काले चिट्ठे खोलती 'पत्रकार की मौत'

पिछली बार जब बठिंडा गया था, तो कुछ पंजाबी किताबें खरीदने का मन हुआ, ताकि अपनी जन्मभूमि से दूर कर्मभूमि पर कुछ तो होगा, जो मातृभाषा से मुझे जोड़े रखेगा। बस फिर क्या था, पहुंच गया रेलवे स्टेशन के स्थित एक किताबों वाली दुकान पर, जहां से अक्सर हिन्दी पत्रिकाएं खरीदा करता था, और कभी कभार किताबें, लेकिन इस बार किताबे लेने का मन बनाकर दुकान के भीतर घुसा था। मैंने कई किताबें देखी, लेकिन हाथ में दो किताबें आई, जिसमें एक थी 'पत्रकार दी मौत' हिन्दी में कहूं तो 'संवाददाता की हत्या'। इस किताब का शीर्षक पढ़ते एक बार तो ऐसा लगता है, जैसे ये कोई नावल हो, जिसका नायक कोई पत्रकार, जिसकी किसी ने निजी रंजिश के चलते हत्या कर दी हो, मगर किताब खोलते ही हमारा ये भ्रम दूर हो जाता है, क्योंकि पूरी किताब में कहीं भी पत्रकार की शारीरिक हत्या नहीं होती, हां जब भी होती है तो उसके आदर्शों की हत्या, पत्रकारिता के आदर्शों की हत्या. 'पत्रकार दी हत्या' को शब्दों में बयान करने वाला लेखक गुरनाम सिंह अकीदा खुद भी पत्रकारिता की गलियों से गुजर चुका है. उसने इस किताब में अपने आस पास घटित हुई घटनाओं का उल्लेख करते हुए कई सच सामने रखें हैं. इस किताब में आधुनिक पंजाब में पत्रकारिता की होती दुरगति, दुर्दशा एवं घटिया सोच से उपजी पत्रकारिता के कारण बिगड़ते पंजाब की छवि साफ झलकती है. इसके साथ साथ उन्होंने मीडिया में राजनीतिक घुसपैठ, डेरा सच्चा सौदा सिरसा का राजनीति में प्रवेश, उसके पश्चात हुई पंजाब में सिख समुदाय एवं प्रेमियों की झड़पों में मीडिया का रोल, समाचार पत्रों, न्यूज चैनलों द्वारा पैसे देकर रखे जा रहे संवाददाताओं के कारण किस हद तक पंजाब में पत्रकारी का स्तर गिरता जा रहा है, को साफ साफ शब्दों में लिखा है. 'पत्रकार दी मौत' में कुछ ऐसे घटनाक्रम भी हैं, जहां पत्रकार इंसानी जिन्दगी से ज्यादा तवज्जो अपनी खबर को देता है. एक व्यक्ति द्वारा आत्मदाह करने की एवं उसको कवरेज दे रहे पत्रकारों की घटना इस बात की ओर संकेत करती है. इसके अलावा बड़े टेलीविजनों, समाचार पत्रों को छोटे समाचार पत्रों के संवाददाताओं के मुकाबले अधिक तवज्जो देने का मुद्दा भी अहम रहा है. गुरनाम सिंह अकीदा की ये पुस्तक मुफ्त का हड़पने वाले पत्रकारों की पोल खोलने के साथ साथ उनके द्वारा किए हुए अच्छे कार्यों की सराहना भी करती है. पंजाब में दिन प्रति दिन धुंधली हो रही पत्रकारिता की छवि के प्रति मन में उठे सवालों के तूफान को किताबी रूप देने वाले लेखक गुरनाम सिंह अकीदा बधाई के हकदार हैं.

अब पंजाबी में भी

ਕਾਲੇ ਚਿੱਠੇ ਖੋਲ੍ਹਦੀ ਹੈ 'ਪੱਤਰਕਾਰ ਦੀ ਮੌਤ'

टिप्पणियाँ

  1. बहुत अक्छा लगा पढ़कर, लिखते रहिए

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  2. Sir this not only happening in Panjab this time the role of media should be decided .....

    These prople are deviding Indians only for their foreign Bosses.All news agencies are biased and following the agenda of different countries and parties......

    This is the time to think how to tackle these News channels and less their effect on people.

    Their policies are very harmful for this country.

    जवाब देंहटाएं

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