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कागज से बना रावण, कब तक जलाते रहोगे

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कागज से बना रावण, कब तक जलाते रहोगे और कितने दिन खुद को मूर्ख बनाते रहोगे अब छोड़ो यूं पुतले बनाकर जलाने हकीकत में रावण को जलाना सिखो रावण सी हैं कई समस्या देश में सब जोश के साथ उसको मिटाना सिखो यूं झूठी जीत का जश्न कब तक मनाते रहोगे कागज से बना रावण, कब तक जलाते रहोगे गरीब की इच्छा, आजादी, उड़न जहां तक नींद अगवा है मैं अकेला कहता नहीं यारों पूरा देश इसका गवाह है झूठी आजादी का स्वांग कब तक रचाते रहोगे कागज से बना रावण, कब तक जलाते रहोगे शहीदों को तो बस फूल मिले मिली कुर्सी स्वार्थियों को बस वोट बैंक बनाकर रख दिया अपनों और शर्णार्थियों को कब तक आंख मूँदे यूं ही बटन दबाते रहोगे कागज से बना रावण, कब तक जलाते रहोगे

दसमें दिन मां दुर्गा क्यों नहीं

हर बार नवरात्र समाप्त होते ही दसमें दिन श्रीराम एक नायक के रूप में उभरकर सामने आते हैं, और रावण खलनायक के रूप में पेश किया जाता है। विजयदशमी को बुराई पर अच्छाई की जीत के रूप में भी देखा जाता है। मैंने शायद एक दो बार ही रावण को जलते हुए देखा है, शायद एक दफा बठिंडा और एक दफा पिछले साल इंदौर में। आज भी रावण जलेगा, और राम एक नायक के रूप में उभरकर आएंगे, लेकिन पिछले कुछ दिनों से सोच रहा था कि नौ दिन मां के और दसमें दिन नायक बनकर श्रीराम सामने आ जाते हैं। मां दुर्गा को नायक क्यों नहीं बनाया जाता, जिसने नौ दिन तक महिसासुर से युद्ध कर दसमें दिन विजय प्राप्त करते हुए स्वर्ग लोक और अन्य देवी देवताओं को बचाया। महिसासुर के पुतले क्यों नहीं जलाए जाते, क्यों जहां भी महिला के साथ अन्याय होता आ रहा सालों से। क्यों किसी ने आवाज नहीं उठाई। क्यों हर साल रावण को ही जलाया जाता है, क्या मां दुर्गा ने बुराई पर जीत दर्ज नहीं की थी, क्या महिसासुर बुराई का प्रतीक नहीं था। मां के नौ दिन खत्म होते ही पुरुष जाति की अगुवाई करते हुए श्रीराम एक नायक के रूप में उभर आते हैं, मां दुर्गा को क्यों नहीं पेश किया जाता। महिल

शेयर-ओ-शायरी

पिंजरों में बंद परिंदे क्या जाने कि पर क्या होते हैं, कुएं के मेंढ़क क्या जाने यारों समंदर क्या होते हैं, जंगलों में भटकने वाले क्या जाने घर क्या होते हैं, भागती जिन्दगी में अपनों संग वक्त बिताना मुश्किल है, जैसे मंदिर मस्जिद के झगड़े में इंसां बचाना मुश्किल है, मैं मंदिर, मस्जिद और चर्च गया, न जीसस, न अल्लाह और न राम मिला जब निकल बाहर तो इनके नाम पर दंगा फसाद आम मिला

