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तुम तो....

तुम तो दूर चली गई लेकिन मैं तो आज भी वहीं हूं उन्हीं गलियों में, उन्हीं बगीचों में, जहां कभी हम तुम एक साथ चला करते थे/ हवाहवा दे जाती है पुरानी यादों को/ हां,आंख भर जाती है याद कर वादों को// चुप हो जाता हूं, जब पूछते हैं नदियां के किनारे/ कहां गए नजर नहीं आते तुम्हारे जानशीं जान से प्यारे// मैं खामोश हूं, तुम ही बताओ क्या जवाब दूं/ मुझे तांकता है किसको तोड़कर वो गुलाब दूं// तुम्हें देखता था जहां से, आज उसी छत पर जाने से डरता हूं/ तुम न जानो, मैं किस तरह प्यार के गवाह सितारों का सामना करता हूं// हँसने नहीं देती याद तेरी रोने पर जमाना सौ सवाल करता है/ अब जाना, तुम से दूर होकर बिरहा कितना बुरा हाल करता है//

छंटनी की सुनामी

छंटनी की सुनामी हमारे पड़ोस में रहने वाले नंबरदार के कुत्ते जैसी है, जो चुपके से राहगीर की टांग को पीछे से आकर पकड़ लेता है, जिसके बाद राहगीर की एक नहीं चलती, बस फिर इलाज के लिए टीके पर टीके लगवाने पड़ते हैं. एक डेढ़ सौ साल पुरानी बैंक लेहमन ब्रदर से शुरू ही छंटनी की सुनामी, अब तक दुनिया भर के लाखों लोगों को आपना शिकार बना चुकी है एवं करोड़ों लोग घर से दुआ करते हुए काम पर निकलते हैं, हे भगवान! उनको छंटनी की सुनामी से बचाकर रखना, क्योंकि नौकरी के अलावा उनके पास अन्य कमाई का कोई साधन नहीं.छंटनी वो सुनामी है जो अब तक करोड़ों लोगों के सपनों को रौंद चुकी है और लगातार अपना कहर बरपा रही है. कुछ दिन पहले मैं एक बड़ी कंपनी में काम करने वाले अपने एक दोस्त से मिला था, जो काम पर महीने में से केवल दस बारह दिन ही दिखाई पड़ता था, इसलिए मैंने व्यंग कसते हुए कहा कि क्या बात है, जनाब आपकी तो ऐश है, आपकी कंपनी बड़ी दियालु है, जो आपको इतने दिन की छुट्टी प्रदान कर देती है. तो उसने कहा कि उसके परिवार में कुछ ऐसे घटनाक्रम लगातार हो रहे थे, जिसके कारण उसको बार बार घर जाना पड़ रहा था. फिर उसने बड़े जोश और उल्लास के साथ क

क्या ये आतंकवाद से गंभीर विषय नहीं ?

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पिछले दिनों मुम्बई में हुए आतंकवादी हमले का विरोध तो हर तरफ हो रहा है, क्योंकि उस हमले की गूंज दूर तक सुनाई दी, लेकिन हर दिन देश में 336 आत्महत्याएं होती हैं, उसके खिला फ तो कोई विरोध दर्ज नहीं करवाता और सरकार के नुमाइंदे अपने पद से नैतिकता के आधार पर त्याग पत्र नहीं देते. ऐसा क्यों ? क्या वो देश के नागरिक नहीं, जो सरकार की लोक विरोधियों नीतियों से तंग आकर अपनी जान गंवा देते हैं. आपको याद हो तो मुम्बई आतंकवादी हमले ने तो 56 घंटों 196 जानें ली, लेकिन सरकार की लोक विरोधी नीतियां तो हर एक घंटे में 14 लोगों को डंस लेती हैं, अगर देखा जाए तो 24 घंटों में 336 लोग अपनी जीवन लीला समाप्त कर लेते हैं. मगर कभी सरकार ने इन आत्महत्याओं के लिए खुद को जिम्मेदार ठहराकर नैतिकता के तौर पर अपने नेताओं को पदों से नहीं हटाया, क्योंकि उस विषय पर कभी लोग एकजुट नहीं हुए, और कभी सरकार को खतरा महसूस नहीं हुआ.ऐसा नहीं कि मुम्बई से पहले इस साल भारत में कोई आतंकवादी हमला नहीं हुआ, इस साल कई बड़े बड़े शहरों को निशाना बनाया गया एवं बड़े बड़े धमाके किए, लेकिन उन धमाकों में मरने वाले ज्यादातर गरीब लोग थे, उनका बड़े घरों से

