किसान एवं टुकड़े दो रचनाएं

किसान

फटे पुराने
मटमैले से कपड़े
टूटे जूते
मटमैले से जख्मी पैर
कंधे पर रखा परना
ढही सी पगड़ी
अकेले ही खुद से बातें
करता जा रहा है
शायद
मेरे देश का कोई किसान होगा।

परना- डेढ़ मीटर लम्बा कपड़ा

टुकड़े

बचपन में
जब एक रोटी थी,
तो माँ ने दो टुकड़े कर दिए,
एक मेरा, और एक भाई का
लेकिन जब हम जवान हुए,
तो हमने घर के दो टुकड़े कर दिए
एक पिता का, और एक माई का।




नोट :- उत्सव परिकल्पना 2010 में पूर्व प्रकाशित रचनाएं।

टिप्पणियाँ

  1. दिल को छूने वाली यथार्थवादी कविता .

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  2. दोनों ही रचनाएं इस तरह की हैं कि कितनी ही बार पढो हमेशा एक टीस उठाती हैं..

    जवाब देंहटाएं
  3. इस विषय पर पहली बार कोई कविता पढ़ रहा हूँ..अतिसुन्दर.

    जवाब देंहटाएं
  4. दूसरी कविता दिल को छू गयी.

    जवाब देंहटाएं
  5. Is desh me kisaan aur bunkar,dono shoshit hain..akhbaron me ab unki khabren bhi nahi chhaptin..

    Aur doosri rachna bhi yatharth darshati hai...hamare aham,hame apnon se juda kar dete hain...kam alfaaz aur athaah gahrayi!

    जवाब देंहटाएं
  6. दोनों की दोनों कवितायेँ बेहद उम्दा और मार्मिक है ........आज के दौर का आइना दिखाती रचनाएँ |

    जवाब देंहटाएं
  7. बहुत मर्मस्पर्शी!! दोनों ही!!

    जवाब देंहटाएं

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