया हुआ है, और कुछेक हिन्दुस्तानी शेखचिल्ली की तरह ख्यालों में हिन्दुस्तान में भी इस तरह के विद्रोह को होते हुए महसूस कर एक नए हिन्दुस्तान की कल्पना कर रहे हैं, लेकिन जैसे ही वहां सब शांत हो जाएगा, समाचार पत्र व खबरिया चैनल अपनी पेज थ्री की खबरों में व्यस्त हो जाएंगे, वैसे ही लोग भूल जाएंगे अरब देशों के जनाक्रोश को, और हिन्दुस्तान का लोकतंत्र दिन ब दिन बूढ़ा एवं बोझिल होता चला जाएगा। इसमें कोई दो राय नहीं कि हिन्दुस्तान में भी जनाक्रोश फूटेगा, लेकिन सत्ता नहीं बदलेगी बल्कि आपराधिक गतिविधियां बढ़ेगी, रिश्ते टूटेंगे, बच्चे बिकेंगे, वेश्यवृत्ति बढ़ेगी, दंगे फसाद होंगे। अगर इन सबको होने से रोकना है तो सरकार पर उम्मीदें रखने से बजाय खुद करने की हिम्मत करो। देश को बदलने के लिए जनाक्रोश के अलावा भी कई रास्ते हैं, लेकिन उन रास्तों पर चलने के लिए स्वयं में शति की जरूरत है। फैट्री मालिक प्रशासन से सहयोग लेकर युवावस्था भिखारियों को कार्य पर रखें, भीख मांगने वाले बच्चों को बड़े बड़े स्कूल अपने हॉस्टलों में रखकर शिक्षा दें, खासकर जो मोटी दान राशि लेते हैं। आम जन अपने पुराने कपड़ों को बेचने की बजाय, गरीबों को बांट दें, होटलों में बर्बाद होते खाने को गरीबों तक पहुंचा दो, सरकार के हर कार्य पर निगाहें रखो एवं पैसे देकर काम करवाने की आदत को नकार दो, नोट के बदले वोट की बजाय विकास के बदले दो वोट देने की आदत डालो।
हिन्दुस्तान में बदलाव के समर्थकों की निगाहें इन दिनों अरब जगत में चल रहे विद्रोह प्रदर्शनों पर टिकी हुई हैं एवं कुछ लोग सोच रहे हैं कि हिन्दुस्तान में भी इस तरह के हालात बन सकते हैं और बदलाव हो सकता, लेकिन इस दौरान सोचने वाली बात तो यह है कि हिन्दुस्तान में तो पिछले छह दशकों से लोकतंत्र की बहाली हो चुकी है, यहां कोई तानाशाह गद्दी पर सालों से बिराजमान नहीं। वो बात जुदा है कि यहां लोकतांत्रिक सरकार होने के बावजूद भी देश में भूखमरी, बेरोजगारी व भ्रष्टाचार अपनी सीमाएं लांघता चला जा रहा है। इसके लिए जितनी हिन्दुस्तान की सरकार जिम्मेदार है, उससे कई गुणा ज्यादा तो आम जनता जिम्मेदार है, जो चुनावों में अपने मत अधिकार का इस्तेमाल करते वक्त पिछले दशकों की समीक्षा करना भूल जाती है। कुछ पैसों व अपने हित के कार्य सिद्ध करने के बदले वोट देती है। देश में जब जब चुनावों का वत नजदीक आता है नेता घर घर में पहुंचते हैं, लेकिन इन नेताओं की अगुवाई कौन करता है, हमीं तो करते हैं, या कहें हमीं में से कुछ लोग करते हैं, या जो समस्याएं हमें दरपेश आ रही हैं, उनको नहीं आती, जो नेताओं के लिए वोट मांगने के लिए हमारे दर आते हैं। पार्षद किसी नेता को अपनी दहलीज नहीं लाया कि हम भूल जाते हैं, यह वो शख्स है, जिसके खिलाफ जनाक्रोश के ख्वाब संजो रहे थे कुछ समय पूर्व, यह उसकी सरकार के प्रतिनिधि हैं, जिन्होंने डिग्री हाथों में लेकर नौकरी मांगने गए कुछ बेरोजगारों पर लाठियां बरसाई। यह भूलने की आदत ही तो आफत बन चुकी है। एक शहर में बहुत बड़ा बम्ब धमाका होता है, एवं कुछ घंटों बाद सुन टूटती है एवं शहर पहले सी चहल पहल का अहसास करता है। इसको साहस कहो, चाहे कमजोर याददाशत का नतीजा। पुलिस प्रशासन सांप निकालने के बाद लकीर पीटने की कहावत को सच करते हुए कुछ समय सुरक्षा कड़ी करता है, फिर वह भी अपनी जिम्मेदारी भूल जाता है। आज टीवी व समाचार पत्रों में अरब जगत में हो रहा जनाक्रोश छाया हुआ है, और कुछेक हिन्दुस्तानी शेखचिल्ली की तरह ख्यालों में हिन्दुस्तान में भी इस तरह के विद्रोह को होते हुए महसूस कर एक नए हिन्दुस्तान की कल्पना कर रहे हैं, लेकिन जैसे ही वहां सब शांत हो जाएगा, समाचार पत्र व खबरिया चैनल अपनी पेज थ्री की खबरों में व्यस्त हो जाएंगे, वैसे ही लोग भूल जाएंगे अरब देशों के जनाक्रोश को, और हिन्दुस्तान का लोकतंत्र दिन ब दिन बूढ़ा एवं बोझिल होता चला जाएगा। इसमें कोई दो राय नहीं कि हिन्दुस्तान में भी जनाक्रोश फूटेगा, लेकिन सत्ता नहीं बदलेगी बल्कि आपराधिक गतिविधियां बढ़ेगी, रिश्ते टूटेंगे, बच्चे बिकेंगे, वेश्यवृत्ति बढ़ेगी, दंगे फसाद होंगे। अगर इन सबको होने से रोकना है तो सरकार पर उम्मीदें रखने से बजाय खुद करने की हिम्मत करो। देश को बदलने के लिए जनाक्रोश के अलावा भी कई रास्ते हैं, लेकिन उन रास्तों पर चलने के लिए स्वयं में शति की जरूरत है। फैट्री मालिक प्रशासन से सहयोग लेकर युवावस्था भिखारियों को कार्य पर रखें, भीख मांगने वाले बच्चों को बड़े बड़े स्कूल अपने हॉस्टलों में रखकर शिक्षा दें, खासकर जो मोटी दान राशि लेते हैं। आम जन अपने पुराने कपड़ों को बेचने की बजाय, गरीबों को बांट दें, होटलों में बर्बाद होते खाने को गरीबों तक पहुंचा दो, सरकार के हर कार्य पर निगाहें रखो एवं पैसे देकर काम करवाने की आदत को नकार दो, नोट के बदले वोट की बजाय विकास के बदले दो वोट देने की आदत डालो।
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