आतंकियों का मुख्य निशाना

जयपुर, बैंग्लूर, अहमदाबाद, सूरत ( इस शहर में भी धमाके करने की साजिश थी), दिल्ली और अब मुम्बई को आतंकवादियों द्वारा निशाना बनना, इस बात की तरफ इशारा करता है कि आतंकवादी अब देश के लोगों को नहीं बल्कि देश की आर्थिक व्यवस्था में योगदान देने वाले विदेशियों के रौंगटे खड़े कर देश की आर्थिक व्यवस्था को तहस नहस करना चाहते हैं, जिसको वैश्विक आर्थिक मंदी भी प्रभावित नहीं कर पाई. आतंकवादी मुम्बई में एक ऐसी घटनाओं को अंजाम देने के लिए घुसे थे, जिसकी कल्पना कर पाना भी मुश्किल है, मगर आतंकवादियों ने जितना किया वो भी कम नहीं देश की आर्थिक व्यवस्था को बिगाड़ने के लिए, उन्होंने ने लगातार 50 से ज्यादा घंटों तक मुम्बई नगरी को दहश्त के छाए में कैद रखकर पूरे विश्व में भारत की सुरक्षा व्यवस्था की धज्जियां उड़ा दी. हर देश में भारत की नकारा हो चुकी सुरक्षा व्यस्था की बात चल रही है और आतंकवादी भी ये चाहते हैं. आज की तारीख में भारत विश्व के उन देशों में सबसे शिखर पर है, जिस पर वैश्विक आर्थिक मंदी का बहुत कम असर पड़ा है और अमेरिका से भारत की दोस्ती इस्लाम के रखवाले कहलाने वालों को चुभती है, जिनका धर्म से दूर दूर तक क

अब बाट जोहने का वक्त नहीं...

दिक्कत यही है कि आप राजनीति का दामन भले ही छोड़ दें, राजनीति आपका दामन नहीं छोड़ती. या तो आप राजनीति को चलाएंगे या फिर राजनीति आपको अपनी मर्जी से घुमाएगी. राजनीति की दलदल में उतरे बिना इस परनाले की धुलाई सफाई का कोई जरिया नहीं है. इस सफाई के लिए कृष्ण या किसी गांधी की बाट जोहने से काम नहीं चलेगा. यह काम हम सबको ही करना पड़ेगा. उक्त लाईनें एक प्रसिद्ध लेखक चुनाव विश्लेषक और सामयिक वार्ता के संपादक योगेंद्र यादव के द्वारा लिखे एवं दैनिक भास्कर में प्रकाशित हुए वोट देना लोकतंत्रिक धर्म है आलेख की हैं. इन चांद लाइनों में लेखक ने राजनीति को गंदी कहकर मतदान नहीं करने वाले लोगों को एक मार्ग दिखाने की कोशिश की है. ये एक ऐसा सच है, जिससे ज्यादातर लोग मुंह फेर कर खड़े हैं, जिसके कारण देश में बदलाव नहीं आ रहा, देश की राजनीति देश को दिन प्रतिदिन खोखला किए जा रही है. देश को खोखला बना रही इस गंदी राजनीति को खत्म करने के लिए युवाओं को सोचना होगा, न कि राजनीति को गंदा कहकर इसको नजरंदाज करना. अगर देश में बदलाव चाहिए, अगर देश को तरक्की के मार्ग पर लेकर जाना है तो युवाओं को अपनी सोई हुई जमीर और सोच को जगाना

जागो..जागो..हिंदुस्तानियों जागो....

