नक्सलवाद की जड़ों को गंभीरता से टटोलता है `चक्रव्यूह`
देश के आज जो हालात हैं, उनके अनुसार प्रकाश झा की चक्रव्यूह बिल्कुल सत्य साबित होती है। प्रकाश झा ने सही समय पर एक सही फिल्म का निर्माण किया है। देश के प्रधान मंत्री भी नक्सलवाद को बहुत जटिल समस्या मानते हैं, लेकिन सरकार इस को लेकर कितना गम्भीर है, इसको दिखाने की कोशिश प्रकाश झा करते हुए नजर आए। इस फिल्म का अंत दुखद है, लेकिन सोचनीय है।
ठोस कहानी, शानदार अभिनय और सुलगता मुद्दा प्रकाश झा के सिनेमा की खासियत है और यही बातें ‘चक्रव्यूह’ में भी देखने को मिलती है। दामुल से लेकर मृत्युदण्ड तक के सिनेमा में बतौर निर्देशक प्रकाश झा का अलग अंदाज देखने को मिलता है। इन फिल्मों में आम आदमी के लिए कुछ नहीं था।
गंगाजल से प्रकाश झा ने कहानी कहने का अपना अंदाज बदला। बड़े स्टार लिए, फिल्म में मनोरंजन को अहमियत दी ताकि उनकी बात ज्यादा से ज्यादा दर्शकों तक पहुंच सके। इससे प्रकाश झा की फिल्म को लेकर आम सिने प्रेमी के दिल में उत्सुकता बढ़ी, जो बेहद जरूरी है।
चक्रव्यूह में पुलिस, राजनेता, पूंजीवादी और माओवादी सभी के पक्ष को रखने की कोशिश प्रकाश झा ने की है। फिल्म किसी निर्णय तक नहीं पहुंचती है, लेकिन दर्शकों तक वे ये बात पहुंचाने में सफल रहे हैं कि किस तरह ये लोग अपने हित साधने में लगे हुए हैं एवं इस जदोजहद में एक आम व्यक्ति पिस रहा है।
गंभीर मसले होने के बावजूद भी प्रकाश झा ने ‘चक्रव्यूह’ को डॉक्यूमेंट्री नहीं बनने दिया है। भले ही तकनीकी रूप से फिल्म स्तरीय नहीं हो, लेकिन ड्रामा बेहद मजबूत है। उन्होंने अपने कलाकारों से उम्दा अभिनय करवाने में कोई कसर नहीं छोड़ी।
कबीर के रूप में अभय देओल का अभिनय प्रशंसनीय है। जूही के रूप में अंजलि पाटिल ने आक्रोश को बेहतरीन तरीके से अभिव्यक्त किया है। मनोज बाजपेयी, ओम पुरी, कबीर बेदी, चेतन पंडित, मुरली शर्मा, किरण करमरकर ने अपने-अपने रोल में प्रभाव छोड़ा है।
चक्रव्यूह हमें सोचने पर मजबूर करती है, बताती है कि हमारे देश में एक गृहयुद्ध चल रहा है। हमारे ही लोग आमने-सामने हैं। यदि समय रहते इसका समाधान नहीं हुआ तो स्थिति विकराल हो जाएगी।
अगर अर्जुन रामपाल की जगह प्रकाश झा ने जिम्मी शेरगिल या किसी और अभिनेता को लिया होता तो शायद यह रोल और दमदार हो सकता था। फिल्म में किरदारों की संख्या कम रखनी चाहिए थी।
नक्सलवाद की जड़ों को गंभीरता से टटोलता है `चक्रव्यूह`
ठोस कहानी, शानदार अभिनय और सुलगता मुद्दा प्रकाश झा के सिनेमा की खासियत है और यही बातें ‘चक्रव्यूह’ में भी देखने को मिलती है। दामुल से लेकर मृत्युदण्ड तक के सिनेमा में बतौर निर्देशक प्रकाश झा का अलग अंदाज देखने को मिलता है। इन फिल्मों में आम आदमी के लिए कुछ नहीं था।
गंगाजल से प्रकाश झा ने कहानी कहने का अपना अंदाज बदला। बड़े स्टार लिए, फिल्म में मनोरंजन को अहमियत दी ताकि उनकी बात ज्यादा से ज्यादा दर्शकों तक पहुंच सके। इससे प्रकाश झा की फिल्म को लेकर आम सिने प्रेमी के दिल में उत्सुकता बढ़ी, जो बेहद जरूरी है।
चक्रव्यूह में पुलिस, राजनेता, पूंजीवादी और माओवादी सभी के पक्ष को रखने की कोशिश प्रकाश झा ने की है। फिल्म किसी निर्णय तक नहीं पहुंचती है, लेकिन दर्शकों तक वे ये बात पहुंचाने में सफल रहे हैं कि किस तरह ये लोग अपने हित साधने में लगे हुए हैं एवं इस जदोजहद में एक आम व्यक्ति पिस रहा है।
गंभीर मसले होने के बावजूद भी प्रकाश झा ने ‘चक्रव्यूह’ को डॉक्यूमेंट्री नहीं बनने दिया है। भले ही तकनीकी रूप से फिल्म स्तरीय नहीं हो, लेकिन ड्रामा बेहद मजबूत है। उन्होंने अपने कलाकारों से उम्दा अभिनय करवाने में कोई कसर नहीं छोड़ी।
कबीर के रूप में अभय देओल का अभिनय प्रशंसनीय है। जूही के रूप में अंजलि पाटिल ने आक्रोश को बेहतरीन तरीके से अभिव्यक्त किया है। मनोज बाजपेयी, ओम पुरी, कबीर बेदी, चेतन पंडित, मुरली शर्मा, किरण करमरकर ने अपने-अपने रोल में प्रभाव छोड़ा है।
चक्रव्यूह हमें सोचने पर मजबूर करती है, बताती है कि हमारे देश में एक गृहयुद्ध चल रहा है। हमारे ही लोग आमने-सामने हैं। यदि समय रहते इसका समाधान नहीं हुआ तो स्थिति विकराल हो जाएगी।
अगर अर्जुन रामपाल की जगह प्रकाश झा ने जिम्मी शेरगिल या किसी और अभिनेता को लिया होता तो शायद यह रोल और दमदार हो सकता था। फिल्म में किरदारों की संख्या कम रखनी चाहिए थी।
नक्सलवाद की जड़ों को गंभीरता से टटोलता है `चक्रव्यूह`
अच्छी समीक्षा
जवाब देंहटाएंab to film dekhni padegi
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