संदेश

वो क्या जाने

सोचते हैं दोस्त जिन्दगी में, बड़ा कुछ पा लिया मैंने। वो क्या जाने इस दौड़ में कितना कुछ गंवा लिया मैंने॥ मशीनों में रहकर, आखिर मशीन सा हो गया हूं। मां बाप के होते भी एक यतीम सा हो गया हूं।। बचपन की तरह ये यौवन भी यूं ही बिता लिया मैंने। वो क्या जाने इस दौड़ में कितना कुछ गंवा लिया मैंने॥ खेतों की फसलों से खेलकर अब वो हवा नहीं आती। सूर्य किरण घुसकर कमरे में अब मुझे नहीं जगाती॥ मुर्गे की न-मौजूदगी में सिरहाने अलार्म लगा लिया मैंने वो क्या जाने इस दौड़ में कितना कुछ गंवा लिया मैंने॥ छूट गई यारों की महफिलें, और वो बुजुर्गों की बातें कच्ची राहों पे सायों के साथ चलना, वो चांदनी रातें बंद कमरों में कैद अंधेरों की अब हमराही बना लिया मैंने वो क्या जाने इस दौड़ में कितना कुछ गंवा लिया मैंने॥

मेरे सपनों में नहीं आते गांधी

कुछ दिन पहले एक ब्लॉग पढ़ रहा था, मैं ब्लॉगर के लेखन की बेहद तारीफ करता हूं क्योंकि असल में ही उसने एक शानदार लेख लिखा। मैं उस हर लेख की प्रशंसा करता हूं जो मुझे लिखने के लिए उत्साहित करता है या मेरे जेहन में कुछ सवाल छोड़ जाता है। लेखक के सपने में गांधीजी आते हैं, सत्य तो ये है कि आजकल गांधी जी तो बहुत से लोगों के सपनों में आ रहे हैं, बस मुझे छोड़कर। शुरू से अंत तक गांधी जी मुस्कराते रहते हैं और लेखक खीझकर मुंह मोड़कर बैठ जाता है। जब अब युवा गुस्से होकर मुड़कर बैठ गया तो गांधी जी बोलना शुरू ही करते हैं कि उसका सपना टूटता है और लेख समाप्त हो जाता है। आखिर में लेखक पूछता है कि आखिर गांधी जी क्या कहना चाहते थे? मुझे लगता है कि इस देश को देखने के बाद गांधीजी के पास कहने को कुछ बचा ही नहीं होगा। हर सरकारी दफतर में तस्वीर रूप में, हरेक जेब में नोट रूप में, हर शहर में गली या मूर्ति के रूप में महात्मा गांधी मिल जाएंगे। इतना ही नहीं, पूरे विश्व में अहिंसा दिवस के रूप में फैल चुके हैं गांधी जी, कितना बड़ा आकार हो गया गांधी जी। कितनी खुशी की बात है कि कितना फैल गए हैं भारत के राष्ट्रपिता मोहनदास कर्

दीवाली की शुभकामनाएं

काव्य रूप में कुछ सुलगते सवाल

नाक तेरी तरह थी, लेकिन ठोडी थोड़ी सी लम्बी, मेरी तरह..मैं सिनोग्राफी की बात कर रहा था। अगर ऐसा हुआ तो मैं उसको दबा दबा उसका चेहरा गोल कर दूंगी..पत्नी बोली। फिर मैं चुप हो गया। उसको मुझे से दूर रखना, क्योंकि उसका पिता सनकी है, पागल है..कुछ देर के बाद मैं चुप्पी तोड़ते हुए बोला। मैं उसको उसके नाना के घर छोड़ आऊंगी..वहीं पढ़ लिखकर बड़ा आदमी बन जाएगा..पत्नी थोड़े से रौ में आते हुई बोली। ठीक है तुम भी वहीं को जॉब बगैरा कर लेना, तुम बहुत समझदार हो..तुम को अब मेरी जरूरत नहीं। अब देश को मेरी जरूरत है, मैं चला जाऊंगा..अब मैं बोल रहा था। उसने बात काटते हुए कहा..कल क्यों अभी जाओ ना। मैंने कहा कि नहीं उसका चेहरा देखकर जाऊंगा। शायद मेरी ऊर्जा में इजाफा हो जाए। अब बातें खत्म हुई और मैं सो गया...मुझे नहीं पता कि मैं सोया या फिर रात भर जागता रहा। जब सुबह होश आई तो एक तरफ आलर्म बज रहा था और दूसरी तरह मेरे जेहन से कुछ शब्द निकलकर मेरी जुबां पर दौड़ रहे थे। मुझे लग रहा था कि मैं रात भर सोया नहीं और किसी ध्यान में था।..वो शब्द आपकी खिदमत में हाजिर हैं। आंखों में है समुद्र अगर, तो आंसू कोई ढलकता क्यों नहीं। भू

ओबामा को प्राईज नहीं, जिम्मा मिला

अमेरिका राष्ट्रपति बराक ओबामा उस समय हैरत में पड़ गए, जब नोबेल शांति पुरस्कार के लिए उनका नाम घोषित कर दिया गया। ज्यादातर लोग खुश होते हैं, जब उनको सम्मानित किया जाता है, लेकिन ओबामा परेशान थे। शायद उन्होंने सोचा नहीं था कि उनकी राह और मुश्किल हो जाएगी, उनके कंधों पर अमेरिका के अलावा विश्व में शांति कायम करने का जिम्मा भी आ जाएगा। अगर ओबामा को पहले पता चल जाता कि नोबेल शांति पुरस्कार देने के लिए उनके नाम पर विचार किया जा रहा है तो शायद विचार को वो उसी वक्त ही खत्म कर देते, और ये पुरस्कार हर बार की तरह किसी ऐसे व्यक्ति के हाथों में चला जाता, जो काम कर थक चुका था, जो आगे करने की इच्छा नहीं रखता। बस वो थका हुआ, इस पुरस्कार को लेकर खुशी खुशी इस दुनिया से चल बसता। मगर अबकी बार ऐसा कुछ नहीं होने वाला, क्योंकि कमेटी ने पासा ही कुछ ऐसा फेंका है कि अब पुरस्कार की कीमत चुकानी होगी। अब वो करना होगा जो पुरस्कार की कसौटी पर खरा उतरता है। जब ओबामा को पुरस्कार देने की घोषणा हुई तो हर जगह खलबली सी मच गई, इसको पुरस्कार क्यों दिया जा रहा है। आखिर इसने क्या किया है? ये कैसी पागलभांति है? लेकिन लोग क्यों