अफजल को माफी, साध्वी को फांसी ।आरएसएस पर प्रतिबंध, सिमी से अनुबंध ।अमरनाथ यात्रा पर लगान, हज के लिए अनुदान।ये है मेरा भारत महान। जागो...जागो...शायद ये मोबाइल एसएमएस आपके मोबाइल के इंबॉक्स में पड़ा हो, ये मोबाइल एसएमएस भारत के भीतर पनप रहे मतभेद को प्रदर्शित कर रहा है. इस तरह की बनती विचार धारा देश को एक बार फिर बंटवारे की तरफ खींचकर ले जा रही है, इस एसएमएस में एक बात अच्छी वो है, 'जागो जागो', आज भारत की धरती पर रहने वाले हर व्यक्ति को जागने की जरूरत है, भले वो हिंदु है, भले वो मुस्लिम है, भले वो सिख है, भले वो ईसाई है, क्योंकि भारतीय राजनीति इस कदर गंदी हो चुकी है, वो किसी भी हद तक जा सकती है. देश की दो बड़ी पार्टियां देश को दो हिस्सों में बांटने पर तुल चुकी हैं, ऐसा ही कुछ आज से काफी दशक पहले अंग्रेजों कारण महात्मा गांधी और जिन्ना के बीच हुए मतभेदों के कारण हुआ था. हिंदुस्तान दूसरी बार न टूटे तो हर हिंदुस्तानी को जागना होगा औत इसमें हर हिंदुस्तानी की भलाई होगी. राजनीतिक पार्टियों के झांसे में आकर हर हिंदुस्तानी को ये बात नहीं भूलनी चाहिए कि आतंकवाद का किसी भी मजहब से कोई लेन देन

भगत सिंह और भोला हलवाई....

भोला हलवाई की एक हिंसक भीड़ में कुचले जाने से मौत हो गई और वो भी यमराज की कोर्ट में पहुंच गया. भोला हलवाई को गलती से यमराज के दूत ले गए थे जबकि लेकर तो भोला सिंह को जाना था. यमराज ने कहा इसको फौरन जमीन पर भेज दो..तो इतना सुन भोला हलवाई बोला. जब यहां तक आ ही गया हूं तो क्यों न इस लोक की यात्रा ही कर ली जाए. यमराज उसकी बात सुनकर दंग रह गया कि पहला मानस है जो इस लोक की सैर करना चाहता है. दूतों को यमराज ने आदेश दिया कि इसको घूमने के लिए इसकी मर्जी के वाहन मुहैया करवाए जाए..भोला तुरंत बोला नहीं..नहीं यमराज...मैं तो पैदल ही अच्छा हूं...उसको कुछ दिन वहां पर घूमने फिरने के लिए मिल गए, बस फिर क्या था. जमीन पर बेरोजगार घूमने वाले भोला हवलाई को यमराज लोक में सब सुविधाएं मिल गई. भोला सिंह ने देखा कि लोगों पर तरह तरह के जुल्म किए जा रहे थे...लोगों की चीखें, भोला हलवाई के कानों को फाड़ रही थीं. जिनको सुनकर भोला हलवाई डर गया, उसने स्वर्ग की तरफ जाने का मन बनाया, उसको लगा कि स्वर्ग में सब खुश होंगे. इतने में चलते चलते भोले के कानों में किसी के रोने के आवाज पड़ी. भोला हलवाई रूका और उसने आवाज की दिशा को मह

ऐश्वर्या के आगे चुनौती

जब पिछले दिनों अमिताभ बच्चन अस्पताल में दाखिल हुए तो ना जाने कितने लोगों ने उनके स्वास्थ्य होने की दुआ की होगी, इन दुआ करने वालों में कुछ ऐसे लोग भी थे, जो खुद शायद पूरी तरह स्वस्थ नहीं थे, लेकिन फिर भी उन्होंने बॉलीवुड के इस महानायक की सलामती के लिए दुआ की. वहीं अमिताभ बच्चन को स्वास्थ्य करने के लिए घरवालों ने पैसे भी पानी की भांति बहाए होंगे, इस में कोई दो राय नहीं. अमिताभ का तंदरुस्त होकर घर आना एक खुशी का लम्हा है, घरवालों और प्रशंसकों के लिए. लेकिन इस बात को नहीं भूलना चाहिए कि अब अमिताभ साठ के पार पहुंच चुके हैं, इस पड़ाव के बाद आदमी सोचता है कि उसके बच्चे खुश रहें और उसके घर में उसके पोते पोतियां खेलें. इसमें कोई शक नहीं होगा कि अब अमिताभ का भी ये सपना होगा, अमिताभ का ही क्यों, जया बच्चन का भी तो वो घर है, क्या होगा वो टेलीविजन पर ऐश, अभि और अमित जी की तरह हर रोज दिखाई नहीं देती, किंतु हैं तो बिग बी की पत्नी, वे भी इस सपने से अछूती न होंगी. आज अमिताभ के पास दौलत है, शोहरत है, लेकिन जब उसके मन में उक्त ख्याल उमड़ता होगा, कहीं न कहीं वो खुद को बेबस लाचार पाते होंगे, क्योंकि इसको पूर

