देख रहा हूं : काव्य रूप में कुछ चिंतन
खून खराबा होगा लाजमी, आई पागल हाथ तलवार देख रहा हूं। बल्बों की जगमगाहट बहुत मगर मैं दूर तक अंधकार देख रहा हूं। गुनगानों और विज्ञापनों से भरा ख़बर रहित आज अखबार देख रहा हूं। सब कुछ बदला बदला एड मांगते दर दर पत्रकार देख रहा हूं। न्याय के मंदिर में दबती पैसों तले सच की पुकार देख रहा हूं। क्रेडिट कार्डों की आढ़ में चढ़ा सबके सिरों पर उधार देख रहा हूं। उदास बैठा हर दुकारदार, पर मैं भरा भरा सा बाजार देख रहा हूं। क्या होगा मरीजों का मैं डाक्टर को स्वयं बीमार देख रहा हूं। तुम छोड़ो मेरे जैसों की मैं जाते वेश्यालय इज्जतदार देख रहा हूं। यहां बिगड़ा अनुशासन आकाश में पंछियों की कतार देख रहा हूं। कुदरत को रौंदा जिसने कोपेनहेगन में उसकी आज हार देख रहा हूं। जो निकला था सिर उठा आईने के समक्ष खुद शर्मसार देख रहा हूं। कल तक न पूछा जिन्होंने हैप्पी बदला आज उनका व्यवहार देख रहा हूं।