सुधारो, बिगाड़ो न हिन्दी को

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मुझे गुस्सा आता कभी कभी अखबार समूहों के बड़े बड़े ज्ञानियों पर जब वो लिखते हैं कि 'राहुल का स्वयंवर' ! खुद को हिन्दी के सबसे बड़े हितैषी कहते हैं, लेकिन हिन्दी के शब्दों के सही अर्थ देखे बिना ही बस झेपे जा रहे हैं फटे नोटों पर चेपी की तरह। सीता माता ने स्वयंवर रचा था, वो सही था क्योंकि सीता माता ने स्वयं के लिए वर चुना था, जिसको मिलकर एक शब्द बना स्वयंवर मतलब खुद के लिए वर चुनना। अगर उस समय श्री राम स्वयं के लिए वधू चुनते तो क्या तब भी उसको स्वयंवर कहा जाता, कदापि नहीं क्योंकि उस समय के लोगों की हिन्दी आज से कई गुना बेहतर थी, वो स्वयंवधू कहलाता। वर लड़की चुनती है और वधू लड़का। शायद मीडिया राखी का स्वयंवर देख भूल गया कि स्वयंवधू नामक भी कोई शब्द होता है। हां, तब शायद राहुल का स्वयंवर शब्द ठीक लगता, अगर वो भी लड़कों में से ही अपना जीवन साथी चुनते, दोस्ताना फिल्म की तरह। मुझे लगता है कि राहुल को ऐसा ही करना चाहिए, क्योंकि वो लड़की के साथ तो शादी जैसा संबंध निभा नहीं पाए, शायद लड़कों संग चल जाए जिन्दगी की गाड़ी। कभी कभी सोचता हूं कि कि मीडिया वाले भी इस लिए राहुल का स्वयंवर लिख रहे है

पेंटी, बरा और सोच

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कृष्ण जन्माष्टमी के मौके पर रात को मंदिर घूमने का मन हुआ, सब घर से मंदिर के लिए निकले। यह मंदिर इंदौर शहर के बीचोबीच राजवाड़ा में स्थित है। जिस गली में मंदिर है, उस गली में लेडीज अंडरगार्मेंट से लैस बहुत सारी लारियां गली की एक साइड खड़ी होती हैं। पेंटी बरा एवं अन्य सामान लारी वालों ने टंग रखा होता है, ये स्थिति तो आपको कहीं भी दिखाई पड़ सकती है। जब हम वहां से गुजर रहे थे, मेरे साथ सबसे अगले चल रहे मेरे दोस्त ने इनको देखते हुए नजरें नीची कर ली और हंसने लगा। मैंने पूछा क्या हुआ? वो बोला देखो, सालों ने कैसे कपड़े लटकाए हुए हैं। मैंने कहा कि महिलाओं के भीतर पहने वाले कपड़े ही तो हैं, तुम जो अंडर गारमेंट पहनते हो, क्या वो अलग कपड़े से बने होते हैं। वो कहने लगा, मुझे याद आ गया जब मैं और वो यहां से गुजरते थे तो बहुत जल्दी से मैं उसके साथ इधर उधर नजर दौड़ाए बिना यहां से निकल जाता था, था इस लिए लिख रहा हूं अब वो किसी और की होने जा रही है। मैंने उसको कहा कि आज तुम 25 साल के हो गए, लेकिन आज भी तेरी सोच पच्चीस पहले वाले लोगों जैसी है। वो कुछ नहीं बोला, मन ही मन में हंसता हुआ मेरे साथ आगे बढ़ गया। मैंने

जलाल देखा

आज कई दिनों के बाद तेरे चेहरे पे खुशी का जलाल देखा ए बिछोह के सुल्तान फिर तेरे मनांगन को खुशहाल देखा तुम खुश क्या हुए हकीकत में बदलता हुआ ख्याल देखा तेरे चेहरे का नूर देख दुश्मनों के लबों पर आया सवाल देखा लौटी तेरे घर खुशी हैपी ने आँख से कुदरत का कमाल देखा