बनते बनते बिगड़ी किस्मत

गज्जन सिआं वो देख बस आ रही है, बस नहीं निहाले, वो तो रूह की खुराक है. पास बैठा करतारा बोलिया. ऐसा क्या है बस में, बूढ़ी उम्र में भी आंखें गर्म करने से बाज नहीं आते, ओ नहीं करतारिया, उस बस में गांव के लिए एकलौता समाचार पत्र आता है, जिसको सारा दिन गांव के पढ़े लिखे लोग पढ़कर देश के हालात को जानते हैं, अच्छा अच्छा, ओ गज्जन सिआं माफ करी, ऐसे ही गलत मलत बोल गया था, नहीं नहीं इसमें तेरा कोई कसूर नहीं, टीवी वालों ने बुजुर्गों का अक्स ही ऐसा बना दिया है. गुफ्तगू चल ही रही थी कि बस पास आई और ले लो बुजुर्ग रूह की खुराक ड्राईवर ने बोलते हुए अख्बार बुजुर्गों की तरफ फेंका. गज्जन सिआं ने अख्बार की परतें खोलते हुए कहा, आज तो पहले पन्ने पर किसी नैनो की खबर लगी है, जल्दी पढ़ो गज्जन सिआं, कोई आँखों का मुफ्त कैंप लगा होगा आस पास में कहीं, समीप बैठा करतारा बोलिया..चुटकी लेते हुए गज्जन सिआं ने कहा नहीं ओ मेरे बाप, ये ख़बर आंखों से संबंधित नहीं बल्कि टाटा ग्रुप द्वारा बनाई जा रही नैनो कार के बारे में है, करतारा नजर झुकाते हुए बोला, चल आप ही बताएं खबर में क्या लिखा है, गज्जन सिआं बोला कि अख्बार में लिखा है कि नैन

सिनेमे को समझो, केवल देखो मत

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इस साल भी बहुत सारी फिल्में रिलीज हुई, हर साल की तरह. लेकिन साल की फिल्मों में एक बात आम देखने को मिली, वो थी आम आदमी की ताकत, जिसके पीछे था तेज दिमाग, जिसके बल पर आम आदमी भी किसी बड़ी ताकत को घुटने टेकने पर मजबूर कर सकता है. इस साल रिलीज हुई एकता कपूर की फिल्म 'सी कंपनी' ने बेशक बॉक्स आफिस पर सफलता नहीं अर्जितकी, लेकिन फिल्म का थीम बहुत बढ़िया था, घर में होने वाली अनदेखी से तंग आकर कुछ लोग मजाक मजाक में 'सी कंपनी' बना बैठते हैं, 'सी कंपनी' की दहश्त शहर में इस कदर फैलती है कि बड़े बड़े गुंडे और सरकारें भी उनके सामने घुटने टेकने लगती हैं, वो लोग बस फोन पर ही धमकी देते हैं, सब काम हो जाते हैं, वो लोग आम जनता के हित में काम करते हैं. फिल्म कहती है कि अगर बुरे काम के लिए 'डी कंपनी' का फोन आ सकता है तो अच्छे काम करवाने के लिए 'सी कंपनी' क्यों नहीं बन सकती.'सी कंपनी' को छोड़कर अगर हम इस साल सबसे ज्यादा समीक्षकों के बीच वाह वाह बटोरने वाली फिल्म 'ए वेनसडे' की बात करें तो वो फिल्म भी एक आम आदमी की ताकत को रुपहले पर्दे पर उतारती है. लेकिन इस फि

कैसे निकलूं घर से...

