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तेरा मेरा रिश्ता

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मैं प्यासा हूं, तू नदिया है मैं भँवरा हूं, तू बगिया है तेरा मेरा रिश्ता सदियों पुराना तेरा पता नहीं, मैंने तो ये माना मैं हूं काव्य, तो तू कवि है मैं हूं सुबह अगर तू रवि है मैं कैदी हूं तो तू ही तहखाना तेरा मेरा रिश्ता सदियों पुराना तेरा पता नहीं, मैंने तो माना मैं मुसाफिर तू रस्ता*1 है मैं किताबें तू बस्ता है मेरी आदत बस तुझमें समाना तेरा मेरा रिश्ता सदियों पुराना तेरा पता नहीं, मैंने तो माना पिंजर हूं मैं और जान है तू रिश्ते से क्यों अंजान है तू राग अगर मैं तू ही तराना तेरा मेरा रिश्ता सदियों पुराना तेरा पता नहीं, मैंने तो माना 1.रास्ता

'शब्द'

अंगीठी में कोयलों से जलते शब्द। आंखों में खाबों से मचलते शब्द।। दिल में अरमानों से पलते शब्द। समय के साँचों में ढलते शब्द।। पकड़, कोरे कागद पे उतार लेता हूं मैं फिर हौले हौले इन्हें संवार लेता हूं मैं प्यारी मां के लाड़ प्यार से शब्द। पिता की डाँट फटकार से शब्द ।। बचपन के लंगोटिए यार से शब्द। बहन भाई और रिश्तेदार से शब्द॥ पकड़, कोरे कागद पे उतार लेता हूं मैं फिर हौले हौले इन्हें संवार लेता हूं मैं मेरे जैसे यार कुछ बदनाम से शब्द।। पौष की धूप, जेठ की शाम से शब्द। करें पवित्र जुबां को तेरे नाम से शब्द। अल्लाह, वाहेगुरू और राम से शब्द॥ पकड़, कोरे कागद पे उतार लेता हूं मैं फिर हौले हौले इन्हें संवार लेता हूं मैं

एक ब्लॉगर कहत सब लेखक होए

एक ब्लॉगर कहत सब लेखक होए। और ब्लॉगर पाठक बचा न कोए।। तब मोहे मुंह से कुछ ऐसे वचन होए। पाठक ही पाठक यहां, बस तुम ही सोए॥ तुम न जावत घर किसी के तो तोरे घर कौन आए। माना तुम उच्चकोटि के घमुंडवा तो किसी न भाए॥ अपने घरीं सब राजा, रंक न कोए। सब जावत वहीं, जहां इज्जत होए॥ टिप्पणी नहीं आई तो का हुआ। पसंद नहीं चटकाई तो का हुआ॥ वो दर हमार आए तो सही। ले कर प्यार आए तो सही॥

लिखता हूं

न गजल लिखता हूं, न गीत लिखता हूं। बस शब्दों से आज औ' अतीत लिखता हूं॥ होती है पल पल, वो ही हलचल लिखता हूं। गमगीन कभी, कभी खुशनुमा पल लिखता हूं।। मैं तो शब्दों में बस हाल-ए-दिल लिखता हूं। आए जिन्दगी में पल जो मुश्किल लिखता हूं॥ बिखरे शब्दों को जोड़, न जाने मैं क्या लिखता हूं। लगता है कि खुद के लिए दर्द-ए-दवा लिखता हूं ॥ कभी सोचता हूं, क्यों मैं किस लिए लिखता हूं। मिला नहीं जवाब, लगे शायद इसलिए लिखता हूं॥ शब्दों का कारवां

न हिंदुस्तान बुरा, न पाकिस्तान बुरा

स्नानघर में सुबह जब नहाने के लिए गया, तो दिमाग में कुछ अजीब सी हलचल हुई। जब महसूस किया तो कुछ शब्द उभरकर जुबां पर आ गए। जिनको तुरंत मैंने आपके सामने परोसकर रख दिया। स्वादृष्टि होंगे या नहीं मैं नहीं जानता, लेकिन इन को प्रकट करने मन को सुकून सा मिल गया। न हिंदुस्तान बुरा, न पाकिस्तान बुरा यहां धर्म के ठेकेदार, औ' वहां तालिबान बुरा न यहां का, न वहां का इंसान बुरा बाबा नानक यहां भी बसता वहां भी बसता नुसरत हो या रफी यहां भी बजता है वहां भी बजता है इंसान वहां का भी और यहां का भी शांति चाहता है नहीं मांगती किसी की आंखें तबाही-ए-मंजर नहीं उठाना चाहता कोई हाथ में खूनी खंजर कोई नहीं चाहता कि हो दिल-ए-जमीं बंजर मिट्टी वहां भी वो ही है मिट्टी यहां भी वो ही है बांटी गई नहीं जमीं, बस मां का जिगर लहू लहान हुआ है तब जाकर एक हिंदुस्तान और दूसरा पाकिस्तान हुआ है तबाही यहां हो चाहे वहां हो दर्द तो बस एक मां को होता है जो बट गई टुकड़ों में