'अजब प्रेम..' पर टिका संतोषी का भविष्य

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अगर हिन्दी फिल्म जगत के फिल्म निर्देशकों की बात की जाए तो राजकुमार संतोषी का नाम न लिया जाए तो शायद बात अधूरी सी लगेगी। उनकी फ्लॉप फिल्मों ने उनके कैरियर में एक काला अध्याय लिख दिया है, लेकिन फिर भी एक समय था जब राजकुमार संतोषी की फिल्में बॉक्स ऑफिस पर खूब तालियां एवं पैसा बटोरती थी। अब बहुत जल्द राजकुमार संतोषी अपनी अगली फिल्म 'अजब प्रेम की गजब कहानी' लेकर आए रहे हैं, लेकिन मन में सवाल उठता है कि श्री संतोषी जी युवा दर्शकों को संतुष्ट कर पाएंगे ? मेरे दिमाग में ये सवाल इस लिए आया, क्योंकि पिछले साल रिलीज हुई उनकी फिल्म 'हल्ला बोल', उनकी 1993 में रिलीज हुई दामिनी से काफी मिलती जुलती थी। जिसके कारण उनकी ये फिल्म बॉक्स ऑफिस पर ज्यादा समय टिक नहीं पाई, बेशक इस फिल्म में पंकज कपूर के काम को ज्यादा प्रशंसा मिली। संतोषी और देओल परिवार की जोड़ी बॉक्स ऑफिस पर खूब गजब ढाहती थी, लेकिन आजकल दोनों ही परिवार बुरे दौर से गुजर रहे हैं। संतोषी और देओल नाम की युगलबंदी ने हिन्दी फिल्म जगत को घायल, दामिनी, घातक, बरसात जैसी हिट फिल्में दी। इसके बाद संतोषी ने अजय देवगन से हाथ मिला लिया, वो भ

मन तो वो भी मैला करते थे

कल जब दो बातें एहसास की पर लोकेन्द्र विक्रम सिंह जी द्वारा लिखत काव्य ""कागज के जहाज अक्सर उछाला करतें हैं..."" पढ़ रहा था तो अचानक मेरे मन के आंगन में भाव्यों की कलियां खिलने लगी, जिनकी खुशबू मैं ब्लॉग जगत में बिखेरने जा रहा हूं। धूप सेकने के बहाने, गर हम छत्त पे बैठा करते थे, वो भी जान बुझकर यूं ही आंगन में टहला करते थे। हम ही नहीं जनाब, मन तो वो भी मैला करते थे॥ जब जाने अनजाने में नजरें मिला करती थी। दिल में अहसास की कलियां खिला करती थी।। बातों के लिए और कहां हुआ तब एयरटेला* करते थे। हम ही नहीं जनाब, मन तो वो भी मैला करते थे॥ जुबां काँपती, शरीर थर-थर्राता जब पास आते। कुछ कहने की हिम्मत यारों तब कहां से लाते॥ पहले तो बस ऐसे ही हुआ मंजनू लैला करते थे। हम ही नहीं जनाब, मन तो वो भी मैला करते थे॥ गूंगी थी दोनों तरफ मोहब्बत फल न सकी। मैं उसके और वो मेरे सांचों में ढल न सकी॥ पाक थे रिश्ते अफवाह बन हवा में न फैला करते थे। हम ही नहीं जनाब, मन तो वो भी मैला करते थे॥

इंदौर आएंगे क्या खाएंगे-पार्ट 2

सुबह सुबह जब आप उठते हैं तो शायद आपको चाय और घर में बना हुआ कुछ खाने को मिल जाए। पंजाब में तो ज्यादातर स्कूली बच्चों और आफिस जाने वालों को चाय के साथ पराठे मिल जाते हैं नाश्ते के तौर पर। मगर इंदौर में सुबह सुबह पोहा जलेबी मिलता है, खासकर उनको जो इस शहर में घर परिवार के साथ स्थापित नहीं, बाहर से आए हुए हैं। इंदौर के हर कोने पर सुबह सुबह आपको लोग पोहा जलेबी खाते हुए मिलेंगे। जब मैं इस शहर में आया था तो तब मैं भी इसका आदि हो गया था, लेकिन धीरे धीरे दूरी बढ़ती गई। पोहे के साथ जलेबी बहुत स्वाद लगती है, लेकिन हम तो पोहा जलेबी के बाद चाय भी पीते थे, हमारा चाय के बगैर चलता नहीं। सुबह सुबह छप्पन पर लोगों की भीड़ आपको हैरत में डाल सकती है, पलासिया स्थित छप्पन दुकान पर लड़के लड़कियों की युगलबंदी तो आम ही मिल जाती हैं। वैसे कहूं तो इंदौर में छप्पन दुकान का नाम लव प्वाइंट भी रखा जा सकता था। कुछ लोग सुबह सुबह पेट की भूख मिटाने आते हैं और कुछ लोग यहां आंखें सेकने और दिल जलाने आते हैं। छप्पन पर प्रेमी परिंदों के लिए हर चीज उपलब्ध है, साईबर कैफे, मिठाई शॉप, आईक्रीम शॉप, गिफ्ट शॉप, रेस्टोरेंट वगैरह वगैरह। य

