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अंक तालिका से परे जिन्दगी, जरा देखें

कुलवंत हैप्पी, गुड ईवनिंग   समाचार पत्र कॉलम इंदौर शहर के एक मार्ग किनारे लगे होर्डिंग पर लिखा पढ़ा था, जिन्दगी सफर है, दौड़ नहीं, धीरे चलो, लेकिन बढ़ती लालसाओं व प्रतिस्पर्धाओं ने जिन्दगी को सफर से दौड़ बनाकर रख दिया। हर कोई आगे निकलने की होड़ में जुटा हुआ है, इस होड़ ने रिश्तों को केवल औपचारिकता बनाकर रख दिया, मतलब रिश्ते हैं, इनको निभाना, चाहे कैसे भी निभाएं। रिश्तों के मेले में सबसे अहम रिश्ता होता है मां पिता व बच्चों का, लेकिन यह रिश्ता भी प्रतिस्पर्धावादी युग में केवल एक औपचारिकता बनकर रह गया है। अभिभावक बच्चों को अच्छे स्कूल में डालते हैं ताकि उनके बच्चे अच्छी शिक्षा ले सके, उनको अच्छे स्कूल में पढ़ाने के लिए अच्छे पैसों की जरूरत होती है, जिसके लिए ब्‍लॉक की सूईयों की तरह मां बाप चलते हैं, और पैसा कमाते हैं। उनको रूकने का समय नहीं, वह सोचते हैं बच्चों को अच्छे स्कूल में डाल दिया, दो वक्त की रोटी दे दी, और उनकी जिम्‍मेदारी खत्म हो गई। अच्छे स्कूल में डालते ही बच्चों को अच्छे नतीजों लाने के लिए दबाव डाला जाता है, बिना बच्चे की समीक्षा किए। बच्चे भी अभिभावकों की तरह

बच्चों को दोष देने से बेहतर होगा उनके मार्गदर्शक बने

कुलवंत हैप्पी/ गुड ईवनिंग सेक्‍स एजुकेशन को शिक्षा प्रणाली का हिस्सा बनाया जाए, का जब भी मुद्दा उठता है तो कुछ रूढ़िवादी लोग इसके विरोध में खड़े हो जाते हैं, उनके अपने तर्क होते हैं, लागू करवाने की बात करने वालों के अपने तर्क। इसमें भी कोई दो राय नहीं कि इस मुद्दे पर सहमति बन पानी मुश्किल है। मुश्किल ही नहीं, असंभव लगती है। आज के समाज में जो घटित हो रहा है, उसको देखते हुए सेक्‍स एजुकेशन बहुत जरूरी है, लेकिन यह जरूरी नहीं कि इसको शिक्षा प्रणाली का ही हिस्सा बनाया जाए। इसको लागू करने के और भी विकल्प हो सकते हैं, जिन पर विचार किया जाना अति जरूरी है। अब तक समाज दमन से व्यक्‍ति की सेक्‍स इच्छा को दबाता आया है, लेकिन अब सब को बराबर का अधिकार मिल गया, लड़कियों को घर से बाहर कदम रखने का अधिकार। ऐसे में जरूरी हो गया है कि बच्चों को उनको अन्य अधिकारों के बारे में भी सजग किया जाए, और आज के युग में यह हमारी जिम्मेदारी भी बनती है, ताकि वह कहीं भी रहे, हम को चिंता न हो। वह जिन्दगी में हर कदम सोच समझ कर उठाएं। आए दिन हम अखबारों में पढ़ते हैं कि एक नाबालिगा एक व्यक्‍ति के साथ भाग गई। आखिर दोष किसका, बहका