रेलवे स्टेशन की तरफ, बस स्टैंड की तरफ, आफिस की तरफ घर से बाहर की तरफ बढ़ते हुए कदम रुक जाते हैं, और पलटकर देखता हूं घर को, अपने आशियाने को, जिसको खून पसीने की कमाई से बनाया है, जिसमें आकर मुझे सकून मिलता है, सोचता हूं, क्या फिर इस घर लौट पाउंगा कहीं किसी बम्ब धमाके में उड़ तो न जाउंगा या फिर किसी भीड़ में कुचला तो न जाउंगा, रुकते हैं जब कदम दौड़ने लगता है तब जेहन, असमंजस में पड़ जाता है मन, बेशक जान हथेली पर रखने का है जज्बा, लेकिन बे-मतलबी और अनचाही मौत से डरता है मन भीड़ को देखकर भी मन घबराता है कुचले जाने का डर सताता है कैसे निकलूं बेफ्रिक बेखौफ घर से लबालब हूं आतंक मौत के डर से

बाक्स आफिस पर अपनों से टक्कर

बालीवुड के लिए पिछले छ: महीने कैसे भी गुजरें हो, मगर इस साल के आने वाले छ: महीने दर्शकों एवं कलाकारों के लिए बहुत ही रोमांच भरे हैं। अगर हम फिल्म निर्माता एवं निर्देशकों द्वारा फिल्म रिलीज करने की तारीखों पर नजर डालें तो पता चलता है कि इस साल बाक्स आफिस पर प्रेमी प्रेमिका को, मामा भांजे को, बाप बेटे को टक्कर देगा। इसमें कोई शक नहीं की बाक्स आफिस पर अब मुकाबलेबाजी बढ़ने लगी है, यह बात तो 'सांवरिया' एवं 'ओम शांति ओम' के एक साथ रिलीज होने पर ही साबित हो गई थी. उसके बाद 'तारे जमीं पर' एवं 'वैकलम' एक साथ रिलीज हुई, बेशक यहां पर त्रिकोणी टक्कर होने वाली थी, मगर उस दिन अजय देवगन की फिल्म 'हल्ला बोल' को रिलीज नहीं किया गया था. बाक्स आफिस पर टक्कर होने से फिल्मी सितारों का मनोबल भी बढ़ता है और उनको भी खूब मजा आता है, जब सामने वाले किसी सितारे की फिल्म पिटती है। जुलाई महीने में भी दो नए सितारे बाक्स आफिस पर टकराने वाले हैं, हरमन बावेजा और इमरान खान. वैसे तो यह टक्कर कोई खास न होती, मगर यह टक्कर खास इस लिए हो गई क्योंकि दोनों के पीछे बड़े बैनर हैं. हरमन बाव

बालीवुड को जोरदार झट्के

चमक दमक भरी मायानगरी यानी बालीवुड में कुछ पता नहीं चलता, कब किसको आसमां मिल जाए और न जाने कब किसको जमीन पर आना पड़ जाए। जब बालीवुड की बात चल रही हो तो यशराज फिल्मस बैनर का नाम तो लेना स्वाभिक बात है क्योंकि इस बैनर का नाम तो बच्चा बच्चा जानता है। सफलता की सिख़र पर पहुंचे इस बैनर को लोगों की नजर लग गई और अब यह बैनर फलक से जमीं तलक आ गया। पिछले साल यशराज ने पांच फिल्में रिलीज की, मगर सफलता का परचम केवल एक लहरा पाई, वो फिल्म थी किंग खान की 'चक दे! इंडिया. यह फिल्म सफलता की सीढ़ियां चढ़ पाएगी यशराज बैनर को उम्मीद नहीं थी, जिसके चलते उन्होंने फिल्म को सस्ते दामों में बेचा, मगर जो फिल्में यशराज बैनर ने महंगे दामों पर बेची थी वो सब सुपर फ्लाप साबित हुई, जिसके चलते सिनेमा मालिकों को घाटा झेलना पड़ा. यशराज ने इस साल की शुरूआत 25 अप्रैल को 'टशन' से की, उन्होंने इस फिल्मों को भी महंगे दामों पर बेचना चाहा, मगर पहले ही नुकसान झेल चुके सिनेमा मालिकों ने इस बार यशराज फिल्मस की फिल्म को अहमियत नहीं दी, जिसके चलते यह फिल्म कुछ सिनेमा घरों में रिलीज नहीं हुई. फिल्म रिलीज होने के एक दो दिन बाद ही

