“Engलिश ग्रंथि से ग्रसित हिन्‍दी फिल्‍म”

फिल्‍म “इंग्‍लिश-विंग्‍लिश” का नाम सुनते ही ऐसा लगता है, मानों फिल्‍म की कहानी समाज में छाए अंग्रेजी के जादुई छद्म प्रभाव को कुछ हद तक कम करने वाली और इंग्‍लिश नहीं जानने वालों की हीनग्रंथि में आत्‍मविश्‍वास का रस घोलने वाली होगी, लेकिन इस फिल्‍म को देखने के बाद पता चलता है कि यह फिल्‍म इंग्‍लिश नहीं जानने वालों को बडी ही कुशल संवेदना के साथ उनकी औकात दिखा देती है, वहीं चालाकी के साथ अंग्रेजी सीखने के लिए मन में हवा भी भर देती है.

व“इंग्‍लिश-विंग्‍लिश” देखने में बडी ही बढिया, शानदार और मनोरंजन प्रधान पारवारिक फिल्‍म है. इसका स्‍वस्‍थ परिवेश किसी भी दर्शक को बडी कुशलता के साथ अंग्रेजी सीखने के लिए ललचा सकता है, इस बात को ध्‍यान में रखते हुए कि अंग्रेजी नहीं सीखने पर इस बाजारवादी समाज में उसकी हालत, घबराई, डरी, सहमी और सबसे छिपती-फिरती “शशि” की तरह ही हो सकती है. दरअसल, यह फिल्म पूंजीवादी मानसिकता से ग्रसित एक ऐसी फिल्‍म है, जिसमें अंग्रेजी को हमारे परिवेश में रिश्‍तों की अहमियत, आपसी स्‍नेह, सम्‍मान और आत्‍मीयता का नया मानक बनाकर उभारा गया है.

फिल्‍म में “शशि” उर्फ श्रीदेवी जब अपनी बेटी के स्‍कूल में फादर से हिन्‍दी में बात करने की अपील करती है तो उसकी दस साल की बेटी बेहद शर्मिंदा महूसस करती है. मां के इंग्‍लिश नहीं जानने से ग्‍लानी से भरी, झेंपती हुई बेटी स्‍कूल से घर आते-आते तक अपनी मां को इतना नीचा दिखा देती है कि मां अपने ही घर में घबराई, तिरस्‍कृत और अपमानित महसूस करने लगती है. फिल्‍म के कई छोटे-छोटे दृश्‍यों के बीच यह पहला पूर्ण दृश्‍य है जहां दर्शक यह समझ जाता है कि शशि की हालत अंग्रेजी न जानने के चलते उसके ही घर में वैसी है, जो इस समय शहरों-महानगरों में कस्‍बे, गांवों से आकर बसे हिन्‍दी भाषी समाज की हो रही है.

कमाल की बात है कि फिल्‍म में “हिन्‍दी” बोलने वाले दर्शकों की जेब से पैसा निकालकर अपनी आर्थिक गाडी चलाने वाले अंग्रेजी समाज ने “हिन्‍दी-भाषा” को ही “शशि” के प्रतीक रूप में दया का ऐसा पात्र बनाकर छोड दिया है जिसके पास अंग्रेजी सीखने के अलावा कोई विकल्‍प नहीं है. फिल्‍म में कहीं भी मां को उसके बच्‍चों, पति और रिश्‍तेदारों द्वारा यह समझाने की कोशिश नहीं की जाती कि अंग्रेजी भाषा जानना इस बाजारवादी समाज में जीने का आखिरी रास्‍ता नहीं है. हवाई-जहाज के एक दृश्‍य में सदी के महानायक शशि को मिलते भी हैं तो बेफिक्र, बेशर्म होकर अपने पहले अनुभव का मजा लेने की राय देते हैं.

फिर निर्देशक के इशारों पर नाचती फिल्‍म में शुरू होता है शशि के अंग्रेजी सीखने का अभियान, जो यह बताता है कि अब केवल अंग्रेजी जानना ही उसके पास आखिरी विकल्‍प रह गया है, वरना हिन्‍दी के रहते तो घर में उसे उसके बच्‍चों, पति से बार-बार तिरस्‍कार, अपमान, उपेक्षा के घूंट पीने पडेंगे, बिना अंग्रेजी के उसका मानों कोई वजूद ही नहीं है.

