वो बोझ नहीं ढोते, जेब का बोझ हलका करते हैं
जी हां, वो बोझ नहीं ढोते, जेब का बोझ हलका करते हैं। आप सोच रहे होंगे मैं किन की बात कर रहा है, तो सुनिए भारतीय रेलवे स्टेशन पर लाल कोट में कुछ लोग घूमते हैं, जो यात्रियों के सामान को इधर से उधर पहुंचाने का काम करते हैं, जिनको हम कुली कहकर पुकारते हैं, मगर सुरत के रेलवे स्टेशन पर लाल कोट पहनकर घूमने वाले कुली लोगों का बोझ ढोने की बजाय उनकी जेबों को हलका करने में ज्यादा दिलचस्पी लेते हैं।
हम को सूरत से इटारसी तक जाने के लिए तपती गंगा पकड़नी थी, जिसके लिए हम रेलगाड़ी आने से कुछ समय पहले रेलवे स्टेशन पहुंचे, जैसे ही हम प्लेटफार्म तक जाने सीढ़ियों के रास्ते ऊपर पहुंचे, वैसे ही लाल कोट वाले भाई साहेब हमारे पास आए और बोले चलत टिकट है, पहले तो समझ नहीं आया, लेकिन उसने जब दूसरी बार बात दोहराई तो हम बोले नहीं भाई रिजर्वेशन है, लेकिन वेटिंग, क्या बात है साहेब बनारस तक कंफर्म करवा देते हैं, इतने में मेरे साथ खड़े ईश्वर सिंह ने कहा, नहीं भई जब जाना तो इटारसी तक है, बनारस का टिकट क्या करेंगे, हम उसको वहीं छोड़ आगे बढ़ गए, इतने में हमारी निगाह वहां लगी लम्बी लाइन पर पड़ी, जहां पर कुछ यात्री लाइन में लगे हुए थे, जो जनरल डिब्बे बैठने के लिए कतार में खड़े थे, हैरानी की हद तो तब हुई जब जनरल डिब्बे में बैठने के लिए भी आपको दो से पांच सौ रुपए उन लाल कमीज वाले लुटेरों को देने पड़ रहे थे।
इतने में हमारी निगाह पैसे ले रहे व्यक्ित पर पड़ी तो हम ने उसको पास बुलाने की कोशिश की तो वह गुन गुन करते हुए वहां से भाग निकला, इतने में वहां कुछ और कुली आ गए, जैसे प्लेटफार्म उनके बाप का हो, हम से कहने लगे आपकी टिकट किसी कोच की है, हमने उनसे पूछा आपको लोगों की जेब काटने का अधिकार किस ने दिया, जब उनको पता चला कि यह व्यक्ित मीडिया से जुडे़ हुए हैं तो चाय पानी का ऑफर करने लगे।
इतने मैं मेरे मुंह से निकल गया, अगर चाय पानी के भूखे होते तो दोस्त आज भी किसी छोटे बड़े अखबार में काम कर चाय पानी बना रहे होते, लेकिन वो बनाना नहीं आता इस लिए मीडिया को हम रास नहीं आते।
उनका यह कार्य एक दिन का नहीं, बल्कि प्रति दिन का है, लेकिन सूरत का मीडिया आखिर कहां सो रहा है समझ से परे है, कहीं चाय पानी पर तो नहीं टिक गया।
हम को सूरत से इटारसी तक जाने के लिए तपती गंगा पकड़नी थी, जिसके लिए हम रेलगाड़ी आने से कुछ समय पहले रेलवे स्टेशन पहुंचे, जैसे ही हम प्लेटफार्म तक जाने सीढ़ियों के रास्ते ऊपर पहुंचे, वैसे ही लाल कोट वाले भाई साहेब हमारे पास आए और बोले चलत टिकट है, पहले तो समझ नहीं आया, लेकिन उसने जब दूसरी बार बात दोहराई तो हम बोले नहीं भाई रिजर्वेशन है, लेकिन वेटिंग, क्या बात है साहेब बनारस तक कंफर्म करवा देते हैं, इतने में मेरे साथ खड़े ईश्वर सिंह ने कहा, नहीं भई जब जाना तो इटारसी तक है, बनारस का टिकट क्या करेंगे, हम उसको वहीं छोड़ आगे बढ़ गए, इतने में हमारी निगाह वहां लगी लम्बी लाइन पर पड़ी, जहां पर कुछ यात्री लाइन में लगे हुए थे, जो जनरल डिब्बे बैठने के लिए कतार में खड़े थे, हैरानी की हद तो तब हुई जब जनरल डिब्बे में बैठने के लिए भी आपको दो से पांच सौ रुपए उन लाल कमीज वाले लुटेरों को देने पड़ रहे थे।
इतने में हमारी निगाह पैसे ले रहे व्यक्ित पर पड़ी तो हम ने उसको पास बुलाने की कोशिश की तो वह गुन गुन करते हुए वहां से भाग निकला, इतने में वहां कुछ और कुली आ गए, जैसे प्लेटफार्म उनके बाप का हो, हम से कहने लगे आपकी टिकट किसी कोच की है, हमने उनसे पूछा आपको लोगों की जेब काटने का अधिकार किस ने दिया, जब उनको पता चला कि यह व्यक्ित मीडिया से जुडे़ हुए हैं तो चाय पानी का ऑफर करने लगे।
इतने मैं मेरे मुंह से निकल गया, अगर चाय पानी के भूखे होते तो दोस्त आज भी किसी छोटे बड़े अखबार में काम कर चाय पानी बना रहे होते, लेकिन वो बनाना नहीं आता इस लिए मीडिया को हम रास नहीं आते।
उनका यह कार्य एक दिन का नहीं, बल्कि प्रति दिन का है, लेकिन सूरत का मीडिया आखिर कहां सो रहा है समझ से परे है, कहीं चाय पानी पर तो नहीं टिक गया।
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