शिर्डी यात्रा के कुछ पल-2

शिर्डी से शिंगनापुर
अब बाहर आया तो सोचा कि प्रसाद किसी अन्य जगह पर चढ़ता होगा शायद, लेकिन प्रसाद चढ़ाने के लिए कोई जगह न मिली। जहाँ अगरबत्तियाँ जल रही थी, वहाँ जाकर जब प्रसाद वाले लिफाफे को टिटोला तो बीच में उसके अगरबत्ती न निकली। अब क्या हो सकता था, केवल एक तिलक अपनी उंगली से अपने माथे पर करने के अलावा, सो किया, और लगते हाथ एक पेड़ के तले बने छोटे मंदिर में माथा भी टेक दिया। अब जनकसिंह झाला की बात याद आ गई "कहीं मंदिर देखें बिना भाग मत आना"। सो मंदिर देखना लाजमी भी हो गया। अपनी नजरें इधर उधर चलते चलते दौड़ाई तो निगाह जाकर एक संग्रहालय पर अटक गई। मैं उसके संग्रहालय के भीतर गया, साईं बाबा से जुड़ी हुई बहुत सी वस्तुएं देखीं, लेकिन इस दौरान मुझे एक बात का दुख हुआ कि इंग्लिश और मराठी के सिवाय किसी भी भाषा में उनका वर्णन न था, खासकर हिन्दी में न होने का दुख हुआ। संग्रहालय में मुझे साईं बाबा की सादगी ने कायल कर दिया। यहाँ पर चक्की, दो मग्गे, एक जोड़ा जूतों का, और पहने वाले बस्तरों के अलावा और भी बहुत कुछ था। कहते हैं कि चक्की साईं जी खुद चलाते थे, एक दिन उनको चक्की चलाते देखकर शिर्डी वासी हैरान रह गए, क्योंकि साईं बाबा अकेले रहते थे, ऐसे में उनको खुद के लिए आटा पीसने की क्या जरूरत है, उनके लिए तो खाना किसी भी घर से आ सकता है। उनके चक्की चलाने की बात जैसे ही आसपास में फैली तो वहाँ पर आकर कुछ महिलाओं ने उनसे चक्की छीन ली और आटा पीसना शुरू कर दिया। जब आटा पीस गया, सबने हिस्सों में बाँट लिया और घर लेकर जाने लगी तो साईं बाबा बोले..तुम इसको घर मत लेकर जाओ। इसको शिर्डी की सीमा पर बिखेर दो। कहते हैं कि उन दिनों शिर्डी में हैजा फैला हुआ था, जिसके बाद हैजे की बीमारी थम गई थी। इस संग्रहालय के बाद पवित्र राख लेने के लिए कतार में लगना पड़ा, मैंने राख वितरण करने वाले से निवेदन किया कि आप मुझे कृप्या दो पुड़िया दें, लेकिन उन्होंने एक ही दी। अब हम भी ठहरे भारतीय, कहाँ मानने वाले थे। लाईन में फिर से लगकर एक और पुड़िया। मैंने अपने घर के एक ही पुड़िया ली, जबकि एक अन्य दोस्त के लिए ली। आप जब भी किसी धार्मिक यात्रा पर जाते हैं, तो साथ में एक दो सिफारिशें तो आई जाती हैं। मंदिर परिसर से बाहर निकला तो मेरी निगाह सामने शिर्डी नगर पंचायत द्वारा संचालित लॉकर रूम पर चली गई। अब मुझ से रहा न गया, और मैं सीधा वहाँ पहुंच गया। मैंने पूछा कि यहाँ सामान रखने का चार्ज क्या है, वहाँ पर बैठे एक ओहदेदार ने बताया कि पाँच रुपए एक बैग के। इतना ही नहीं, उसने साथ साथ में मुझे सिंगनापुर का किराया भी बता दिया, जबकि मैंने तो सिर्फ उसको इतना कहा था कि मुझे शिंगनापुर केवल होकर आना है, तब तक बैग रखने के कितने रुपए लेंगे। सबसे पहले अब उस स्थान पर मैं पहुंचा, जहाँ लॉकर में मेरा बैग अटका हुआ था, और भूख भी लग रही थी, रात से खाना जो नहीं खाया था। रास्ते में बस एक जगह रुकती थी, लेकिन वहाँ के लोगों का बर्ताव देखकर भूख मर गई थी। उसी गली में एक ढाबा था, जिसके बाहर लिखा हुआ था शेर-ए-पंजाब। मैंने सोचा क्यों न सुबह सुबह परांठे हो जाएं। उसके भीतर जाते ही मेरी निगाह सामने लगी हुई श्री गुरू नानक देव जी की फोटो पर पड़ी। मुझे वो व्यक्ति कहीं से भी पंजाबी नहीं लग रहा था। मैंने अपना परांठा खत्म करने के बाद बिल चुकाते हुए धीरे से पूछा, अंकल जी ये कौन हैं? उन्होंने उत्तर नहीं दिया, और ऐसे ही सिर हिला दिया। मैं समझ गया कि श्री गुरू नानक देव जी यहाँ पर इनके ब्रांड दूत हैं, जिनके कारण इनका धन्धा खूब चल रहा है। शिर्डी में शेर-ए-पंजाब के नाम पर कई ढाबे हैं। इन ढाबों की संख्या बताती है कि साईं बाबा के पंजाबी श्रदालुओं की संख्या कितनी है। अब ढाबे से खाना खाकर निकला ही था कि एक गाड़ी वाले ने आकर घेर लिया। आओ जी आपको शिंगनापुर ले चलें, सिर्फ 70 रुपए में। दिल ने कहा, हैप्पी हाँ बोल दे। जब दिल साथ देता है तो मैं फिर सोचना बंद कर देता हूँ, दिमाग का इस्तेमाल नहीं करता। गाड़ी में बैठकर शिंगनापुर के लिए निकल पड़े, शायद अभी शिर्डी से भी बाहर नहीं निकले होंगे कि मेरी आँख लग गई, और आँख तब खुली, जब शिंगनापुर में प्रवेश करने के लिए पाँच रुपए की पर्ची कटवाने के लिए ड्राईवर ने मुझे उठा। 