जिन्दगी

एक कविता आधी अधूरी आपकी नजर तन्हा है जिन्दगी अब तो फना है जिन्दगी आपको क्या बताऊं खुद को पता नहीं कहां है जिन्दगी ताल मेल बिठा रहा हूं बस जहां है जिन्दगी इसके आगे एक नहीं चलती जैसे मौत के आगे इसकी जिन्दगी कभी जहर तो कभी व्हस्की बस इसका हर मोड़ है रिस्की फिर नहीं आती एक बार जो यहां से खिसकी

कविता-सड़क

टहल रहा था, एक पुरानी सड़क पर सुबह का वक्त था सूर्य उग रहा था, पंछी घोंसलों को छोड़ निकल रहे थे दूर किसी की ओर इस दौरां एक आवाज सुनी मेरे कानों ने सड़क कुछ कह रही थी ये बोल थे उसके कोई पूछता नहीं मेरे हाल को कोई समझता नहीं मेरे हाल को आते हैं, जाते हैं हर रोज नए नए राहगीर ओवरलोड़ ट्रकों ने, बसों ने दिया जिस्म मेरा चीर सिस्कती हूं, चिल्लाती हूं, बहाती हूं, अत्यंत नीर फिर भी नहीं समझता कोई मेरी पीर

बगीची: कांग्रेस की रेस (अविनाश वाचस्‍पति)

बगीची: कांग्रेस की रेस (अविनाश वाचस्‍पति)

कभी सीधी सपाट

कभी सीधी सपाट  तो कभी पहेली लगती है  कभी बेगानी सी  तो कभी सहेली लगती है  ये जिन्दगी भी अजीब है दोस्तों  पल में सब बिखर बिखर नज़र आता है अगले ही पल सब निखर निखर नजर आता है  कभी धुप कभी छाँव जिंदगी  लगती है मनचाहे दांव  जिन्दगी कभी खुशियों भरा थाल देती है  कभी कर गम से मालामाल देती है  ये जिन्दगी भी अजीब है दोस्तों

कुछ मन से निकले

जैसे भी चलता हैं चक्कर चलाओ मेरे बेटे को नेता बना ओ----मेंनिका गाँधी बदनाम हुए तो क्या हुआ यारों नाम तो हुआ --- एल के आडवानी जी हाँ खलनायक हूँ मैं जुल्मी बड़ा दुखदायक हूँ मैं---वरुण गाँधी यहाँ भी आईये खेत और ऑफिस

व्यंग काव्य-नैनोकली

गली गली एक बात चली आ गई टाटानी नैनोकली बेटी अपने डैड से बोली स्कूटरी छोड़ो ले दो बस नैनो ओनली सुनो जी, इस बार एमएजी ना देना पति खुश हुए पत्नी बोली नैनो ला देना मुश्किल नहीं संता बंता को समझाना मुश्किल जनता को कौन समझाए ये सब भेड़ चाल है ट्रैफिक का तो पहले ही बुरा हाल है 5227 लेकर जब निकलता हूं मैं ही जानु कितना धूंआं निगलता हूं. एमएजी (marriag anversy gift)5227 (motor cycle no)

एक कविता ब्लॉगरों के नाम

देखा नहीं, और कहीं, नई सड़क स्थित कस्‍बा के रहवासी हर ब्लॉग पर है पता इनका सवार रहते हैं उड़न तश्तरी समीर नाम जिनका अविनाश हैं कीबोर्ड के खटरागी, टिप्पणियों के रूप में कविताएं जिन्होंने दागी जैसे जैसे ब्लॉग पढ़ता जाऊं समयचक्र के साथ आगे बढ़ता जाऊंगा कभी कभी कुछ ख़ास लेकर आऊंगा

खेत और ऑफिस

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खेतों के बीचोबीच एक पानी वाली मोटर और पेड़ों से घिरा एक कमरा डिग्गी में गिरते ट्यूबवेल के ताजे ताजे पानी में नहाना पेड़ों तले पड़ी खटिया पर तो कभी जमीं पे बिछा कपड़ा लेट जाना क्या अजब नजारा था कड़कती धूप में काम करना और पसीने का सिर से पांव तक आना याद है शाम ढले बैल गाड़ियों की दौड़ लगाते गांव तक आना आफिस में की- बोर्ड की टिकटिक और सड़क पर वाहनों की टीं टीं कानों को झुंझला देती है आजकल तो ऑफिस में फर्निचर पर हथौड़ों की ठकठक सिर दुखा देती है