'सरकार राज' ठाकरे को नसीहत

फिल्म निर्देशक राम गोपाल वर्मा की उम्दा पेशकारी 'सरकार राज' देखते हुए दर्शकों को पिछले दिनों महाराष्ट्र में महाराष्ट्र नव निर्माण सेना की ओर से उत्तर भारतीयों को निशान बनाने की घटनाओं की याद आई होगी। राज ठाकरे ने महाराष्ट्र में खुद को स्थापित करने लिए उत्तर भारतीयों को निशाना बनाया था, विशेषकर अमिताभ बच्चन को, जहां बड़े पर्दे के मैगास्टार अमिताभ बच्चन ने पर्दे के पीछे राज ठाकरे के शब्दी निशानों का खूब जोरदार जवाब दिया, वहीं पर अमिताभ बच्चन एवं उनके बेटे अभिषेक बच्चन ने 'सरकार राज' में महाराष्ट्र का नेतृत्व कर बड़े पर्दे पर खूब वाह वाह बटोरी है। उल्लेखनीय है कि इस फिल्म को आईफा अवार्ड समारोह में दिखाया गया था, फिल्म को इतना बड़ा समर्थन मिला कि पुलिस को भी भीड़ के साथ दो चार होना पड़ा. मेरे ख्याल से महाराष्ट्र को राम गोपाल वर्मा का आभार प्रकट करना चाहिए जिन्होंने महाराष्ट्र की एकता को पर्दे पर दर्शाया एवं महाराष्ट्र की एकता के नाम पर लोगों को तालियां बजाने लिए मजबूर कर दिया. वैसे तो सुनने आया है कि राज ठाकरे एवं राम गोपाल वर्मा में बहुत गहरी दोस्ती है एवं राज राम की फिल्म को

2007 ने किसको क्या दिया, किसी से क्या छीना

किसी ने ठीक ही कहा है कि समय से बलवान कोई नहीं और समय से पहले किसी को कुछ नहीं मिलता, ये बात बिल्कुल सत्य है, अगर आप आपने आसपास रहने वाले लोगों या खुद के बीते हुए दिनों का अध्ययन करेंगे तो ये बात खुदबखुद समझ में आ जाएगी। चलो पहले रुख करते हैं बालीवुड की तरफ क्योंकि ये मेरा पसंदीदा क्षेत्र है. जैसे ही 2007 शुरू हुआ छोटे बच्चन यानी अभिषेक के दिन बदल गए, उनकी इस साल की पहली फिल्म 'गुरू' रिलीज हुई, इस फिल्म ने अभिषेक को सफलता ही नहीं बल्कि करोड़ों दिलों की धड़कन 'ऐश' लाकर इसकी झोली में डाल दी, इसके बाद आओ हम चलते खिलाड़ी कुमार की तरफ ये साल उनके लिए बहुत ही भाग्यशाली साबत हुआ क्योंकि उनकी इस साल रिलीज हुई हर फिल्म को दर्शकों ने खूब प्यार दिया, जिसकी बदौलत अक्षय कुमार सफलता की सीढ़ियों को चढ़ते हुए सफलता की शिख़र पर जाकर बैठ गए. इस साल भारी झटका बालीवुड के प्रसिद्ध फिल्म निर्देशक संजय लीला भंसाली को लगा क्योंकि उनकी पिछले दिनों रिलीज हुई फिल्म को इस साल की सबसे फ्लाप फिल्मों में गिना जा रहा है, बेशक संजय मानते हैं कि उनकी फिल्म बहुत अच्छी थी लेकिन समीक्षाकारां ने फिल्म की आलोचना

लाजवाब है 'सरकार राज'

निर्देशकः राम गोपाल वर्मा कलाकारः अमिताभ बच्चन, अभिषेक बच्चन, ऐश्वर्य राय बच्चन, गोविन्द रामदेव, सुप्रिया पाठक, राजेश श्रृगांरपुरी, रवि काले, उपेन्द्र लिमाए। पिछले साल फ्लाप हैट्रिक मारने वाले राम गोपाल वर्मा ने इस साल की शुरूआत 'सरकार राज' से की. इसमें कोई शक नहीं कि इस फिल्म में रामगोपाल वर्मा ने अपने आपको फिर से साबित करने में कोई कसर बाकी नहीं छोड़ी. वर्मा ने इस फिल्म को बहुत बढ़िया ढंग से बनाया है ताकि दर्शक उनकी पुरानी फिल्म 'सरकार' से भी तुलना करना चाहें तो बढ़े शौक से करें क्योंकि यह फिल्म पुरानी सरकार से काफी ज्यादा अच्छी है. इतना ही नहीं रामू गोपाल वर्मा ने फिल्म को इस ढंग से तैयार किया कि दर्शक एक बार भी नजर इधर उधर चुरा नहीं पाते. फिल्म ‘सरकार राज’ को देखकर कहा जा सकता है, कि राम गोपाल वर्मा ने बॉलीवुड के सफल निर्देशकों के कतार में धमाकेदार वापसी की है. उनके द्वारा बनाई गई ‘सत्या’ और ‘कंपनी’ जैसी फिल्मों की तुलना में कई गुणा बेहतरीन फिल्म है ‘सरकार राज’. फिल्म के सभी पहलू उसे बॉक्स ऑफिस पर जबरदस्त हिट बनाने में मददगार तो होंगे ही, साथ ही इसके तमाम कलाकार

