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जिन्दादिली

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रोते हुए चेहरे बिकते नहीं दुनिया के बाज़ार में क्योंकि जिन्दादिली जीने का नाम है हो सके तो बचाओ दमन अपना बदनामी की आंच से चूंकि यहां बद से बुरा बदनाम है सोचो मत, मंजिल की तरफ बढ़ो चढ़ते की टांग खींचना तो, यहां लोगों का काम है हर कोई अपने घर में राजा किसी के पास अल्लाह, तो किसी के पास राम है

रक्तरंजित लोकतंत्र मेरे देश का।

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बहुत छेद हैं तन पे, मन पे टुकड़ों में बिखरा कराह रहा है रक्तरंजित लोकतंत्र मेरे देश का। आओ युवाओं तुम्हें बुला रहा है। बे-आबरू हुई औरतों सा बे-लिबास है उदास है अपनी बेबसी पे अश्क बहा रहा है। रक्तरंजित लोकतंत्र मेरे देश का। आओ युवाओं तुम्हें बुला रहा है। देख रहा है रास्ता, कोई आए, ढके मेरे तन को लिए मन में चाह रक्तरंजित लोकतंत्र मेरे देश का। आओ युवाओं तुम्हें बुला रहा है। मत बनो पितामा युवाओ सच देखो, आगे आओ सोया अंदर युवा जगाओ  ऊँची उँची आवाज लगा रहा है रक्तरंजित लोकतंत्र मेरे देश का आओ युवाओं तुम्हें बुला रहा है।

पंजाबी है जुबाँ मेरी, शेयर-ओ-शायरी

पंजाबी है जुबाँ मेरी, शेयर-ओ-शायरी (1) पंजाबी है जुबाँ मेरी, लेकिन हिन्दी भी बोलता हूँ। बनाता हूँ शरबत-ए-काव्य जब ऊर्दू की शक्कर घोलता हूँ॥ (2) मैं वो बीच समुद्र एक तूफाँ ढूँढता हूँ। हूँ जन्मजात पागल तभी इंसाँ ढूँढता हूँ॥ (3) गूँगा, बहरा व अन्धा है कानून मेरे देश का। फिर भी चाहिए इंसाफ देख जुनून मेरे देश का। (4) खिलते हुए गुलाबों से प्यार है तुमको काँटों से भरी जिन्दगी में तुम आकर क्या करोगी। देता नहीं जमाना तुमको आजादी जब फिर इन आँखों में सुनहरे ख्वाब सजा क्या करोगी।

अर्ज है, नए साल की मुबारकवाद

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गैरों को, अपनों को हकीकत व सपनों को, किसानों को, जवानों को गजलों और तरानों को, ग्रंथों को, किताबों को काँटों और गुलाबों को ब्लॉगरों को, पत्रकारों को ब्लॉगों और अख़बारों को जमीं को, आसमान को किश्ती और विमान को परिंदों को, जानवरों को बसते हुए एवं बेघरों को तुझको मुझको सब को आज, कल व अब को दीवाने को, दीवानी को दुनिया के किसी भी कोने में बसते हर हिन्दुस्तानी को मेरी ओर से नया साल मुबारक हो

औरत का दर्द-ए-बयां

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शायद आज की मेरी अभिव्यक्ति से कुछ लोग असहमत होंगे। मेरी उनसे गुजारिश है कि वो अपना असहमत पक्ष रखकर जाएं। मैं उन सबका शुक्रिया अदा करूंगा। मुझे आपकी नकारात्मक टिप्पणी भी अमृत सी लगती है। और उम्मीद करता हूं, आप जो लिखेंगे बिल्कुल ईमानदारी के साथ लिखेंगे। ऐसा नहीं कि आप अपक्ष में होते हुए भी मेरे पक्ष में कुछ कह जाएं ताकि मैं आपके ब्लॉग पर आऊं। बेनती है, जो लिखें ईमानदारी से लिखें। (1) दुख होता है सबको अब जब मर्द के नक्शे कदम*1 चली है औरत क्यों भूलते हो सदियों तक आग-ए-बंदिश में जली है औरत *1 मर्दों की तरह मेहनत मजदूरी, आजादपन, आत्मनिर्भर (2) आज अगर पेट के लिए बनी वेश्या, तुमसे देखी न जाए जबरी बनाते आए सदियों से उसका क्या। बनाने वाले ने की जब न-इंसाफी *1 तो तुमसे उम्मीद कैसी तुम तो सीता होने पर भी देते हो सजा। 1* शील, अनच्छित गर्भ ठहरना (3) निकाल दी ताउम्र हमने गुलाम बशिंदों की तरह चाहती हैं हम भी उड़ना शालीन परिंदों की तरह लेकिन तुम छोड़ दो हमें दबोचना दरिंदों की तरह (4) घर की मुर्गी दाल बराबर तुम्हें तो लगी अक्सर फिर भी तेरे इंतजार में रात भर हूं जगी अक्सर न ब

