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क्यों मेरा रविवार नहीं आता

तुम थक कर हर शाम लौटते हो काम से, आैर मैं खड़ी मिलती हूं हाथ में पानी का गिलास लिए हफ्ते के छः दिन फिर आता है तुम्हारा बच्चों का रविवार, तुम्हारी, बच्चों की फरमाइशों का अंबार मुझे करना इंकार नहीं आता क्यों मेरा रविवार नहीं आता मैं जानती हूं तुमको भी खानी पड़ती होगी कभी कभार बाॅस की डांट फटकार, मैं भी सुनती हूं पूरे परिवार की डांट सिर्फ तुम्हारे लिए, ताकि शाम ढले तुमको मेरी फरियाद न सुननी पड़े काम करते हुए टूट जाती हूं बिख़र जाती हूं घर संभालते संभालते चुप रहती हूं, दर्द बाहर नहीं आता क्यों मेरा रविवार नहीं आता तुम को भी कुछ कहती हूं, तो लगता है तुम्हें बोलती हूं तुम भी नहीं सुनते मेरी दीवारों से दर्द बोलती हूं मगर, रूह को करार नहीं आता क्यों मेरा रविवार नहीं आता

जरूरी तो नहीं

जरूरी तो नहीं तेरे लबों पर लब रखूं तो चुम्बन हो जरूरी तो नहीं मेरी उंगलियां बदन छूएं तो कम्पन हो जरूरी तो नहीं तुझे अपनी बांहों में भरूं तो शांत धड़कन हो एेसा भी तो हो सकता है मेरे ख्यालों से भी तुम्हें चुम्बन हो मेरे ख्यालों से भी तुम्हें कम्पन हो मेरे ख्यालों से भी शांत धड़कन हो

तुम पूछते हो तो बताता हूं, मेरे किस काम आती हैं किताबें

तुम पूछते हो तो बताता हूं, मेरे किस काम आती हैं किताबें जिन्दगी की राहों में जब अंधकार बढ़ने लगता है, जुगनूआें की तरह राहों में रोशनियां बिछाती हैं किताबें दुनिया की भीड़ में जब तन्हा होने लगता हूं मैं तो चुपके से मेरे पास आकर समय बिताती हैं किताबें सिर से इक छत का छाया जब छीनने लगता है, तो खुले आसमां की आेर नजर करवाती हैं किताबें मैं कली से फूल हो जाता हूं पल भर में  भंवरों की तरह जब मेरे आस पास गुनगुनाती हैं किताबें चिंता की कड़कती धूप जब चेतन पर करती है वार बरगद के पेड़ सी अपनी छांव में बुलाती हैं किताबें अक्कड़ जाती हैं जब बांहें किसी आलिंगन को सीने से मेरे बच्चे की तरह लिपट जाती हैं किताबें मेरी जिन्दगी निकल जाए जिसे सीखने में बस कुछ घंटों महीनों में वे सब सिखाती हैं किताबें राॅबिन, कार्नेगी, पोएलो आैर गोर्की तो चंद नाम हैं न जाने आैर कितनी हस्तियों से रूबरू करवाती हैं किताबें  हां, मैं रहता हूं इक छोटे से आशियाने में हैप्पी, मुझे भारत से रशिया फ्रांस तक घुमा लाती हैं किताबें  तुम पूछते हो तो बताता हूं, मेरे किस काम आती हैं किताबें

भाव कृति : उलझन, उम्मीद व खयालात

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उम्मीद शाम ढले परिंदों की वापसी से तेरे आने की उम्मीद जगाती हूं सोच कर मैं फिर एकदम से डर सी, सहम सी जाती हूं कहीं बरसों की तरह, उम्मीद इक उम्मीद बनकर न रह जाए तुम्हारी, बस तुम्हारी उलझन उनकी तो ख़बर नहीं, मैं हर रोज नया महबूब चुनता हूं अजब इश्क की गुफ्तगू वो आंखें कहते हैं, मैं दिल से सुनता हूं हैप्पी मैं भी बड़ा अजीब हूं, पुरानी सुलझती नहीं, और हर रोज एक नई उलझन बुनता हूं ख्यालात लोग मेरे खयाल पूछते हैं, लेकिन क्या कहूं, पल पल तो ख्यालात बदलते हैं सच में मौसम की तरह, न जाने दिन में कितनी बार मेरे हालात बदलते हैं लोग सोचते हैं रिहा हुए मुझे लगता है, हैप्पी लोग सिर्फ हवालात बदलते हैं