छोटे आसमां पर बड़े सितारे

शाहरुख खान छोटे पर्दे से बड़े पर्दे पर जाकर बालीवुड का किंग बन गया एवं राजीव खंडेलवाल आपनी अगली फिल्म 'आमिर' से बड़े पर्दे पर कदम रखने जा रहा है, मगर वहीं लगता है कि बड़े पर्दे के सफल सितारे अब छोटे पर्दे पर धाक जमाने की ठान चुके हैं। इस बात का अंदाजा तो शाहरुख खान की छोटे पर्दे पर वापसी से ही लगाया जा सकता था, मगर अब तो सलमान खान एवं ऋतिक रोशन भी छोटे पर्दे पर दस्तक देने जा रहे हैं. इतना ही नहीं पुराने समय के भी हिट स्टार छोटे पर्दे पर जलवे दिखा रहे हैं, जिनमें शत्रुघन सिन्हा एवं विनोद खन्ना प्रमुख है. बालीवुड के सितारों का छोटे पर्दे की तरफ रुख करने के दो बड़े कारण हैं, एक तो मोटी राशी एवं दूसरा अधिक दर्शक मिल रहे हैं. इन सितारों के अलावा अक्षय कुमार, अजय देवगन, गोविंदा भी छोटे पर्दे के मोह से बच नहीं सके. अभिनेताओं की छोड़े अभिनेत्रियां भी कहां कम हैं उर्मिला मातोंडकर एवं काजोल भी छोटे पर्दे पर नजर आ रही हैं. छोटे पर्दे पर भी आना बुरी बात नहीं लेकिन जब आप बड़े पर्दे पर सफलता की शिखर पर बैठे हों तो छोटे पर्दे की तरफ रुख करना ठीक नहीं, इस सबूत तो शाहरुख खान को मिल गया, उसके नए टी

क्रिकेट पर नस्लीय टिप्पणियों का काला साया

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क्रिकेट खेल मैदान अब धीरे धीरे नस्लीय टिप्पणियों का मैदान बनता जा रहा है. आज खेल मैदान में खिलाड़ी खेल भावना नहीं बल्कि प्रतिशोध की भावना से कदम रखता है. वो अपने मकसद में सफल होने पर सम्मान महसूस करने की बजाय अपने विरोधी के आगे सीना तानकर खड़ने में अधिक विश्वास रखता है. यही बात है कि अब क्रिकेट का मैदान नस्लवादी टिप्पणियों के बदलों तले घुट घुटकर मर रहा है. इसके पीछे केवल खिलाड़ी ही दोषी नहीं बल्कि टीम प्रबंधन और बाहर बैठे दर्शक भी जिम्मेदार हैं. अगर टीम प्रबंधन खिलाड़ियों के मैदान में उतरने से पहले बोले कि खेल को खेल भावना से खेलना और नियमों का उल्लंघन करने पर कड़ी सजा होगी तो शायद ही कोई खिलाड़ी ऐसा करें. लेकिन आज रणनीति कुछ और ही है मेरे दोस्तों. आज की रणनीति 'ईंट का जवाब पत्थर' से देने की है. जिसके चलते आए दिन कोई न कोई खिलाड़ी नस्लवादी टिप्पणी का शिकार होता है. यह समस्या केवल भारतीय और आस्ट्रेलियाई खिलाड़ियों की नहीं बल्कि इससे पहले दक्षिण अफ्रीका के खिलाड़ी हर्शल गिब्स ने भी पाकिस्तानी खिलाड़ियों पर टीका टिप्पणी की थी. खेल की बिगड़ती तस्वीर को सुधारने के लिए खेल प्रबंधन को ध्यान