देख रहा हूं : काव्य रूप में कुछ चिंतन

खून खराबा होगा लाजमी, आई पागल हाथ तलवार देख रहा हूं। बल्बों की जगमगाहट बहुत मगर मैं दूर तक अंधकार देख रहा हूं। गुनगानों और विज्ञापनों से भरा ख़बर रहित आज अखबार देख रहा हूं। सब कुछ बदला बदला एड मांगते दर दर पत्रकार देख रहा हूं। न्याय के मंदिर में दबती पैसों तले सच की पुकार देख रहा हूं। क्रेडिट कार्डों की आढ़ में चढ़ा सबके सिरों पर उधार देख रहा हूं। उदास बैठा हर दुकारदार, पर मैं भरा भरा सा बाजार देख रहा हूं। क्या होगा मरीजों का मैं डाक्टर को स्वयं बीमार देख रहा हूं। तुम छोड़ो मेरे जैसों की मैं जाते वेश्यालय इज्जतदार देख रहा हूं। यहां बिगड़ा अनुशासन आकाश में पंछियों की कतार देख रहा हूं। कुदरत को रौंदा जिसने कोपेनहेगन में उसकी आज हार देख रहा हूं। जो निकला था सिर उठा आईने के समक्ष खुद शर्मसार देख रहा हूं। कल तक न पूछा जिन्होंने हैप्पी बदला आज उनका व्यवहार देख रहा हूं।

बाल दिवस-विशेष कविता

आज के बच्चे कल के नेता स्कूलों की सफेद दीवारों पर नीले अक्षरों में लिखा पढ़ा अक्सर। लेकिन अभिभावकों से सुना अक्सर बनेगा मेरा बेटा बड़ा डॉक्टर, इंजीनियर, या फिर कोई ऑफिसर। किसी ने नहीं जाना क्या चाहते हो तुम, और कौन सी प्रतिभा है तेरे अंदर। कभी टीचर ने, कभी अभिभावकों ने बस नचाया जैसे मदारी नचाए कोई बंदर। हूं तो हिन्दुस्तानी बीच में पढ़ाई छुड़वाती बोली इंग्लिश्तानी क्योंकि हिन्दी नहीं, पास होना है तो इंग्लिश जरूरी इस लिए न चाहते है उसको पढ़ना है अपनी मजबूरी

शब्द लापता हैं

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कुछ लिखना चाहता हूं, पर शब्द लापता हैं आते नहीं जेहन में कुछ इस तरह खफा हैं चुप क्यों हो मां कुछ तो बोलो कहां से लाऊं वो शब्द जो तेरा दर्द बयां करें कहां से लाऊं पापा बोलो ना दर्द निवारक वो शब्द जो तेरी पीड़ा को हरें कहां से लाऊं वो शब्द जो घर में हर तरफ खुशी खुशी कर दें कहां से लाऊं वो शब्द जो भारत मां के जख्मों को इक पल में भर दें कहां से लाऊं वो शब्द ए जान-ए-मन जो तेरे मुझराए चेहरे को खिला दें कहां से लाऊं वो शब्द जो इक पल में हिन्दु-मुस्लिम का फर्क मिटा दें कहां से लाऊं वो शब्द जो मेरे ख्यालों को हर शख्स का ख्याल कर दें कहां से लाऊं वो शब्द जो कुलवंत हैप्पी को सिद्ध 'मां का लाल' कर दें