इंदौर आएंगे तो क्या खाएंगे ? सोचिए मत

इस शहर ने मुझे बहुत कुछ दिया, लेकिन मैंने शहर को क्या दिया अक्सर सोचता हूं? कल जब मैं राजवाड़ा से निकल रहा था तो मैंने सोचा क्यों न, इस शहर की अच्छी चीजों को इतर की तरह हवा में फैलाया जाए ? क्यों न किसी को बातों ही बातों में कुछ बताया जाए? मुझे इस शहर में आए तीन वर्ष होने वाले हैं, लेकिन अब भी सीने में धड़कते दिल में पंजाब ही धड़कता है, उस मिट्टी की खुशबू को मैं आज भी महसूस कर सकता हूं पहले की भांति, लेकिन बुजुर्गों ने कहा है कि जहां का खाईए, वहां का गाईए। इस लिए मैं इस शहर का भी थोड़ा सा कर्ज उतार रहा हूं। इंदौर मध्यप्रदेश की कारोबारिक राजधानी कहलाता शहर है, इसके दिल में बसता है राजवाड़ा, जहां पर आपको सूई से लेकर जहाज तक मिल जाएगा। जहां पर आप वो बड़े जहाज को भूलकर बच्चों वाला जहाज समझिए बेहतर होगा। जब भी मैं इस बाजार में आता हूं तो सबसे पहले या सबसे बाद में सराफा बाजार जाना नहीं भूलता, सराफा बाजार में जहां दिन के वक्त सोना चांदी बिकता है तो शाम को आपको तरह तरह के व्यंजनों का स्वाद चखने को मिलता है, एक इंदौर में यही स्थान है जो देर रात तक आपको खुला मिलेगा। यहां स्थित एक दुकान पर जाना नहीं

वो निकलती थी...

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वो निकला करती थी पेड़ों की छाया में, मैं भी मिला करता था पेड़ों की छाया में, अच्छा लगता था, उसका बल खाकर चलना पेड़ों की छाया में, बुरा लगता था विछड़ना और दिन डलना पेड़ों की छाया में, बहुत अच्छा लगता था, खेतों, खलियानों को चीरते हुए मेरे गांव तलक उसका आना पेड़ों की छाया में, पहली मुलाकात सा लगता था, कड़कती धूप में घर से निकलकर उसके आगोश में जाना पेड़ों की छाया में, याद है मुझे आज भी इस नहर में डुबकी लगाना पेड़ों की छाया में,