अब तुम ही कहो

सरकार पुरानी है उसकी वो ही कहानी है ऑफिस में वजीर, तो जनपथ रहती रानी है वो चुपके से बयान देते हैं लोग कहां ध्‍यान देते हैं चंद पैसों के बदले में गिरवी रख हिन्‍दुस्‍तान देते हैं नहीं कृष्‍ण कोई यहां, तभी तो आबरू ए द्रोपदी सड़कों पर तार तार होती है कोई सरेआम उतारे कपड़े तो कोई कपड़े ओढ़ने को किसी कोने में बैठी रोती है शुक्र ए खुदा कि एक सोई 'दामिनी' तो जागे कई हजार वरना फाइलों में दबी रहती है कई दामिनियों की पुकार अब तुम ही कहो कैसे कहूं हैप्‍पी न्‍यू ईयर मेरे यार।

मौत को अपने साथ लिए चलता हूं मैं

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मौत को अपने साथ लिए चलता हूं मैं गैरों से नहीं अपनों से ही डरता हूं मैं शिकारी बैठे हैं ताक में यहां यही सोच के बहुत ऊँचा उड़ता हूं मैं मुझे है अपनी मंजिल की तलाश उसे ही हर पल ढूंडता हूं मैं वक़्त की परवाह नहीं है मुझको वक़्त से भी तेज़ दौड़ता हूं मैं रास्ता बहुत ही कठिन है मेरा यही सोच सब कुछ करता हूं मैं उम्मीद का दामन थामा है मैंने उम्मीद से ही उम्मीद करता हूं मैं मौत को अपने साथ लिए चलता हूं मैं गैरों से नहीं अपनों से ही डरता हूं मैं अमित राजवंत के फेसबुक खाते के सौजन्‍य से

किस तरह हंसते हो

शाबाद अहमद की कलम से किस तरह हंसते हो तुम लोग बता दो यारो मुझको भी हंसने की तरकीब सुझा दो यारो मैं तो जब भी हंसता हूं, तो रूखसार फड़क जाते हैं जिनसे मेरे गेंसु गिले हुए जाते हैं हौंसले जिनसे मेरे ढीले हुए जाते हैं मेरी मुश्‍किल का कोई तो हल बता दो यारो मुझको भी हंसने की तरकीब सुझा दो यारो किस तरह हंसते हो तुम लोग बता दो यारो आज गमगीन हूं, किस्‍मत ने बहुत मारा है और मजलूम को आहों ने भी ललकारा है किस तरह कटेगी जिन्‍दगी, यही गम सारा है गम के म्‍यूजियम में मुझ को सजा दो यारो आज शादाब को गीत गमगीन सुना दो यारो मुझको भी हंसने की तरकीब सुझा दो यारो किस तरह हंसते हो तुम लोग बता दो यारो

मजबूर हूं, वरना मैं देश बदल देता।

माता पिता के ख्‍वाबों का जिम्‍मा है मेरे महबूब के गुलाबों का जिम्‍मा है मजबूर हूं, वरना मैं देश बदल देता। जॉब से छुट्टी नहीं मिलती विद पे ऐसे उलझे भैया क्‍या नाइट क्‍या डे मजबूर हूं, वरना मैं देश बदल देता। भगत सिंह की है जरूरत बेहोशी को मगर यह सपूत देना मेरे पड़ोसी को मजबूर हूं, वरना मैं देश बदल देता। क्रांति आएगी, लिखता हूं यह सोचकर वो भी भूल जाते हैं एक दफा पढ़कर मजबूर हूं, वरना मैं देश बदल देता। अन्‍ना हो रामदेव हो लताड़े जाएंगे मैडलों के लिए बेगुनाह मारे जाएंगे मजबूर हूं, वरना मैं देश बदल देता।

क्‍या मैं अपने प्रति ईमानदार हूं?