आखिर ये देश है किसका

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1. दूर है मंजिल, और नाजुक हालात हैं हम भी चल रहें ऐसे ही दिन रात हैं फिर आने का वायदा कर सब चले गए न भगत सिंह आया, न श्रीकृष्ण बस इंतजार में हम रेत बन ढले गए जहर का प्याला लबों तक आने दो और मुझे फिर से सुकरात होने दो झूठ का अंधेरा अगर डाल डाल तो रोशनी बन मुझे पात पात होने दो 2. कैसे हो..घर परिवार कैसा है तुम्हारा यार वो प्यार कैसा है भाई बहन की पढ़ाई कैसी है मां बाप की चिंता तन्हाई कैसी है तुम्हारा ऑफिस में काम कैसा चल रहा है ये जीवन तुम्हारा किस सांचे में ढल रहा है 3. महाभारत में पांडवों की अगुवाई करने वाले कृष्णा का या यौवन में हँस हँसकर फांसी चढ़ने वाले भगत का या फिर लाठी ले निकलने वाले महात्मा गांधी का आखिर ये देश है किसका श्री कृष्णा का लगता नहीं ये देश क्योंकि दुश्मन पर वार करने से कतराता है जैसे देख बिल्ली कबूतर आंखें बंद कर जाता है भगत सिंह का भी ये देश नहीं वो क्रांति का सूर्य था, यहां तो अक्रांति की लम्बी रात है ये देश गांधी का भी नहीं बाबरी हो, या 1984 लाशें ही लाशें बिखरी जमीं पर आती हैं नजर आखिर ये देश है किसका

वो क्या जाने

सोचते हैं दोस्त जिन्दगी में, बड़ा कुछ पा लिया मैंने। वो क्या जाने इस दौड़ में कितना कुछ गंवा लिया मैंने॥ मशीनों में रहकर, आखिर मशीन सा हो गया हूं। मां बाप के होते भी एक यतीम सा हो गया हूं।। बचपन की तरह ये यौवन भी यूं ही बिता लिया मैंने। वो क्या जाने इस दौड़ में कितना कुछ गंवा लिया मैंने॥ खेतों की फसलों से खेलकर अब वो हवा नहीं आती। सूर्य किरण घुसकर कमरे में अब मुझे नहीं जगाती॥ मुर्गे की न-मौजूदगी में सिरहाने अलार्म लगा लिया मैंने वो क्या जाने इस दौड़ में कितना कुछ गंवा लिया मैंने॥ छूट गई यारों की महफिलें, और वो बुजुर्गों की बातें कच्ची राहों पे सायों के साथ चलना, वो चांदनी रातें बंद कमरों में कैद अंधेरों की अब हमराही बना लिया मैंने वो क्या जाने इस दौड़ में कितना कुछ गंवा लिया मैंने॥

काव्य रूप में कुछ सुलगते सवाल

नाक तेरी तरह थी, लेकिन ठोडी थोड़ी सी लम्बी, मेरी तरह..मैं सिनोग्राफी की बात कर रहा था। अगर ऐसा हुआ तो मैं उसको दबा दबा उसका चेहरा गोल कर दूंगी..पत्नी बोली। फिर मैं चुप हो गया। उसको मुझे से दूर रखना, क्योंकि उसका पिता सनकी है, पागल है..कुछ देर के बाद मैं चुप्पी तोड़ते हुए बोला। मैं उसको उसके नाना के घर छोड़ आऊंगी..वहीं पढ़ लिखकर बड़ा आदमी बन जाएगा..पत्नी थोड़े से रौ में आते हुई बोली। ठीक है तुम भी वहीं को जॉब बगैरा कर लेना, तुम बहुत समझदार हो..तुम को अब मेरी जरूरत नहीं। अब देश को मेरी जरूरत है, मैं चला जाऊंगा..अब मैं बोल रहा था। उसने बात काटते हुए कहा..कल क्यों अभी जाओ ना। मैंने कहा कि नहीं उसका चेहरा देखकर जाऊंगा। शायद मेरी ऊर्जा में इजाफा हो जाए। अब बातें खत्म हुई और मैं सो गया...मुझे नहीं पता कि मैं सोया या फिर रात भर जागता रहा। जब सुबह होश आई तो एक तरफ आलर्म बज रहा था और दूसरी तरह मेरे जेहन से कुछ शब्द निकलकर मेरी जुबां पर दौड़ रहे थे। मुझे लग रहा था कि मैं रात भर सोया नहीं और किसी ध्यान में था।..वो शब्द आपकी खिदमत में हाजिर हैं। आंखों में है समुद्र अगर, तो आंसू कोई ढलकता क्यों नहीं। भू

