लफ्जों की धूल - 2

लफ्जों की धूल - 1
 (1)
उसके तो करार भी दमदार निकले,
हम ही कमजोर दिले यार निकले

उसके काँटे भी फूल
और हमारे फूल भी ख़ार निकले

ख़ार-काँटे

(2)
उतर जाती है सुबह तलक
जो रोज पीते हैं वो, महफिल सजाकर
अब तलक नशे में हूँ
एक दफा पिलाई थी फकीर ने बैठाकर

(3)
लिपस्टिक नहीं, लबों पर मुस्कराहट अच्छी लगती है
जैसे पौष की ठंडी रातों में गरमाहट अच्छी लगती है

(4)
इश्क भी क्या चीज, खुद की हस्ती मिटा देता है
महबूब की गली को मक्का मदीना बना देता है

(5)
अल्प ज्ञान मेरा है,
तभी तो यार को परवरदिगार बनाता हूँ
और खुदा को अपना दिलदार बनाता हूँ

(6)
जमी थी महफिल, बातों से बात निकली
मेरे दर्द की लम्बी सी काली रात निकली
खुशी डाल डाल, गमी पात पात निकली
अश्क बहे, जब यादों की बारात निकली
आभार
कुलवंत हैप्पी

टिप्पणियाँ

  1. कुलवंत जी,बहुत सुन्दर मुक्त पंक्तियां है। एक से बढ़ कर एक!!

    उतर जाती है सुबह तलक
    जो रोज पीते हैं वो, महफिल सजाकर
    अब तलक नशे में हूँ
    एक दफा पिलाई थी फकीर ने बैठाकर

    जवाब देंहटाएं
  2. अल्प ज्ञान मेरा है,
    तभी तो यार को परवरदिगार बनाता हूँ
    और खुदा को अपना दिलदार बनाता हूँ
    ... Bahut khoob.....
    Achhi lagi rachna...

    जवाब देंहटाएं

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