वो क्या जाने
सोचते हैं दोस्त जिन्दगी में, बड़ा कुछ पा लिया मैंने। वो क्या जाने इस दौड़ में कितना कुछ गंवा लिया मैंने॥ मशीनों में रहकर, आखिर मशीन सा हो गया हूं। मां बाप के होते भी एक यतीम सा हो गया हूं।। बचपन की तरह ये यौवन भी यूं ही बिता लिया मैंने। वो क्या जाने इस दौड़ में कितना कुछ गंवा लिया मैंने॥ खेतों की फसलों से खेलकर अब वो हवा नहीं आती। सूर्य किरण घुसकर कमरे में अब मुझे नहीं जगाती॥ मुर्गे की न-मौजूदगी में सिरहाने अलार्म लगा लिया मैंने वो क्या जाने इस दौड़ में कितना कुछ गंवा लिया मैंने॥ छूट गई यारों की महफिलें, और वो बुजुर्गों की बातें कच्ची राहों पे सायों के साथ चलना, वो चांदनी रातें बंद कमरों में कैद अंधेरों की अब हमराही बना लिया मैंने वो क्या जाने इस दौड़ में कितना कुछ गंवा लिया मैंने॥