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लेकिन मेरी भैंस तो गई पानी में

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पत्रकार क्‍लीन दास सुबह सुबह अपना साइकिल लेकर ऑफिस की तरफ कूच करते हैं। जैसे ही वो ऑफिस के पास पहुंचते हैं, तो उनकी आंखें खुली की खुली रह जाती हैं। दफ्तर के सामने लगी चाय की लारी वाला गन्‍ने का जूस बनाने की तैयारी कर रहा है। पत्रकार क्‍लीन दास टेंशन में। आखिर चाय वाले को ऐसी क्‍या सूझी कि उसने चाय की जगह, गन्‍ने का जूस बनाने की ठान ली। क्‍लीन दास घोर चिंता में, अब मेरा क्‍या होगा, मेरा तो चाय के बिना चलता ही नहीं। इतने में क्‍लीन दास के अंदर का जिज्ञासु पत्रकार जागा, और चाय वाले से जाकर पूछने लगा, जो अब जूस वाला बनने की तैयारी कर रहा है, तुम को क्‍या हो गया, एक दम से गन्‍ने का जूस बनाने लग गए। चाय वाला बोला, सर आज का न्‍यूज पेपर नहीं पढ़ा आपने। पत्रकार चौंका, आखिर ऐसा क्‍या छपा है अख़बार में, जो चाय वाला जूस वाला बनने की ठान बैठा। अंदर का डर भी जागा। कहीं कोई बड़ी ख़बर तो नहीं छूट गई। लगता है आज संपादक से डांट पड़ेगी। पत्रकार क्‍लीन दास डर को थोड़ा सा पीछे धकेलते हुए बोलता है, आखिर अख़बार में ऐसा क्‍या छपा है, जो तुम चाय का कारोबार छोड़कर गन्‍ने का जूस बनाने लग गए। क्‍या बात करते

सिर्फ नाम बदला है

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वो बारह साल की है। पढ़ने में अव्‍वल। पिता बेहद गरीब। मगर पिता को उम्‍मीद है कि उसकी बेटी पढ़ लिखकर कुछ बनेगी। अचानक एक दिन बारह साल की मासूम के पेट में दर्द उठता है। वो अपने मां बाप से सच नहीं बोल पाती, अंदर ही अंदर घुटन महसूस करने लगती है। आखिर अपने पेट की बात, अपनी सहेली को बताती है, और वो मासूम सहेली घर जाकर अपने माता पिता को। अगली सवेर उसके माता पिता कुछ अन्‍य पड़ोसियों को लेकर स्‍कूल पहुंचते हैं और स्‍कूल में मीटिंग बुलाई जाती है। बिना कुछ सोच समझे एक तरफा फैसला सुनाते बारह साल की मानसी को स्‍कूल से बाहर कर दिया जाता है। टूट चुका पिता अपनी बच्‍ची को लेकर डॉक्‍टर के यहां पहुंचता है, तो पता चलता है कि बच्‍ची मां नहीं बनने वाली, उसके पेट में नॉर्मल दर्द है। मगर डॉक्‍टर एक और बात कहता है, जो चौंका देती है, कि मानसी का कौमार्य भंग हो चुका है। गरीब पिता अपनी बच्‍ची को किसी दूसरे स्‍कूल में दाखिल करवाने के लिए लेकर जाता है, तो रास्‍ते में पता चलता है कि उसकी बेटी को पेट का दर्द देने वाला कोई और नहीं, उसी की जान पहचान का एक कार चालक है, जो खुद दो बच्‍चों का बाप है। अगली सुबह मानसी

जब नेता फंसे 'बड़े आराम से'

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बड़े आराम से। यह संवाद तो आप ने जरूर सुना होगा, अगर आप टीवी के दीवाने हैं। अगर, नहीं सुना तो मैं बता देता हूं, यह संवाद छोटे नवाब सैफ अली खान बोलते हैं, अमूल माचो के विज्ञापन में। अमूल माचो पहनकर सैफ मियां, एक हत्‍या की गुत्‍थी को ''बड़े आराम से'' सुलझा लेते हैं, क्‍यूंकि ''अमूल माचो'' इतनी पॉवरफुल बनियान है कि मरा हुआ आदमी खुद उठकर बोलता है कि उसका खून किसने किया। इस विज्ञापन को देखने के बाद सरकार को शक हुआ कि जो घोटाले बड़े आराम से सामने आए हैं, उसमें अमूल माचो का बड़ा हाथ है। घोटालों के सामने आते ही सरकार ने गुप्‍त बैठक का आयोजन कर नेताओं को सतर्क करते हुए कहा कि वह ''अपना लक पहनकर चलें'' मतलब लक्‍स कॉजी पहनें, वरना पकड़े जाने पर सरकार व पार्टी जिम्‍मेदार नहीं होगी। गुप्‍त बैठक से निकलकर नेता जैसे ही कार में बैठकर लक्‍स कॉजी लेने के लिए निकले तो रास्‍ते में ट्रैफिक पुलिस वाले ने नेता की गाड़ी को रोक लिया। नेता गुस्‍से में आ गए, आते भी क्‍यूं न जनाब। आखिर परिवहन मंत्री हैं, और उनके वाहन को बीच रास्‍ते रोक दिया जाए, बुरा तो लगेगा ही।