'जॉन सी मैक्‍सवेल' की किताब 'डेवल्‍पिंग द लीडर विदिन यू' के हिन्‍दी संस्‍करण 'अपने भीतर छुपे लीडर को कैसे जगाएं' में प्रकाशित एडगर गेस्‍ट की कविता 'क्‍या मैं अपने प्रति ईमानदार हूं?' बहुत कुछ कहती है, मेरे हिसाब से अगर इस कविता का अनुसरण किया जाए तो जीवन स्‍वर्ग से कम तो नहीं होगा, और अंतिम समय जीवन छोड़ते वक्‍त किसी बात का अफसोस भी नहीं होगा, जबकि ज्‍यादातर लोग अंतिम सांस अफसोस के साथ लेते हुए दुनिया को अलविदा कहते हैं। क्‍या मैं अपने प्रति ईमानदार हूं ? मुझे अपने साथ रहना है, और इसलिए मैं इस लायक बनना चाहता हूं कि खुद को जानूं गुजरते वक्‍त के साथ मैं चाहता हूं हमेशा अपनी आंखों में आंखें डालकर देखना मैं नहीं चाहता डूबते सूरज के साथ खड़े रहना और अपने किए कामों के लिए खुद से नफरत करना मैं अपनी अलमारी में रखना नहीं चाहता अपने बारे में बहुत से रहस्‍य और आते जाते यह सोचने की मूर्खता नहीं करना चाहता कि मैं सचमुच किस तरह का आदमी हूं मैं छल की पोशाक नहीं पहनना चाहता मैं सिर उठाकर बाहर जाना चाहता हूं परंतु दौलत और शोहरत के इस संघर्ष में मैं चा

शहीदों की अर्थी पर शब्दों की वर्षा शुरू हुई

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युवा कवि नितिन फलटणकर हम भूल गए सारे जख्म और फिर से चर्चा शुरू हुई। शहीदों की अर्थी पर शब्दों की वर्षा शुरू हुई। हम भूल गए माँ के आँसू हम भूल गए बहनों की किलकारी। बस समझौते के नाम पर फिर से चर्चा शुरू हुई। शहीदों की अर्थी पर शब्दों की वर्षा शुरू हुई। वो आग उगलते रहते हैं हम आँसू बहाते रहते हैं। बहते आँसू की स्याही से इतिहास रचने की चर्चा शुरू हुई शहीदों की अर्थी पर शब्दों की वर्षा शुरू हुई। वो घात लगाए बैठे हैं। हम आघात सहते रहते हैं। आघातों की लिस्ट बनाने नेताओं की चर्चा शुरू हुई। शहीदों की अर्थी पर शब्दों की वर्षा शुरू हुई। पूछो इन नेताओं को, कोई अपना इन्होंने खोया है? बेटे के खून से माताओं ने यहाँ बहुओं का सिंदूर धोया है। इस सिंदूर के लाली की चर्चा फिर से शुरू हुई। शहीदों की अर्थी पर शब्दों की वर्षा शुरू हुई। शब्द बाण कब बनेंगे। जख्म हमारे कब भरेंगे? नए जख्म सहने की चर्चा यहाँ शुरू हुई, शहीदों की अर्थी पर शब्दों की वर्षा शुरू हुई।

किसान एवं टुकड़े दो रचनाएं

किसान फटे पुराने मटमैले से कपड़े टूटे जूते मटमैले से जख्मी पैर कंधे पर रखा परना ढही सी पगड़ी अकेले ही खुद से बातें करता जा रहा है शायद मेरे देश का कोई किसान होगा। परना- डेढ़ मीटर लम्बा कपड़ा टुकड़े बचपन में जब एक रोटी थी, तो माँ ने दो टुकड़े कर दिए, एक मेरा, और एक भाई का लेकिन जब हम जवान हुए, तो हमने घर के दो टुकड़े कर दिए एक पिता का, और एक माई का। नोट :- उत्सव परिकल्पना 2010 में पूर्व प्रकाशित रचनाएं।

