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हैप्‍पी अभिनंदन में सोनल रस्‍तोगी

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जुलाई 2009 की कड़कती दोपहर में ''कुछ कहानियां कुछ नज्‍में'' नामक ब्‍लॉग बनाकर गुड़गांव की सोनल रास्‍तोगी ने छोटी सी कविता 'नम आसमान' से ब्‍लॉग जगत में कदम रखा। तब शायद सोनल ने सोचा भी न होगा कि ब्‍लॉग दुनिया में उसकी रचनाओं को इतना प्‍यार मिलेगा। आज हजारों कमेंट्स, सैंकड़े अनुसरणकर्ता, सोनल की रचनाओं को मिल रहे स्‍नेह की गवाही भर रहे हैं। सोनल की हर कविता दिल को छूकर गुजर जाती है, चाहे वो सवाल पूछ रही हो, चाहे प्‍यार मुहब्‍बत के रंग में भीग रही हो, चाहे मर्द जात की सोच पर कटाक्ष कर रही हो। सोनल की कलम से निकली लघु कथाएं और कहानियां भी पाठकों को खूब भाती हैं। आज हैप्‍पी अभिनंदन में हमारे साथ उपस्‍िथत हुई हैं ''कुछ कहानियां कुछ नज्‍में'' की सोनल रस्‍तोगी, जो मेरे सवालों के जवाब देते हुए आप से होंगी रूबरू। तो आओ मिले ब्‍लॉग दुनिया की इस बेहतरीन व संजीदा ब्‍लॉगर शख्‍सियत से। कुलवंत हैप्‍पी- मैंने आपका ब्‍लॉग प्रोफाइल देखा। वहां मुझे कुछ नहीं मिला, तो फेसबुक पर पहुंच गया। वहां आपने कुछ लिखा है। मैं कौन हूँ ? इसका जवाब जब मिल जाएगा तब अगला सवाल

मेंढ़क से मच्‍छलियों तक वाया कुछेक बुद्धजीवि

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अमेरिका और भारत के बीच एक डील होती है। अमेरिका को कुछ भारतीय मेंढ़क चाहिए। भारत देने के लिए तैयार है, क्‍यूंकि यहां हर बरसाती मौसम में बहुत सारे मेंढ़क पैदा हो जाते हैं। भारत एक टब को पानी से भरता है, और उसमें उतने ही मेंढ़क डालता है, जितने अमेरिका ने ऑर्डर किए होते हैं। भारतीय अधिकारी टब को उपर से कवर नहीं करते। जब वो टब अमेरिका पहुंचता है तो अमेरिका के अधिकारियों को फोन आता है, आपके द्वारा भेजा गया टब अनकवरेड था, ऐसे में अगर कुछ मेंढ़क कम पाएगे तो जिम्‍मेदारी आपकी होगी। इधर, भारतीय अधिकारी पूरे विश्‍वास के साथ कहता है, आप निश्‍िचंत होकर गिने, पूरे मिलेंगे, क्‍यूंकि यह भारतीय मेंढ़क हैं। एक दूसरे की टांग खींचने में बेहद माहिर हैं, ऐसे में किस की हिम्‍मत कि वो टब से बाहर निकले। आप बेफ्रिक रहें, यह पूरे होंगे। एक भी कम हुआ तो हम देनदार। जनाब यहां के मेंढ़क ही नहीं, कुछ बुद्धिजीवी प्राणी भी ऐसे हैं, जो किसी को आगे बढ़ते देखते ही उनकी टांग खींचना शुरू कर देते हैं। आज सुबह एक लेख पढ़ा, जो सत्‍यमेव जयते को ध्‍यान में रखकर लिखा गया। फेसबुक पर भी आमिर खान के एंटी मिशन चल रहा है। कभी उसकी

