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विचलित होना छोड़ दो

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तुम विचलित होना छोड़ दो। सफलता तुम्हारे कदम चुम्मेगी। कुछ ऐसा ही मेरा मानना है। तुम्हारा विचलित होना, किसी और के लिए नहीं केवल स्वयं तुम्हारे के लिए नुक्सानदेह है, जैसे कि क्रोध। विचलित होना तो क्रोध से भी बुरा है। विचलित मन तुम्हारे मनोबल को खत्म करता है। जब मनोबल न बचेगा, तो तुम भी न बचोगे। खुद के अस्तित्व को बचाने के लिए तुम को विचलित होना छोड़ना होगा, तभी तुम सफलता को अर्जित पर पाओगे। आए दिन नए नए ब्लॉगर्स को बड़े जोश खरोश के साथ आते देखता हूं, लेकिन फिर वो ऐसे गायब हो जाते हैं, जैसे कि मौसमी मेंढ़क। इसके पीछे ठोस कारण उनके मन का अस्थिर अवस्था में चले जाना है। वो ब्लॉग ही इस धारणा से शुरू करते हैं कि हमसे अच्छा कोई नहीं। वो जैसे ही कोई पोस्ट डालेंगे तो टिप्पणियां ऐसे आएंगी, जैसे कि सावन मास में पानी की बूंदें। लेकिन ऐसा नहीं होता तो विचलित हो जाते हैं, और वहीं ब्लॉग अध्याय को बंद कर देते हैं। अगर उनका मन स्थिर हो जाए, और वो निरंतर ब्लॉगिंग करें तो शायद उनको सफलता मिल जाए, लेकिन पथ छोड़ने से कभी किसी को मंजिल मिली है, जो उनको मिलेगी। कई मित्र मेरे पास आते हैं, और कहते हैं कि ब्लॉग शुर

अहिंसा का सही अर्थ

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'प्रेम'। जी हां, अहिंसा का सही अर्थ प्रेम है, लेकिन समाज ने इस शब्द का दूसरा अर्थ निकाल लिया कि किसी को मारना हिंसा होता है और न मारने की अवस्था अहिंसा, लेकिन गलत है। अहिंसा का अर्थ प्रेम। महावीर ने अहिंसा शब्द का इस्तेमाल किया, उन्होंने प्रेम का इस्तेमाल नहीं किया, क्योंकि प्रेम शब्द लोगों के जेहन में उस समय काम वासना के रूप में बसा हुआ था। लेकिन बाद में ओशो ने अहिंसा को प्रेम शब्द के रूप में पेश किया, क्योंकि अब स्थिति फिर बदल चुकी थी। लोगों ने अहिंसा का गलत अर्थ निकाल लिया था। मतलब किसी को नहीं मारना अहिंसा है। लेकिन ओशो कहते हैं कि अहिंसा का असली अर्थ प्रेम ही है, जो महावीर सबको समझाना चाहते थे। तुम जीव को नहीं मारते, तो मतलब तुम हिंसा नहीं कर रहे, ये तो गलत धारणा है। तुम को लगता है कि अगर तुमने जीव को मार दिया तो तुमसे जीव हत्या हो जाएगी और तुम नर्क के भोगी हो जाओगे। जहां पर तुमको दुख मिलेंगे, ये तो स्वार्थ एवं डर हुआ, अहिंसा तो न हुई। अगर तुम जीव से प्रेम करने लगो तो तुम उसके साथ इतना जुड़ जाओगे कि उसको मारे का ख्याल तक न आएगा, अब भी तो तुम अहिंसा के रास्ते पर हो। प्रेम कर

कैमरॉन की हसीं दुनिया 'अवतार'