वॉट्स विक्‍की डॉनर रिटर्न

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मोबाइल के इनबॉक्‍स में नॉन वेज चुटकले। सिनेमा हॉल पर दो अर्थे शब्‍द हमको हंसाने लगे हैं। कॉलेज में पढ़ने वाले युवक युवतियों को विक्‍की डॉनर पसंद आ रहा है। उनको द डर्टी पिक्‍चर की स्‍लिक भी अच्‍छी लगती है। उनको दिल्‍ली बेली की गालियों में भी मजा आता है। वैसा ही मजा, जैसा धड़ा सट्टा लगाने वालों को बाबे की गालियों से, जिससे वह नम्‍बर बनाते हैं, और पैसा दांव पर लगाते हैं। सिनेमा अपने सौ साल पूरे कर रहा है। पॉर्न स्‍टार अब अभिनेत्री बनकर सामने आ रही है। अब अभिनेत्री को अंगप्रदर्शन से प्रहेज नहीं, क्‍यूंकि अभिनय तो बचा ही नहीं। दर्शकों को सीट पर बांधे रखने के लिए दो अर्थे शब्‍द ढूंढने पड़ रहे हैं। भले ही हम एसीडिटी से ग्रस्‍त हैं, मगर मसालेदार सब्‍जी के बिना खाना अधूरा लगता है। बाप बेटा दो अर्थे संवादों पर एक ही हाल में एक साथ बैठकर ठहाके लग रहे हैं। बाप बेटी ''जिस्‍म टू'' मिलकर नई पीढ़ी के लिए सेक्‍स मसाला परोस रहे हैं। ठरकी शब्‍द गीतों में बजने लगा है और हम इसकी धुन पर झूमने लगे हैं। बस हमारी प्रॉब्‍लम यह है कि हमको खुलकर कुछ भी नहीं करना। हमको ऊपर से विद्रोह करना है

वॉट्स विक्‍की डॉनर

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विक्‍की डॉनर  को लेकर तरह तरह की प्रक्रिया आई और आ भी रही हैं। फिल्‍म बॉक्‍स आफिस पर धमाल मचा रही है। फिल्‍म कमाल की है। फिल्‍म देखने लायक है। मैं फिल्‍म को लेकर उत्‍सुक था, लेकिन तब तक जब तक मुझे इसकी स्‍टोरी पता नहीं थी। मुझे पहले पोस्‍टर से लगा कि विक्‍की डॉनर, किसी दान पुण्‍य आधारित है। शायद एक रिस्‍की मामला लगा। जैसे सलमान की चिल्‍लर पार्टी। मगर धीरे धीरे रहस्‍य से पर्दा उठने लगा। हर तरफ आवाज आने लगी, विक्‍की डॉनर, सुपर्ब। बकमाल की मूवी। मैं पिछले दिनों सूरत गया। वहां मैंने पहली दफा इसका ट्रेलर देखा। ट्रेलर के अंदर गाली गालोच के अलावा कुछ नजर नहीं आया। दान पुण्‍य तो दूर की बात लगी। इस ट्रेलर के अंदर डॉ.चढ्ढा एक संवाद बोलता है, ''जनानियों के जब बच्‍चे नहीं होते थे, तो ऋषि मुनियों को बुला लिया जाता था, बाबा कहता था तथास्‍तु।'' एवं इशारे में बहुत कुछ कहता है डॉक्‍टर चढ्ढा। इसको देखने बाद सोचा। मीडिया में किसी बात की सराहना हो रही है। गलियों की। गलत दिशा देने के प्रयास की। दोस्‍ताना आई, जिसमें घर किराने पर लेने के लिए हम युवकों को 'गे' होने की ओर धकेलते हैं।