आमसूत्र कहता है; मिलन उतना ही मीठा होता है

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आमसूत्र कहता है कि लालच को जितना पकने दो, मिलन उतना ही मीठा होता है। सबर करो सबर करो, और बरसने दो अम्‍बर को। गहरे पर सुनहरे रंग तैरने दो, बहक यह महकने दो, क्‍यूंकि सबर का फल मीठा होता है, मीठे रसीले आमों से बना मैंगो स्‍लाइस, आपसे मिलने को बेसबर है। आम का मौसम है। बात आम की न होगी तो किसकी होगी। मगर अफसोस के आम की बात नहीं होती। संसद में भी बात होती है तो खास की। आम आदमी की बात कौन करता है। अब जब उंगलियां 22 साल पुरानी इमानदारी पर उठ रही हैं तो लाजमी है कि खास जज्‍बाती तो होगा ही, क्‍यूंकि आखिर वह भी तो आदमी है, भले ही आम नहीं। जी हां, पी चिदंबरम। जो कह रहे हैं शक मत करो, खंजर खोप दो। वो कहते हैं बार बार मत बहस करो। कसाब को गोली मार दो। आखिर इतने चिढ़चिढ़े कैसे हो गए चिदंबरम। चिदंबरम ऐसे बर्ताव कर रहे हैं, जैसे निरंतर काम पर जाने के बाद आम आदमी करने लगता है। वो ही घसीटी पिट राहें। वो ही गलियां। वो ही चेहरे। वो ही रूम। वो ही कानों में गूंजती आवाजें। लगता है चिदंबरम को हॉलीडे पैकेज देने का वक्‍त आ गया। शायद मेरा सुझाव वैसा ही जैसा, दिलीप कुमार को देवदास रिलीज होने के बाद कुछ डॉक्‍टरों

लेकिन मेरी भैंस तो गई पानी में

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पत्रकार क्‍लीन दास सुबह सुबह अपना साइकिल लेकर ऑफिस की तरफ कूच करते हैं। जैसे ही वो ऑफिस के पास पहुंचते हैं, तो उनकी आंखें खुली की खुली रह जाती हैं। दफ्तर के सामने लगी चाय की लारी वाला गन्‍ने का जूस बनाने की तैयारी कर रहा है। पत्रकार क्‍लीन दास टेंशन में। आखिर चाय वाले को ऐसी क्‍या सूझी कि उसने चाय की जगह, गन्‍ने का जूस बनाने की ठान ली। क्‍लीन दास घोर चिंता में, अब मेरा क्‍या होगा, मेरा तो चाय के बिना चलता ही नहीं। इतने में क्‍लीन दास के अंदर का जिज्ञासु पत्रकार जागा, और चाय वाले से जाकर पूछने लगा, जो अब जूस वाला बनने की तैयारी कर रहा है, तुम को क्‍या हो गया, एक दम से गन्‍ने का जूस बनाने लग गए। चाय वाला बोला, सर आज का न्‍यूज पेपर नहीं पढ़ा आपने। पत्रकार चौंका, आखिर ऐसा क्‍या छपा है अख़बार में, जो चाय वाला जूस वाला बनने की ठान बैठा। अंदर का डर भी जागा। कहीं कोई बड़ी ख़बर तो नहीं छूट गई। लगता है आज संपादक से डांट पड़ेगी। पत्रकार क्‍लीन दास डर को थोड़ा सा पीछे धकेलते हुए बोलता है, आखिर अख़बार में ऐसा क्‍या छपा है, जो तुम चाय का कारोबार छोड़कर गन्‍ने का जूस बनाने लग गए। क्‍या बात करते

सिर्फ नाम बदला है

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वो बारह साल की है। पढ़ने में अव्‍वल। पिता बेहद गरीब। मगर पिता को उम्‍मीद है कि उसकी बेटी पढ़ लिखकर कुछ बनेगी। अचानक एक दिन बारह साल की मासूम के पेट में दर्द उठता है। वो अपने मां बाप से सच नहीं बोल पाती, अंदर ही अंदर घुटन महसूस करने लगती है। आखिर अपने पेट की बात, अपनी सहेली को बताती है, और वो मासूम सहेली घर जाकर अपने माता पिता को। अगली सवेर उसके माता पिता कुछ अन्‍य पड़ोसियों को लेकर स्‍कूल पहुंचते हैं और स्‍कूल में मीटिंग बुलाई जाती है। बिना कुछ सोच समझे एक तरफा फैसला सुनाते बारह साल की मानसी को स्‍कूल से बाहर कर दिया जाता है। टूट चुका पिता अपनी बच्‍ची को लेकर डॉक्‍टर के यहां पहुंचता है, तो पता चलता है कि बच्‍ची मां नहीं बनने वाली, उसके पेट में नॉर्मल दर्द है। मगर डॉक्‍टर एक और बात कहता है, जो चौंका देती है, कि मानसी का कौमार्य भंग हो चुका है। गरीब पिता अपनी बच्‍ची को किसी दूसरे स्‍कूल में दाखिल करवाने के लिए लेकर जाता है, तो रास्‍ते में पता चलता है कि उसकी बेटी को पेट का दर्द देने वाला कोई और नहीं, उसी की जान पहचान का एक कार चालक है, जो खुद दो बच्‍चों का बाप है। अगली सुबह मानसी