वरना, रहने दे लिखने को

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रचनाकार : कुलवंत हैप्पी तुम्हें बिकना है, यहाँ टिकना है, तो दर्द से दिल लगा ले दर्द की ज्योत जगा ले लिख डाल दुनिया का दर्द, बढ़ा चढ़ाकर रख दे हर हँसती आँख रुलाकर हर तमाशबीन, दर्द देखने को उतावला है बात खुशी की करता तू, तू तो बावला है मुकेश, शिव, राजकपूर हैं देन दर्द की दर्द है दवा असफलता जैसे मर्ज की साहित्य भरा दर्द से, यहाँ मकबूल है बाकी सब तो बस धूल ही धूल है, संवेदना के समुद्र में डूबना होगा, गम का माथा तुम्हें चूमना होगा, बिकेगा तू भी गली बाजार दर्द है सफलता का हथियार सच कह रहा हूँ हैप्पी यार माँ की आँख से आँसू टपका, शब्दों में बेबस का दर्द दिखा रक्तरंजित कोई मंजर दिखा खून से सना खंजर दिखा दफन है तो उखाड़, आज कोई पंजर दिखा प्रेयसी का बिरह दिखा, होती घरों में पति पत्नि की जिरह दिखा हँसी का मोल सिर्फ दो आने, दर्द के लिए मिलेंगे बारह आने फिर क्यूं करे बहाने, लिखना है तो लिख दर्द जमाने का वरना, रहने दे लिखने को

लफ्जों की धूल-6

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लेखक कुलवंत हैप्पी (1) जिन्दगी सफर है दोस्तो, रेस नहीं, रिश्ता मुश्किल टिके, अगर बेस नहीं, वो दिल ही क्या हैप्पी जहाँ ग्रेस नहीं, (2) कभी नहीं किया नाराज जमाने को, फिर भी मुझसे एतराज जमाने को, जब भी भटकेगा रास्ते से हैप्पी, मैं ही दूँगा आवाज जमाने को (3) क्या रिश्ता है उस और मुझ में जो दूर से रूठकर दिखाता है मेरे चेहरे पर हँसी लाने के लिए वो बेवजह भी मुस्कराता है चेहरे तो और भी हैं हैप्पी, मगर ध्यान उसी पर क्यों जाता है (4) कभी कभी श्रृंगार, कभी कभी सादगी भी अच्छी है कभी मान देना, तो कभी नजरंदाजगी भी अच्छी है जैसे हर रिश्ते में थोड़ी थोड़ी नाराजगी भी अच्छी है (5) जरूरी नहीं कि मेरे हर ख़त का जवाब आए वो किताब ले जाए, और उसमें गुलाब आए बस तमन्ना इतनी सी है हैप्पी रुखस्त हूँ जब मैं, उस आँख में आब आए *आब-पानी (6) हाथ मिलाते हैं हैप्पी रुतबा देखकर, दिल मिलाने की रिवायत नहीं तेरे शहर में इसलिए खुदा की इनायत नहीं तेरे शहर में *रिवायत-रिवाज

लफ्जों की धूल-5

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(1) कुलवंत हैप्पी अगर हिन्दु हो तो कृष्ण राम की कसम मुस्लिम हो तो मोहम्मद कुरान की कसम घरों को लौट आओ, हर सवाल का जवाब आएगा हैप्पी हथियारों से नहीं, विचारों से इंकलाब आएगा (2) नजरें चुराते हैं यहाँ से, वहीं क्यों टकराव होता है चोट अक्सर वहीं लगती है हैप्पी यहाँ घाव होता है। (3) तू तू मैं मैं की लड़ाई कब तक दो दिलों में ये जुदाई कब तक खुशी को गले लगा हैप्पी पल्लू में रखेगा तन्हाई कब तक (4) जैसे साहिर के बाद हर अमृता, एक इमरोज ढूँढती है वैसे ही मौत हैप्पी का पता हर रोज ढूँढती है