ब्‍लॉगर्स जय होली : गुब्‍‍बारों पर रोक लगी : युवा कैसे मनाएं होली :

अब तक होली पर सिर्फ कीचड़रस पर थी पाबंदी इस बार गुब्‍बारे हैं बंदी गुब्‍बारे बिना छाई मंदी। लगे गुब्‍बारा तो होता मारने वाला है खुश न लगे तो जी खाने वाले को आता स्‍वाद। होली बनी है त्‍योहार अब रोक का समझ रहे हैं सब जो थी हास - परिहास का रंग तरंग भंग हुड़दंग का। ब्‍लॉगर्स तो पोस्‍ट लगाकर टिप्‍पणियां भेजकर भी तो खेलेंगे होली जरूर इस बार यही परंपरा चलाएं इस बार। टिप्‍पणी करना ही गुलाल लगाना माना जाएगा समझ लें शत्रु भी इसलिए मत करें कोताही और न करें गुरेज टिप्‍पणी देने में। तो हो जाए होली की शुरूआत मैंने लगा दी है पोस्‍ट और हैं मन से जो युवा वे जरूर निबाहें टिप्‍पणीधर्म है होली। जो युवा हैं तन से उनके होने में युवा कोई शक न बाकी के ख्‍याल हों जवां फिर तो सारा जहां जवां। जय हो जय हो जय हो जय होली जय होली हरी नीली काली पीली होली की जय रंगीली।

मरती नहीं मोहब्बत

विश्वास कैसा वो टूट गया जो किसी के बहकाने से मन का अंधकार कभी मिटता नहीं, दीपक जलाने से कब गई मैल मन की एक डुबकी गंगा में लगाने से यारों मरती नहीं मोहब्बत कभी, आशिक को मिटाने से मरते आएं हैं, और मरते रहेंगे आशिक जा कह दो जमाने से खुद मरना पड़ता है दोस्तों कब जन्नत नसीब हुई किसी और के मर जाने से

पता नहीं

कब दिन, महीने साल गुजरे पता नहीं, कैसे और किस हाल गुजरे पता नहीं, कितना कुछ खो दिया कितना पा लिया पता नहीं, कब घर छोड़ा, अपने छोड़े और परदेस में काम से मन लगा लिया पता नहीं जिसे समझे रोशने साधन उसी दीये से कब घर जला लिया पता नहीं सूर्यादय और अस्त होता देखे कितने दिन हुए पता नहीं कितने मिलकर बिछड़े और कितने दोस्तों में गिन हुए पता नहीं कब खत्म होगा सफर ये अलबेला पता नहीं कब देखूंगा वो गलियां, वो अपनों का मेला पता नहीं

तुम तो....

तुम तो दूर चली गई लेकिन मैं तो आज भी वहीं हूं उन्हीं गलियों में, उन्हीं बगीचों में, जहां कभी हम तुम एक साथ चला करते थे/ हवाहवा दे जाती है पुरानी यादों को/ हां,आंख भर जाती है याद कर वादों को// चुप हो जाता हूं, जब पूछते हैं नदियां के किनारे/ कहां गए नजर नहीं आते तुम्हारे जानशीं जान से प्यारे// मैं खामोश हूं, तुम ही बताओ क्या जवाब दूं/ मुझे तांकता है किसको तोड़कर वो गुलाब दूं// तुम्हें देखता था जहां से, आज उसी छत पर जाने से डरता हूं/ तुम न जानो, मैं किस तरह प्यार के गवाह सितारों का सामना करता हूं// हँसने नहीं देती याद तेरी रोने पर जमाना सौ सवाल करता है/ अब जाना, तुम से दूर होकर बिरहा कितना बुरा हाल करता है//

कैसे निकलूं घर से...

रेलवे स्टेशन की तरफ, बस स्टैंड की तरफ, आफिस की तरफ घर से बाहर की तरफ बढ़ते हुए कदम रुक जाते हैं, और पलटकर देखता हूं घर को, अपने आशियाने को, जिसको खून पसीने की कमाई से बनाया है, जिसमें आकर मुझे सकून मिलता है, सोचता हूं, क्या फिर इस घर लौट पाउंगा कहीं किसी बम्ब धमाके में उड़ तो न जाउंगा या फिर किसी भीड़ में कुचला तो न जाउंगा, रुकते हैं जब कदम दौड़ने लगता है तब जेहन, असमंजस में पड़ जाता है मन, बेशक जान हथेली पर रखने का है जज्बा, लेकिन बे-मतलबी और अनचाही मौत से डरता है मन भीड़ को देखकर भी मन घबराता है कुचले जाने का डर सताता है कैसे निकलूं बेफ्रिक बेखौफ घर से लबालब हूं आतंक मौत के डर से