लहू के धब्बे बनते हैं 'कुमारित्व' के गवाह

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पिछले महीने अफगानिस्तान की ओर से खबर आई थी कि अगर पति की सैक्स भूख को एक पत्नी शांत नहीं करती तो उसको भूखे पेट रहना पड़ सकता है, लेकिन कुछ दिन पहले एक ऐसी ही मन को झिंझोड़कर रख देने वाली एक और खबर पढ़ने को मिली। यहां की महिलाओं के लिए शादी के बाद की पहली रात सुहागरात नहीं बल्कि इम्तिहान की रात होती है, अगर इम्तिहान में असफल हुई तो बदले में मिलेगा तलाक। जी हां, पामीर की खूबसूरत पहाड़ियों की कोख में बसे ताजिकिस्तान की खूबसूरत महिलाओं को एक कड़े इम्तिहान से गुजरना पड़ता है, क्योंकि आज भी वहां के मर्दों की सोच पर वो ही पुरानी कबिलाई मानस्किता हावी है। वो आज भी चादर पर खून के धब्बे देखकर महिला की कौमार्य या कुमारित्व का पता लगाते हैं, अगर वो असफल हुई तो वो अगली सुबह शादीशुदा नहीं बल्कि तलाकशुदा कहलाएगी। रूस यात्रा पर गई प्रतिभा पाटिल के साथ यात्रा कर रहे नई दुनिया के स्थानीय संपादक जयदीप कार्णिक की 8 सितम्बर को प्रकाशित हुई रिपोर्ट कुछ ऐसा ही खुलासा करती है। जहां ताजिकीस्तान की महिलाओं को इस इम्तिहान से गुजरना पड़ता है, वहीं दूसरी तरफ हॉलीवुड की सुंदरी मैगन फॉक्स बड़े बिंदास ढंग से कहती है कि

हड़ताल - काव्य

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क्यों जी खाली हाथ आ रहे हो, क्या बताउं भाग्यवान जब बस स्टेंड पहुंचा तो पता चला, बस वालों की हड़ताल है। पैदल पैदल बैंक पहुंचा तो पता चला कि बैंक वालों की हड़ताल है। अपने गांव वाले बंते से पकड़े कुछ पैसे उधार मैंने लेकिन जब दुकान पहुंचा तो जाना कि दुकानदारों की हड़ताल है। बस ठोकरें खाकर खाली हाथ लौट आया, चलो, तुम एक कप चाय तो पिला दो। कहां से बनाउं जी, दूध गिरा दिया बच्चों ने, सुबह से चाय की हड़ताल है।

मेरी मौत की खबर

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मैं शिकार हो गया अपनों के ही धोखे का, न करें इंतजार वो अब किसी मौके का, मेरी मौत के चश्मदीदों, एक फजल कर दो मेरे दुश्मनों को मेरी मौत की खबर कर दो रुक गई सांस और शब्दों का कारवां मैं धोखों की आंधी में हो गया फनां मेरी मौत के चश्मदीदों, एक फजल कर दो मेरे दुश्मनों को मेरी मौत की खबर कर दो वक्त की साजिश, हुआ एक बड़ा हादसा पल में रेत हो गया 'हसरतों का बादशाह' मेरी मौत के चश्मदीदों, एक फजल कर दो मेरे दुश्मनों को मेरी मौत की खबर कर दो दुश्मन न मार सके, बस एक तन्हाई ने मारा जान ली उसने, जो था हैप्पी जान से प्यारा मेरी मौत के चश्मदीदों, एक फजल कर दो मेरे दुश्मनों को मेरी मौत की खबर कर दो

आओ कप्म्यूटर के नोटपैड पर लिखें अपनी भाषा

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अगर मेरी आज की पोस्ट आपके काम आ सकी तो, इस को आगे भी बढ़ा देना, चाहिए अपने ही ब्लॉग पर अपने ही नाम से। मेरा तो मक्सद सबको सुविधा देना है। इसके लिए आप सब का शुक्रिया होगा। start से चलकर setting पर पहुंचे और वहां से control panel में प्रवेश करें। इसके बाद यहां पर regional and language options पर क्लिक करें। आपके सामने तस्वीर में दिखाया हुआ एक बॉक्स खुलेगा। अब इस बॉक्स पर लिखे languages टैब पर क्लिक करें। यहां पर आपको supplemental language support लिखा दिखाई दे रहा होगा। इसके तले आपको टिक करने के लिए दो ऑप्शन दिखाई दे रहें होंगे। अगर मैं ठीक जा रहा हूं तो आप पहले वाले पर क्लिक करें। बॉक्स के अंत में आपको ok cancel apply तीन ऑप्शन नजर आ रहे होंगे। apply बटन को दबाने से पहले आप अपने कम्प्यूटर में xp की सीडी डालिए, क्योंकि अब आपका कम्प्यूटर एक फाइल मांगेगा। वो आपकी एक्सपी की सीडी में है। कहीं आप बोर तो नहीं हो रहे, अगर हो रहे हैं तो मुझे माफ करें। अब आप यहां क्लिक कर हिन्दी , पंजाबी , गुजराती एवं अन्य भाषाओं की आईएमई download करें। इस क्रिया के खत्म होते ही आप उस साफ्टफेयर को अपने कम

