कैसे निकलूं घर से...

रेलवे स्टेशन की तरफ,
बस स्टैंड की तरफ,
आफिस की तरफ
घर से बाहर की तरफ
बढ़ते हुए कदम रुक जाते हैं,
और पलटकर देखता हूं घर को,
अपने आशियाने को,
जिसको खून पसीने की कमाई से बनाया है,
जिसमें आकर मुझे सकून मिलता है,
सोचता हूं,
क्या फिर इस घर लौट पाउंगा
कहीं किसी बम्ब धमाके में उड़ तो न जाउंगा
या फिर किसी भीड़ में कुचला तो न जाउंगा,
रुकते हैं जब कदम
दौड़ने लगता है तब जेहन,
असमंजस में पड़ जाता है मन,
बेशक जान हथेली पर रखने का है जज्बा,
लेकिन बे-मतलबी और अनचाही मौत से डरता है मन
भीड़ को देखकर भी मन घबराता है
कुचले जाने का डर सताता है
कैसे निकलूं बेफ्रिक बेखौफ घर से
लबालब हूं आतंक मौत के डर से

टिप्पणियाँ

  1. डरना मन की मजबूरी है
    पर डरना है बेकार
    वो तो घर भी आ सकती है
    बिना हुये कार पर सवार।

    जवाब देंहटाएं
  2. हर शब्‍द में गहराई, बहुत ही बेहतरीन प्रस्‍तुति ।

    जवाब देंहटाएं

एक टिप्पणी भेजें

हार्दिक निवेदन। अगर आपको लगता है कि इस पोस्‍ट को किसी और के साथ सांझा किया जा सकता है, तो आप यह कदम अवश्‍य उठाएं। मैं आपका सदैव ऋणि रहूंगा। बहुत बहुत आभार।

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

सवारी अपने सामान की खुद जिम्मेदार

हैप्पी अभिनंदन में महफूज अली

सर्वोत्तम ब्लॉगर्स 2009 पुरस्कार

fact 'n' fiction : राहुल गांधी को लेने आये यमदूत

कपड़ों से फर्क पड़ता है

पति से त्रसद महिलाएं न जाएं सात खून माफ

महात्मा गांधी के एक श्लोक ''अहिंसा परमो धर्म'' ने देश नपुंसक बना दिया!