अच्छा हुआ आँख खुल गई, अब ड्राइवर बताने लगा कि शिंगनापुर में किसी भी घर को दरवाजा नहीं, और यहाँ चोरी नहीं होती। इसके बारे में उससे पहले मुझे मेरे मित्र जनकसिंह झाला ने बताया था, और कहा था कि शिर्डी जाए तो वहाँ भी जरूर होकर आना। शिंगनापुर में किसी भी घर को दरवाजे नहीं, इस बात से मुझे कल रात पढ़े ओम थानवी के लेख की याद आ गई, जो 17 जनवरी को जनसत्ता में प्रकाशित हुआ था। उसमें लिखा था कि कोपेनहेगन में किसी भी दुकान को ताले नहीं लगते कुछ साल पहले जब कामरेड अरुण महेशवरी वहाँ जाकर आए थे। इतने में शिंगनापुर बस स्टॉप पर पहुंच गए। हमारी गाड़ी जैसे ही रुकी, कुछ नौजवान धोती लेकर आ गए। अगर आपको शनि देव के मंदिर में उनकी दुर्लभ मूर्ति पर तेल चढ़ना है तो आपको बस स्टेंड पर बनी पानी के टंकी के तले स्नान करना होगा, और फिर इस धोती को बांधकर मंदिर में जाना होगा। महिलाएं केवल शनिदेव के दर्शन दूर से ही कर सकती हैं, उनका वहाँ पूजा करना वर्जित है। मैंने भी महिलाओं की तरह ही शनि मंदिर की परिकर्मा की। शिर्डी में आपको गुलाबों की महक से महकता वातावरण मिलेगा, तो यहाँ की हवाओं में आपको बदबू महसूस हो सकती है, क्योंकि मंदिर के साथ वाली नदी अब गंदे नाले में तब्दील हो चुकी है, और उसमें आप पास का कचरा फेंका हुआ है। कहते हैं कि इस नदी से कभी शनिदेव की दुर्लभ मूर्ति प्राप्त हुई थी, जो अब तेल की नदिया बहा रही है, और ये नदी बेचारी पूरे गाँव का गंदा पानी अपने भीतर लिए संतोष कर रही है। बाकी परसों..कल मिलिए निर्मला कपिला जी से
फोटो गूगल के सौजन्य से

शिर्डी यात्रा के कुछ पल

टिप्पणियाँ

  1. बढ़िया वृतांत..कल निर्मला जी से मिलने का इन्तजार है.

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  2. शिर्डी और शिगणापुर यात्रा का बडा रोचक विवरण दिया आपने. बहुत आभार.

    रामराम.

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  3. बहुत बडिया चल रहा है सफरनाम और उसके साथ साथ बाकी जानकारी भी रोचक लगने से जाने की देखने की रोचकता बढती ही जा रही है। आगे का इन्तजार रहेगा--- आशीर्वाद

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  4. हाँ कुलवन्त मेरी पंजाबी वाली समस्या हल नही हुयी। कुछ करो उसका।

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