मौन थी, माँ

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आँख मलते हुए उठा वो बिस्तर से रोज की तरह और उठाया हठों तक लाया चाय की प्याली को हैरत में पड़ा, देख उस अध-खाली को मां के पास गया और बोला आज चाय इतनी कम क्यों है तू चुप, और तेरी आंख नम क्यों है फिर भी चुप थी, मौन थी, माँ एक पत्थर की तरह वो फिर दुहराया मां चाय कम क्यों है तेरी आंख नम क्यों है फिर भी न टूटी लबों की चुप कैसे टूटती चुप ताले अलीगढ़ के गोरमिंट ने लगा जो दिए मौन होंगी अब कई माँएं शक्कर दूध के भाव बढ़ा जो दिए

औरत

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दुख-सुख, उतार-चढाव देखे सीता बन हर तरह की जिन्दगी जी है औरत ने। कभी सुनीता तो कभी कल्पना बन जमीं से आसमां की सैर की है औरत ने।। बन झांसी की रानी लड़ी जांबाजों की तरह जंग औरत ने। कभी मदर टैरेसा बन भरे औरों के जीवन में रंग औरत ने॥ बेटी, बहू और मां बन ना-जाने कितने रिश्ते निभाए औरत ने। परिवार की खुशी के लिए आपने अरमानों के गले दबाए औरत ने॥ जिन्दगी के कई फलसफे ए दुनिया वालों पढ़ी है औरत। फिर भी न जाने क्यों चुप, उदास, लाचार खड़ी है औरत॥ मीरा, राधा और इन्हें जब जनी है औरत। फिर क्यों औरत की दुश्मन बनी है औरत॥

सवाल

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बादलों की तरह घूमते हैं सवाल ध्वनि की तरह गूंजते हैं सवाल पता नहीं आए कहां से कब सवाल मुमकिन नहीं, समझे हम सब सवाल रास्तों की तरह जुदा होते हैं सवाल हम को कहां से कहां ढोते हैं सवाल एक तूफान  की तरह आते हैं सवाल फिर कहीं गुम हो जाते हैं सब सवाल कभी कभी रास्ता दिखाते हैं सवाल कभी कभी कमजोर बनाते हैं सवाल मन की उपज है या दिमाग की न जाने कहां से ये आते हैं सवाल

आखिर हट गई सोच से रोक

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गुजरात हाईकोर्ट ने जो फैसला जसवंत की किताब को लेकर सुनाया, वो बहुत सारे लेखकों के लिए एक खुशी की बात है, विशेषकर जसवंत सिंह के लिए। अगर गुजरात सरकार द्वारा लगाया गया प्रतिबंध न हटता तो हमको मिले अभिवक्ति के अधिकार का उल्लंघन होता। अपनी बात कहने का लोकतंत्र जब हमें मौका देता है तो उस पर रोक क्यों लगाई जाए? इतना ही नहीं गुजरात सरकार ने तो मूर्खतापूर्ण काम किया था, किताब को पढ़ने के बाद अगर प्रतिबंध लगता तो समझ में आता, लेकिन किताब को बिना पढ़े प्रतिबंध। आखिर कहां की समझदारी है? किताब रिलीज हुई, मीडिया ने बात का बतंगड़ बना दिया, उधर शिमला से हुक्म जारी होते ही इधर गुजरात सरकार ने किताब पर बैन लगा दिया गया वो भी बिना पढ़े। जिन्होंने किताब पढ़ी सबने एक बात कही कि किताब में नया कुछ नहीं था, चाहे अरुण शौरी हो, या फिर हिन्दी में जिन्ना पर पहली किताब लिखने वाला श्री बरनवाल हो। प्रसिद्ध लेखक वेदप्रताप वैदिक तो यहां तक कहते हैं कि किताब में केवल पटेल का नाम सिर्फ छ: बार आया, और किसी भी जगह पटेल को नीचा नहीं दिखाया गया। जिस बात का रोना रोकर गुजरात सरकार ने किताब पर बैन लगाया था। अरुण शौरी ने इंडिय