कागज से बना रावण, कब तक जलाते रहोगे

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कागज से बना रावण, कब तक जलाते रहोगे और कितने दिन खुद को मूर्ख बनाते रहोगे अब छोड़ो यूं पुतले बनाकर जलाने हकीकत में रावण को जलाना सिखो रावण सी हैं कई समस्या देश में सब जोश के साथ उसको मिटाना सिखो यूं झूठी जीत का जश्न कब तक मनाते रहोगे कागज से बना रावण, कब तक जलाते रहोगे गरीब की इच्छा, आजादी, उड़न जहां तक नींद अगवा है मैं अकेला कहता नहीं यारों पूरा देश इसका गवाह है झूठी आजादी का स्वांग कब तक रचाते रहोगे कागज से बना रावण, कब तक जलाते रहोगे शहीदों को तो बस फूल मिले मिली कुर्सी स्वार्थियों को बस वोट बैंक बनाकर रख दिया अपनों और शर्णार्थियों को कब तक आंख मूँदे यूं ही बटन दबाते रहोगे कागज से बना रावण, कब तक जलाते रहोगे

जलाल देखा

आज कई दिनों के बाद तेरे चेहरे पे खुशी का जलाल देखा ए बिछोह के सुल्तान फिर तेरे मनांगन को खुशहाल देखा तुम खुश क्या हुए हकीकत में बदलता हुआ ख्याल देखा तेरे चेहरे का नूर देख दुश्मनों के लबों पर आया सवाल देखा लौटी तेरे घर खुशी हैपी ने आँख से कुदरत का कमाल देखा

मन तो वो भी मैला करते थे

कल जब दो बातें एहसास की पर लोकेन्द्र विक्रम सिंह जी द्वारा लिखत काव्य ""कागज के जहाज अक्सर उछाला करतें हैं..."" पढ़ रहा था तो अचानक मेरे मन के आंगन में भाव्यों की कलियां खिलने लगी, जिनकी खुशबू मैं ब्लॉग जगत में बिखेरने जा रहा हूं। धूप सेकने के बहाने, गर हम छत्त पे बैठा करते थे, वो भी जान बुझकर यूं ही आंगन में टहला करते थे। हम ही नहीं जनाब, मन तो वो भी मैला करते थे॥ जब जाने अनजाने में नजरें मिला करती थी। दिल में अहसास की कलियां खिला करती थी।। बातों के लिए और कहां हुआ तब एयरटेला* करते थे। हम ही नहीं जनाब, मन तो वो भी मैला करते थे॥ जुबां काँपती, शरीर थर-थर्राता जब पास आते। कुछ कहने की हिम्मत यारों तब कहां से लाते॥ पहले तो बस ऐसे ही हुआ मंजनू लैला करते थे। हम ही नहीं जनाब, मन तो वो भी मैला करते थे॥ गूंगी थी दोनों तरफ मोहब्बत फल न सकी। मैं उसके और वो मेरे सांचों में ढल न सकी॥ पाक थे रिश्ते अफवाह बन हवा में न फैला करते थे। हम ही नहीं जनाब, मन तो वो भी मैला करते थे॥

वो निकलती थी...