लफ्जों की धूल-4

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(1) जिन्दगी का जब, कर हिसाब किताब देखा लड़ाई झगड़े के बिन, ना कुछ जनाब देखा

लफ्जों की धूल-3

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(1) दिमाग बनिया, बाजार ढूँढता है दिल आशिक, प्यार ढूँढता है

अलविदा ब्लॉगिंग...हैप्पी ब्लॉगिंग

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कई महीने पहले बुरा भला के शिवम मिश्रा जी  चुपके से कहीं छुपकर बैठ गए, फिर हरकीरत हीर ने अचानक जाने की बात कही, किंतु वो लौट आई। किसी कारणवश मिथिलेश दुबे भी ब्लॉग जगत से भाग खड़े हुए थे, लौटे तो ऐसे लौटे कि न लौटे के बराबर हुए पड़े हैं।

लफ्जों की धूल

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(1) भले ही, तुम लहरों सी करो दीवानगी, लेकिन मैं अक्सर तेरा, किनारों की तरह इंतजार करूँगा।

मुस्कराते क्यों नहीं

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Photo by Google Search & Editing by me श्रीगणेश से करते हैं शुरू जब हर काम तो माँ-बाप को दुनिया बनाते क्यों नहीं। बुरी बातों को लेकर बहस करने वालों फिर अच्छी बातें को फैलाते क्यों नहीं। मन में बातों का अंबार, हाथ में मोबाइल तो मित्र का नम्बर मिलाते क्यों नहीं। कॉलेज के दिनों में देखी कई फिल्में फिर अब दम्पति घूमने जाते क्यों नहीं। माँ बाप, बहन भाई, दोस्त मित्र सब हैं, तो खुदा का शुक्र मनाते क्यों नहीं। अच्छी है, काबिलेतारीफ है कहने वालों फिर खुलकर ताली बजाते क्यों नहीं। फेसबुक, ऑर्कुट को देखता हूँ तो सोचता हूँ लोग मकान बनाने के बाद आते क्यों नहीं कोई रोज आता है आपके इनबॉक्स में तो आप उसके यहाँ जाते क्यों नहीं। हैप्पी लिखता है शेयर, बनता है लतीफा, इस बात पर मुस्कराते क्यों नहीं। 1. दम्पति-मियाँ बीवी 2.उसके यहाँ-इनबॉक्स आभार

तेरे इंतजार में

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नागदा के रेलवे स्टेशन का  एक दृश्य /फोटो: कुलवंत हैप्पी आँखें बूढ़ी हो गई, तेरे इंतजार में और पैर भी जवाब दे चुके हैं फिर भी दौड़ पड़ती हूँ डाकिए की आवाज सुनकर शायद कोई चिट्ठी हो मेरे नाम की जिसे लिखा तुमने हो हर दफा निराश होकर लौटती हूँ दरवाजे से रेल गाड़ी की कूक सुनते दौड़ पड़ती हूँ रेलवे स्टेशन की ओर शायद अतिथि बनकर तुम पधारो, और मैं तेरा स्वागत करूँ तुम उजड़ी का भाग सँवारो वहाँ भी मिलती है तन्हाई बस स्टेंड पर तो हर रोज आती हैं बसें ही बसें पर वो बस नहीं आती जिस पर से तुम उतरो सुना है मैंने एअरपोर्ट पर उतरते हैं हररोज कई हवाई जहाज पर तुम्हारा जहाज उड़ता क्यों नहीं उतरने के लिए वक्त की कैंची को, क्यों मैं ही मिली हूँ कुतरने के लिए तुम्हें याद है जवानी की शिख़र दोहपर थी हाथों पर मंहेदी का रंग और बाँहों में लाल चूड़ा था कुछ महीने ही हुए थे दुल्हन बने तेरे घर का श्रृंगार बने जब तुम, कागजों के ढेर जुटाने निकल गए थे दूर सफर पर तब से अब तक इंतजार ही किया है और करती रहूँगी, अंतिम साँस तक बच्चू दे पापा, तेरी लाजो... आभार