वॉट्स विक्की डॉनर रिटर्न
मोबाइल के इनबॉक्स में नॉन वेज चुटकले। सिनेमा हॉल पर दो अर्थे शब्द हमको हंसाने लगे हैं। कॉलेज में पढ़ने वाले युवक युवतियों को विक्की डॉनर पसंद आ रहा है। उनको द डर्टी पिक्चर की स्लिक भी अच्छी लगती है। उनको दिल्ली बेली की गालियों में भी मजा आता है। वैसा ही मजा, जैसा धड़ा सट्टा लगाने वालों को बाबे की गालियों से, जिससे वह नम्बर बनाते हैं, और पैसा दांव पर लगाते हैं।
सिनेमा अपने सौ साल पूरे कर रहा है। पॉर्न स्टार अब अभिनेत्री बनकर सामने आ रही है। अब अभिनेत्री को अंगप्रदर्शन से प्रहेज नहीं, क्यूंकि अभिनय तो बचा ही नहीं। दर्शकों को सीट पर बांधे रखने के लिए दो अर्थे शब्द ढूंढने पड़ रहे हैं। भले ही हम एसीडिटी से ग्रस्त हैं, मगर मसालेदार सब्जी के बिना खाना अधूरा लगता है। बाप बेटा दो अर्थे संवादों पर एक ही हाल में एक साथ बैठकर ठहाके लग रहे हैं। बाप बेटी ''जिस्म टू'' मिलकर नई पीढ़ी के लिए सेक्स मसाला परोस रहे हैं। ठरकी शब्द गीतों में बजने लगा है और हम इसकी धुन पर झूमने लगे हैं।
बस हमारी प्रॉब्लम यह है कि हमको खुलकर कुछ भी नहीं करना। हमको ऊपर से विद्रोह करना है। एक तरफ हम ''द डर्टी पिक्चर'' को राष्ट्रीय पुरस्कार से नवाजते हैं और वहीं दूसरी तरफ टीवी पर प्रसारित होने से रोकते हैं। हमें सिनेमा हॉल में बेपर्दा होती हीरोइनें अच्छी लगती हैं, मगर पत्नी के सिर से सरका पल्लू भी संस्कृति का उल्लंघन नजर आता है। जब सेक्स एजुकेशन की बात आती है तो पूरा देश संस्कृति का हवाला देते हुए इसका विरोध करता है। हम को आधी अधूरी, लूका छिपी पसंद है। पिछले कुछ सालों से रुपहले पर्दे पर सेक्स परोसा जा रहा है, कभी हवा के नाम पर, कभी हेट स्टोरी के नाम पर। कभी ''द डर्टी पिक्चर'' के नाम पर, कभी विक्की डॉनर के नाम पर। उस पर हम को एतराज नहीं।
जबकि इस पर एतराज होना चाहिए। हम मनोरंजन के नाम पर युवा पीढ़ी को गलत दिशा की ओर बढ़ने के लिए प्रोत्साहन दे रहे हैं। मुझे याद है, जब दिल्ली बेली रिलीज हुई थी, तो आपकी अदालत में आमिर खान से रजत शर्मा ने सफाई मांगी थी। आमिर के शब्द थे, आज जो लोग देखते हैं, वो हमको परोसना पड़ता है। तो कुछ लड़कियों ने आमिर की स्पोट करते हुए कहा था, इससे लड़कियों को भी गालियां सीखने का मौका मिलेगा, ताकि हम भी लड़कों को उनकी भाषा में जवाब दे सकें। हम गांव की चौपाल से निकल कर शहर की तरफ आए थे। इस उम्मीद से कि हम अपनी बोली को बदलेंगे, एक नए समाज का सर्जन करेंगे, जहां गाली गालोच नहीं होगा। एक सभ्य भाषा होगी। मगर आज हम उनकी गालियों पसंद कर रहे हैं। दो अर्थे शब्दों को अहमियत दे रहे हैं।
डॉक्टर चढ्ढा की गालियां, सास बहू का शराब पीना, युवक स्पर्म दान करना, शादी का टूटना जुड़ना, स्पर्म डॉनर का बच्चे को गोद लेना। यह है विक्की डॉनर। जो बातें कहने की थी, वह तो मसाला डालने के चक्कर में कहीं दबकर मर गई। यह कोई पहली बार नहीं हुआ। फिल्म जगत में बहुत बार हुआ। मगर अफसोस। हमारी दोहरी सोच कब बदलेगी। हम कब देखें कि एक ही चश्मे से। विक्की डॉनर के किरदारों की तरह लापरवाह मत बनिए।