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टायटैनिक जैसी एक यादगार एवं उम्दा फिल्म बनाने वाले निर्देशक जेम्स कैमरॉन उम्र के लिहाज से बुजुर्ग होते जा रहे हैं, लेकिन उनकी सोच कितनी गहरी होती जा रही है। इस बात का पुख्ता सबूत है 'अवतार'। करोड़ रुपयों की लागत से बनी 'अवतार' एक अद्भुत फिल्म ही नहीं, बल्कि एक अद्भुत दुनिया, शायद जिसमें हम सब जाकर रहना भी पसंद करेंगे। फिल्म की कहानी का आधारित पृथ्वी के लालची लोगों और पेंडोरा गृह पर बसते सृष्टि से प्यार करने वाले लोगों के बीच की जंग है। पृथ्वी के लोग पृथ्वी के कई हजार मीलों दूर स्थित पेंडोरा गृह के उस पत्थर को हासिल करना चाहते हैं, जिसके छोटे से टुकड़े की कीमत करोड़ रुपए है, लेकिन उनकी निगाह में वहां बसने वाले लोगों की कीमत शून्य के बराबर है। इस अभियान को सफल बनाने के लिए अवतार प्रोग्रोम बनाया जाता है। इस प्रोग्रोम के तहत पृथ्वी के कुछ लोगों की आत्माओं को पेंडोरा गृहवासियों नमुना शरीरों में प्रवेश करवाया जाता है। वो पेंडोरा गृहवासी बनकर ही पेंडोरा गृहवासियों के बीच जाते हैं, ताकि उन लोगों को समझा बुझाकर कहीं और भेजा जाए एवं पृथ्वी के लोग अपने मकसद में पूरे हो सकें। उसकी म

देख रहा हूं : काव्य रूप में कुछ चिंतन

खून खराबा होगा लाजमी, आई पागल हाथ तलवार देख रहा हूं। बल्बों की जगमगाहट बहुत मगर मैं दूर तक अंधकार देख रहा हूं। गुनगानों और विज्ञापनों से भरा ख़बर रहित आज अखबार देख रहा हूं। सब कुछ बदला बदला एड मांगते दर दर पत्रकार देख रहा हूं। न्याय के मंदिर में दबती पैसों तले सच की पुकार देख रहा हूं। क्रेडिट कार्डों की आढ़ में चढ़ा सबके सिरों पर उधार देख रहा हूं। उदास बैठा हर दुकारदार, पर मैं भरा भरा सा बाजार देख रहा हूं। क्या होगा मरीजों का मैं डाक्टर को स्वयं बीमार देख रहा हूं। तुम छोड़ो मेरे जैसों की मैं जाते वेश्यालय इज्जतदार देख रहा हूं। यहां बिगड़ा अनुशासन आकाश में पंछियों की कतार देख रहा हूं। कुदरत को रौंदा जिसने कोपेनहेगन में उसकी आज हार देख रहा हूं। जो निकला था सिर उठा आईने के समक्ष खुद शर्मसार देख रहा हूं। कल तक न पूछा जिन्होंने हैप्पी बदला आज उनका व्यवहार देख रहा हूं।

महिलाओं की ही क्यों सुनी जाती है तब....

आज से कुछ साल पहले जब पत्रकार के तौर पर जब फील्ड में काम करता था तो बलात्कार के बहुत से केस देखने को मिलते। जब पुलिस वालों से विस्तारपूर्वक जानकारी हासिल करते तो 99.9 फीसदी केस तो ऐसे लगते थे कि जबरी बनवाए गए हैं। ज्यादातर होता भी ऐसा ही है, मेरा मानना है कि महिला के साथ सामूहिक बलात्कार होता है तो समझ आता है, या फिर एक व्यक्ति द्वारा उसको नशीले पदार्थ खिलाकर उसके साथ बलात्कार करना। मगर जब दोनों होश में हैं लड़का और लड़की तो बलात्कार की बात समझ में नहीं आती, तब तो खासकर जब दोनों को खरोंच तक न आए। ये तो आम बात है कि जब कोई जोर जबरदस्ती करता है तो सामने वाला बचाओ करता है, उसके लिए जो बन पड़े करता है। इस लिए मेरा मानना है कि उनमें हाथपाई हो सकती है, खींचतान हो सकती है, लेकिन बड़ी आसानी से रेप तो नहीं हो सकता। उन दिनों जब पुलिस वालों को लड़की के परिवार वालों द्वारा लिखाई रिपोर्ट पढ़ता तो पता चलता है कि असल में वो बलात्कार न थे, लड़के लड़की के अचानक पकड़े जाने पर जबरदस्ती बलात्कार केस बनवाए गए। ज्यादातर केस ऐसे ही होते थे, सामूहिक बलात्कार मामलों को छोड़कर क्योंकि वहां पर अकेली औरत का कोई बस नहीं