मौत को अपने साथ लिए चलता हूं मैं
मौत को अपने साथ लिए चलता हूं मैं
गैरों से नहीं अपनों से ही डरता हूं मैं
शिकारी बैठे हैं ताक में यहां
यही सोच के बहुत ऊँचा उड़ता हूं मैं
मुझे है अपनी मंजिल की तलाश
उसे ही हर पल ढूंडता हूं मैं
वक़्त की परवाह नहीं है मुझको
वक़्त से भी तेज़ दौड़ता हूं मैं
रास्ता बहुत ही कठिन है मेरा
यही सोच सब कुछ करता हूं मैं
उम्मीद का दामन थामा है मैंने
उम्मीद से ही उम्मीद करता हूं मैं
मौत को अपने साथ लिए चलता हूं मैं
गैरों से नहीं अपनों से ही डरता हूं मैं
गैरों से नहीं अपनों से ही डरता हूं मैं
शिकारी बैठे हैं ताक में यहां
यही सोच के बहुत ऊँचा उड़ता हूं मैं
मुझे है अपनी मंजिल की तलाश
उसे ही हर पल ढूंडता हूं मैं
वक़्त की परवाह नहीं है मुझको
वक़्त से भी तेज़ दौड़ता हूं मैं
रास्ता बहुत ही कठिन है मेरा
यही सोच सब कुछ करता हूं मैं
उम्मीद का दामन थामा है मैंने
उम्मीद से ही उम्मीद करता हूं मैं
मौत को अपने साथ लिए चलता हूं मैं
गैरों से नहीं अपनों से ही डरता हूं मैं
बहुत सुन्दर प्रस्तुति!
जवाब देंहटाएं--
इस प्रविष्टी की चर्चा कल रविवार (29-07-2012) के चर्चा मंच पर भी होगी!
सूचनार्थ!
अपने ही अब पराये से हो गए हैं
जवाब देंहटाएंआज तो ऐसा ही है
जवाब देंहटाएंपहले अपने ही उंगली उठाते है...
बहुत ही बेहतरीन रचना..
डर अच्छा है!!
जवाब देंहटाएंअपने ही डराते है
अच्छा है कि हम
डर डर कर पार
हो ही जाते हैं !!