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वो निकला करती थी पेड़ों की छाया में, मैं भी मिला करता था पेड़ों की छाया में, अच्छा लगता था, उसका बल खाकर चलना पेड़ों की छाया में, बुरा लगता था विछड़ना और दिन डलना पेड़ों की छाया में, बहुत अच्छा लगता था, खेतों, खलियानों को चीरते हुए मेरे गांव तलक उसका आना पेड़ों की छाया में, पहली मुलाकात सा लगता था, कड़कती धूप में घर से निकलकर उसके आगोश में जाना पेड़ों की छाया में, याद है मुझे आज भी इस नहर में डुबकी लगाना पेड़ों की छाया में,

हड़ताल - काव्य

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क्यों जी खाली हाथ आ रहे हो, क्या बताउं भाग्यवान जब बस स्टेंड पहुंचा तो पता चला, बस वालों की हड़ताल है। पैदल पैदल बैंक पहुंचा तो पता चला कि बैंक वालों की हड़ताल है। अपने गांव वाले बंते से पकड़े कुछ पैसे उधार मैंने लेकिन जब दुकान पहुंचा तो जाना कि दुकानदारों की हड़ताल है। बस ठोकरें खाकर खाली हाथ लौट आया, चलो, तुम एक कप चाय तो पिला दो। कहां से बनाउं जी, दूध गिरा दिया बच्चों ने, सुबह से चाय की हड़ताल है।

मेरी मौत की खबर

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मैं शिकार हो गया अपनों के ही धोखे का, न करें इंतजार वो अब किसी मौके का, मेरी मौत के चश्मदीदों, एक फजल कर दो मेरे दुश्मनों को मेरी मौत की खबर कर दो रुक गई सांस और शब्दों का कारवां मैं धोखों की आंधी में हो गया फनां मेरी मौत के चश्मदीदों, एक फजल कर दो मेरे दुश्मनों को मेरी मौत की खबर कर दो वक्त की साजिश, हुआ एक बड़ा हादसा पल में रेत हो गया 'हसरतों का बादशाह' मेरी मौत के चश्मदीदों, एक फजल कर दो मेरे दुश्मनों को मेरी मौत की खबर कर दो दुश्मन न मार सके, बस एक तन्हाई ने मारा जान ली उसने, जो था हैप्पी जान से प्यारा मेरी मौत के चश्मदीदों, एक फजल कर दो मेरे दुश्मनों को मेरी मौत की खबर कर दो

मौन थी, माँ

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आँख मलते हुए उठा वो बिस्तर से रोज की तरह और उठाया हठों तक लाया चाय की प्याली को हैरत में पड़ा, देख उस अध-खाली को मां के पास गया और बोला आज चाय इतनी कम क्यों है तू चुप, और तेरी आंख नम क्यों है फिर भी चुप थी, मौन थी, माँ एक पत्थर की तरह वो फिर दुहराया मां चाय कम क्यों है तेरी आंख नम क्यों है फिर भी न टूटी लबों की चुप कैसे टूटती चुप ताले अलीगढ़ के गोरमिंट ने लगा जो दिए मौन होंगी अब कई माँएं शक्कर दूध के भाव बढ़ा जो दिए

औरत

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दुख-सुख, उतार-चढाव देखे सीता बन हर तरह की जिन्दगी जी है औरत ने। कभी सुनीता तो कभी कल्पना बन जमीं से आसमां की सैर की है औरत ने।। बन झांसी की रानी लड़ी जांबाजों की तरह जंग औरत ने। कभी मदर टैरेसा बन भरे औरों के जीवन में रंग औरत ने॥ बेटी, बहू और मां बन ना-जाने कितने रिश्ते निभाए औरत ने। परिवार की खुशी के लिए आपने अरमानों के गले दबाए औरत ने॥ जिन्दगी के कई फलसफे ए दुनिया वालों पढ़ी है औरत। फिर भी न जाने क्यों चुप, उदास, लाचार खड़ी है औरत॥ मीरा, राधा और इन्हें जब जनी है औरत। फिर क्यों औरत की दुश्मन बनी है औरत॥

सवाल

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बादलों की तरह घूमते हैं सवाल ध्वनि की तरह गूंजते हैं सवाल पता नहीं आए कहां से कब सवाल मुमकिन नहीं, समझे हम सब सवाल रास्तों की तरह जुदा होते हैं सवाल हम को कहां से कहां ढोते हैं सवाल एक तूफान  की तरह आते हैं सवाल फिर कहीं गुम हो जाते हैं सब सवाल कभी कभी रास्ता दिखाते हैं सवाल कभी कभी कमजोर बनाते हैं सवाल मन की उपज है या दिमाग की न जाने कहां से ये आते हैं सवाल