तेरा मेरा रिश्ता

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मैं प्यासा हूं, तू नदिया है मैं भँवरा हूं, तू बगिया है तेरा मेरा रिश्ता सदियों पुराना तेरा पता नहीं, मैंने तो ये माना मैं हूं काव्य, तो तू कवि है मैं हूं सुबह अगर तू रवि है मैं कैदी हूं तो तू ही तहखाना तेरा मेरा रिश्ता सदियों पुराना तेरा पता नहीं, मैंने तो माना मैं मुसाफिर तू रस्ता*1 है मैं किताबें तू बस्ता है मेरी आदत बस तुझमें समाना तेरा मेरा रिश्ता सदियों पुराना तेरा पता नहीं, मैंने तो माना पिंजर हूं मैं और जान है तू रिश्ते से क्यों अंजान है तू राग अगर मैं तू ही तराना तेरा मेरा रिश्ता सदियों पुराना तेरा पता नहीं, मैंने तो माना 1.रास्ता

'शब्द'

अंगीठी में कोयलों से जलते शब्द। आंखों में खाबों से मचलते शब्द।। दिल में अरमानों से पलते शब्द। समय के साँचों में ढलते शब्द।। पकड़, कोरे कागद पे उतार लेता हूं मैं फिर हौले हौले इन्हें संवार लेता हूं मैं प्यारी मां के लाड़ प्यार से शब्द। पिता की डाँट फटकार से शब्द ।। बचपन के लंगोटिए यार से शब्द। बहन भाई और रिश्तेदार से शब्द॥ पकड़, कोरे कागद पे उतार लेता हूं मैं फिर हौले हौले इन्हें संवार लेता हूं मैं मेरे जैसे यार कुछ बदनाम से शब्द।। पौष की धूप, जेठ की शाम से शब्द। करें पवित्र जुबां को तेरे नाम से शब्द। अल्लाह, वाहेगुरू और राम से शब्द॥ पकड़, कोरे कागद पे उतार लेता हूं मैं फिर हौले हौले इन्हें संवार लेता हूं मैं

एक ब्लॉगर कहत सब लेखक होए

एक ब्लॉगर कहत सब लेखक होए। और ब्लॉगर पाठक बचा न कोए।। तब मोहे मुंह से कुछ ऐसे वचन होए। पाठक ही पाठक यहां, बस तुम ही सोए॥ तुम न जावत घर किसी के तो तोरे घर कौन आए। माना तुम उच्चकोटि के घमुंडवा तो किसी न भाए॥ अपने घरीं सब राजा, रंक न कोए। सब जावत वहीं, जहां इज्जत होए॥ टिप्पणी नहीं आई तो का हुआ। पसंद नहीं चटकाई तो का हुआ॥ वो दर हमार आए तो सही। ले कर प्यार आए तो सही॥

लिखता हूं

न गजल लिखता हूं, न गीत लिखता हूं। बस शब्दों से आज औ' अतीत लिखता हूं॥ होती है पल पल, वो ही हलचल लिखता हूं। गमगीन कभी, कभी खुशनुमा पल लिखता हूं।। मैं तो शब्दों में बस हाल-ए-दिल लिखता हूं। आए जिन्दगी में पल जो मुश्किल लिखता हूं॥ बिखरे शब्दों को जोड़, न जाने मैं क्या लिखता हूं। लगता है कि खुद के लिए दर्द-ए-दवा लिखता हूं ॥ कभी सोचता हूं, क्यों मैं किस लिए लिखता हूं। मिला नहीं जवाब, लगे शायद इसलिए लिखता हूं॥ शब्दों का कारवां