सिनेमा अपने सौ साल पूरे कर रहा है। पॉर्न स्टार अब अभिनेत्री बनकर सामने आ रही है। अब अभिनेत्री को अंगप्रदर्शन से प्रहेज नहीं, क्यूंकि अभिनय तो बचा ही नहीं। दर्शकों को सीट पर बांधे रखने के लिए दो अर्थे शब्द ढूंढने पड़ रहे हैं। भले ही हम एसीडिटी से ग्रस्त हैं, मगर मसालेदार सब्जी के बिना खाना अधूरा लगता है। बाप बेटा दो अर्थे संवादों पर एक ही हाल में एक साथ बैठकर ठहाके लग रहे हैं। बाप बेटी ''जिस्म टू'' मिलकर नई पीढ़ी के लिए सेक्स मसाला परोस रहे हैं। ठरकी शब्द गीतों में बजने लगा है और हम इसकी धुन पर झूमने लगे हैं।
बस हमारी प्रॉब्लम यह है कि हमको खुलकर कुछ भी नहीं करना। हमको ऊपर से विद्रोह करना है। एक तरफ हम ''द डर्टी पिक्चर'' को राष्ट्रीय पुरस्कार से नवाजते हैं और वहीं दूसरी तरफ टीवी पर प्रसारित होने से रोकते हैं। हमें सिनेमा हॉल में बेपर्दा होती हीरोइनें अच्छी लगती हैं, मगर पत्नी के सिर से सरका पल्लू भी संस्कृति का उल्लंघन नजर आता है। जब सेक्स एजुकेशन की बात आती है तो पूरा देश संस्कृति का हवाला देते हुए इसका विरोध करता है। हम को आधी अधूरी, लूका छिपी पसंद है। पिछले कुछ सालों से रुपहले पर्दे पर सेक्स परोसा जा रहा है, कभी हवा के नाम पर, कभी हेट स्टोरी के नाम पर। कभी ''द डर्टी पिक्चर'' के नाम पर, कभी विक्की डॉनर के नाम पर। उस पर हम को एतराज नहीं।
जबकि इस पर एतराज होना चाहिए। हम मनोरंजन के नाम पर युवा पीढ़ी को गलत दिशा की ओर बढ़ने के लिए प्रोत्साहन दे रहे हैं। मुझे याद है, जब दिल्ली बेली रिलीज हुई थी, तो आपकी अदालत में आमिर खान से रजत शर्मा ने सफाई मांगी थी। आमिर के शब्द थे, आज जो लोग देखते हैं, वो हमको परोसना पड़ता है। तो कुछ लड़कियों ने आमिर की स्पोट करते हुए कहा था, इससे लड़कियों को भी गालियां सीखने का मौका मिलेगा, ताकि हम भी लड़कों को उनकी भाषा में जवाब दे सकें। हम गांव की चौपाल से निकल कर शहर की तरफ आए थे। इस उम्मीद से कि हम अपनी बोली को बदलेंगे, एक नए समाज का सर्जन करेंगे, जहां गाली गालोच नहीं होगा। एक सभ्य भाषा होगी। मगर आज हम उनकी गालियों पसंद कर रहे हैं। दो अर्थे शब्दों को अहमियत दे रहे हैं।
डॉक्टर चढ्ढा की गालियां, सास बहू का शराब पीना, युवक स्पर्म दान करना, शादी का टूटना जुड़ना, स्पर्म डॉनर का बच्चे को गोद लेना। यह है विक्की डॉनर। जो बातें कहने की थी, वह तो मसाला डालने के चक्कर में कहीं दबकर मर गई। यह कोई पहली बार नहीं हुआ। फिल्म जगत में बहुत बार हुआ। मगर अफसोस। हमारी दोहरी सोच कब बदलेगी। हम कब देखें कि एक ही चश्मे से। विक्की डॉनर के किरदारों की तरह लापरवाह मत बनिए।
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