मौत को अपने साथ लिए चलता हूं मैं


मौत को अपने साथ लिए चलता हूं मैं
गैरों से नहीं अपनों से ही डरता हूं मैं
शिकारी बैठे हैं ताक में यहां
यही सोच के बहुत ऊँचा उड़ता हूं मैं
मुझे है अपनी मंजिल की तलाश
उसे ही हर पल ढूंडता हूं मैं
वक़्त की परवाह नहीं है मुझको
वक़्त से भी तेज़ दौड़ता हूं मैं
रास्ता बहुत ही कठिन है मेरा
यही सोच सब कुछ करता हूं मैं
उम्मीद का दामन थामा है मैंने
उम्मीद से ही उम्मीद करता हूं मैं
मौत को अपने साथ लिए चलता हूं मैं
गैरों से नहीं अपनों से ही डरता हूं मैं

टिप्पणियाँ

  1. बहुत सुन्दर प्रस्तुति!
    --
    इस प्रविष्टी की चर्चा कल रविवार (29-07-2012) के चर्चा मंच पर भी होगी!
    सूचनार्थ!

    जवाब देंहटाएं
  2. अपने ही अब पराये से हो गए हैं

    जवाब देंहटाएं
  3. आज तो ऐसा ही है
    पहले अपने ही उंगली उठाते है...
    बहुत ही बेहतरीन रचना..

    जवाब देंहटाएं
  4. डर अच्छा है!!

    अपने ही डराते है
    अच्छा है कि हम
    डर डर कर पार
    हो ही जाते हैं !!

    जवाब देंहटाएं

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