पति से त्रसद महिलाएं न जाएं सात खून माफ

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सात खून माफ फ‍िल्‍म से पूर्व मैंने फ‍िल्‍म निर्देशक विशाल भारद्वाज की शायद अब तक कोई फ‍िल्‍म नहीं देखी, लेकिन फ‍िल्‍म समीक्षकों की समीक्षाएं अक्‍सर पढ़ी हैं, जो विशाल भारद्वाज की पीठ थपथपाती हुई ही मिली हैं। इस वजह से सात खून माफ देखने की उत्‍सुकता बनी, लेकिन मुझे इसमें कुछ खास बात नजर नहीं आई, कोई शक नहीं कि मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक फ‍िल्‍म ने बॉक्‍स आफि‍स पर अच्‍छी कमाई की, फि‍ल्‍म कमाई करती भी क्‍यों न, आख‍िर सेक्‍स भरपूर फ‍िल्‍म जो ठहरी, ऐसी फ‍िल्‍म कोई घर लाकर कॉमन रूम में बैठकर देखने की बजाय सिनेमा घर जाकर देखना पसंद करेगा। मेरी दृष्टि से तो फ‍िल्‍म पूरी तरह निराश करती है, मैंने समाचार पत्रों में रस्‍किन बांड को पढ़ा है, और उनका फैन भी बन गया, मुझे नहीं लगता उनकी कहानी इतनी बोर करती होगी। कुछ फ‍िल्‍म समीक्षक लिख रहे हैं कि फ‍िल्‍म बेहतरीन है, लेकिन कौन से पक्ष से बेहतरीन है, अभिनय के पक्ष से, अगर वो हां कहते हैं तो मैं कहता हूं एक कलाकार का नाम बताए, जिसको अभिनय करने का मौका मिला।  अगर निर्देशन पक्ष की बात की जाए, जिसके कारण फ‍िल्‍म की सफलता का श्रेय विशाल भारद्वाज को जाता है, ल

जनाक्रोश से भी बेहतर हैं विकल्प, देश बदलने के

कुलवंत हैप्पी / गुड ईवनिंग/ समाचार पत्र कॉलम हिन्दुस्तान में बदलाव के समर्थकों की निगाहें इन दिनों अरब जगत में चल रहे विद्रोह प्रदर्शनों पर टिकी हुई हैं एवं कुछ लोग सोच रहे हैं कि हिन्दुस्तान में भी इस तरह के हालात बन सकते हैं और बदलाव हो सकता, लेकिन इस दौरान सोचने वाली बात तो यह है कि हिन्दुस्तान में तो पिछले छह दशकों से लोकतंत्र की बहाली हो चुकी है, यहां कोई तानाशाह गद्दी पर सालों से बिराजमान नहीं। वो बात जुदा है कि यहां लोकतांत्रिक सरकार होने के बावजूद भी देश में भूखमरी, बेरोजगारी व भ्रष्टाचार अपनी सीमाएं लांघता चला जा रहा है। इसके लिए जितनी हिन्दुस्तान की सरकार जिम्मेदार है, उससे कई गुणा ज्‍यादा तो आम जनता जिम्मेदार है, जो चुनावों में अपने मत अधिकार का इस्तेमाल करते वक्‍त पिछले दशकों की समीक्षा करना भूल जाती है। कुछ पैसों व अपने हित के कार्य सिद्ध करने के बदले वोट देती है। देश में जब जब चुनावों का वत नजदीक आता है नेता घर घर में पहुंचते हैं, लेकिन इन नेताओं की अगुवाई कौन करता है, हमीं तो करते हैं, या कहें हमीं में से कुछ लोग करते हैं, या जो समस्याएं हमें दरपेश आ रही ह

मनप्रीत की जनसभाएं व आमजन

कुलवंत हैप्पी /  गुड ईवनिंग/ समाचार पत्र कॉलम 'ए खाकनशीनों उठ बैठो, वो वत करीब आ पहुंचा है, जब तख्त उछाले जाएंगे, तब ताज गिराए जाएंगे' विश्व प्रसिद्ध शायर फैज अहमद फैज की कलम से निकली यह पंतियां, गत दिनों स्थानीय टीचर्ज होम के हाल में तब सुनाई दी, जब जागो पंजाब यात्रा के दौरान राद्गय में इंकलाब लाने की बात कर रहे राज्‍य के पूर्व वित्‍त मंत्री मनप्रीत सिंह बादल एक जन रैली को संबोधन कर रहे थे। फैज की कलम से निकली इस पंति को कहते वत मनप्रीत को जद्दोजहद करना पड़ रहा था अपने थक व पक चुके गले से, जो पिछले कई महीनों से राद्गय की जनता को इंकलाब लाने के लिए लामबंद करने हेतु आवाज बुलंद कर रहा है। गले के दर्द को भूल मनप्रीत इस रचना की एक अन्य पंति 'अब टूट गिरेंगी जंजीरें, अब जैदांनों की खैर नहीं, जो दरिया झूम के उठे हैं, तिनकों से न टाले जाएंगे' को पढ़ते हुए पूरे इंकलाबी रंग में विलीन होने नजर आए। उनके संबोधन में उसकी अंर्तात्मा से निकलने वाली आवाज का अहसास मौजूद था, यही अहसास लोगों को इंकलाब लाने के लिए लामबंद करने में अहम रोल अदा करता है। इसमें भी कोई दो राय नहीं होनी चाहिए, जब