मराठी संस्‍कारों में पलने वाली, हिन्‍दी में बात करने वाली शशि अपने बच्‍चों की हिकारत, उपेक्षा से बचने व सम्‍मान पाने के लिए इंग्‍लिश से जूझती है, मन में इंग्‍लिश को विंग्‍लिश कहते हुए कोसती भी है, और एक कॉफी की शॉप में बुरी तरह बेइज्‍जत होने के बाद आखिरकार अंग्रेजी सीखने के लिए क्‍लास जाती है, भाषा से प्रेम के लिए नहीं, बल्‍कि उस डर, अपमान से बचने के लिए जो उसे घर से मिल रहा है. अंग्रेजी का जादू भी फिर इस कदर चढता है कि लड्डु बनाने वाली शशि जब अंग्रेजी क्‍लास में “इंटरप्रोनोयर” शब्‍द सीखती है तो मानों उसके अंदर आत्‍मविश्‍वास की नदियां बहने लगती है, और उसे उसका वही लड्डु बनाने का काम एक कारखाना चलाने जैसा दिखाई देने लगता है. यह सब कुछ ऐसा ही है मानों पता नहीं “हिन्‍दी” समाज उसे लड्डु बनाने के रूप में कौन सा काम करवा रहा था. जाहिर है यह सब अप्रत्‍यक्ष रूप से अंग्रेजी का वही भाषाई मोनापॉली मैसेज है जिसका सामना देश का हिन्‍दी समाज शुरू से करता आ रहा है और अब इस देश का बेरोजगार युवा कर रहा है क्‍योंकि नौकरी देने वाली भाषा और वर्ग दोनों अंग्रेजी का हो चुका है.

पूरी फिल्‍म में इंग्‍लिश से खौफजदा और इस भाषा के तिलस्‍म से रचे गए समाज के तथाकथित विकास से कांपती आवाज में दो-दो हाथ करती “शशि” को उसकी बहन के यहां पति व बच्‍चों द्वारा न्‍यूयॉर्क भेज दिया जाता है, उसके बाद कि फिल्‍म यह सिखाती है कि अकेले विदेश जाने, वहां घूमने, वहां के रेस्‍तरां में कॉफी पीने और वहां के समाज में विचरण करने के लिए आपको अंग्रेजी आनी कितनी जरूरी है. दरअसल यहां “शशि” हिन्‍दी की वह मानसिकता है, जिसके आगे अंग्रेजी इतनी महान समस्‍या की तरह पैदा हो गई है कि गोया उसका आत्‍मसम्‍मान, संवेदनाएं, दुख, परिवार में उसकी पहचान, प्रतिष्‍ठा, बच्‍चों द्वारा मां को मां मानने का परमिट, पति का प्रेम व आकर्षण, यह सब कुछ उसे अब केवल अंग्रेजी से ही मिल सकता है, और जाहिर है पति और बच्‍चे भी तभी ही देंगे जब वह अंग्रेजी सीख जाएगी. बाकी, हिन्‍दी में तो यह सब असभ्‍य, असंस्‍कृत और अशिक्षित समाज का विलाप भर ही है. यही वजह है निर्देशक ने बडी कुशलता से यह सारा खेल ऐसे रच दिया की शशि अंग्रेजी सीखकर, बोलकर ही बदल पाई, और उसके बच्‍चों व पति का उसके प्रति नजरिया भी, बाकी तो हमारे हिन्‍दी समाज में कुछ बचा ही नहीं था, भले ही फिल्‍म हिन्‍दी थी, दर्शक हिन्‍दी थे.
 
बहरहाल, इस फिल्‍म को देखने वालों में कुछ इसे एक फिल्‍म की तरह देखेंगे, दूसरे इंग्‍लिश जानने वाले इसे देखकर खुदको बेहतर महसूस करेंगे, वे अंग्रेजी को इस समय की सबसे महान जरूरत बताएंगे, क्‍योंकि उनके लिए तो फ्रेंच, चीनी, पाकिस्‍तानी, स्‍पैनिश, पारंपरिक दक्षिण-भारतीय सारे लोग शशि के साथ अंग्रेजी सीख रहे हैं. दूसरे बेचारे एक वृहद हिन्‍दी समाज से आएंगे, जिनमें में से एक मैं भी हूं, जो मन में सालों से इंग्‍लिश सीखने वाली ग्रंथि पाले, इसे सीखकर इस समाज में इज्‍जत से जीने का परमिट ढूंढ रहे थे, अब हैं कि नौकरी ढूंढ रहे हैं जो अंग्रेजी समाज ही दे सकता है. ठीक वैसे ही जैसे फिल्‍म की सफलता हिन्‍दी की विशालता में नहीं, बल्‍कि अंग्रेजी सीखने की महान जरूरत में छिपी हुई थी, जिसे इंग्‍लिश-विंग्‍लिश के साथ एसोसिएट हुआ “टाटा-स्‍काई” घर-घर पहुंचाने वाला था.

टिप्पणियाँ

  1. धाँसू समीक्षा।
    सवा अरब से ज्यादा की आबादी में से आधे से ज्यादा तो हिंदी बोलते समझते होंगे ही, फ़िर भी अभी तक हिंदी उपेक्षित है। बाजार इसकी जरूरत समझकर मजबूरी में ही सही, हिंदी को अपनायेगा लेकिन हम हिंदी बोलने में फ़िर भी शर्म ही महसूस करते रहेंगे।

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