संदेश

कुछ टुकड़े शब्दों के

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(1) तेरे नेक इरादों के आगे, सिर झुकाना नहीं पड़ता खुद ब खुद झुकता है ए मेरे खुदा। (2) मेरे शब्द तो अक्सर काले थे, बिल्कुल कौए जैसे, फिर भी उन्होंने कई रंग निकाल लिए। (3) कहीं जलते चिराग-ए-घी तो कहीं तेल को तरसते दीए देखे। (4) एक बार कहा था तेरे हाथों की लकीरों में नाम नहीं मेरा, याद है मुझे आज भी, लहू से लथपथ वो हाथ तेरा (5) पहले पहल लगा, मैंने अपना हारा दिल, फिर देखा, बदले में मिला प्यारा दिल। (6) दामन बचाकर रखना जवानी में इश्क की आग से घर को आग लगी है अक्सर घर के चिराग से कह गया एक अजनबी राहगीर चलते चलते लक्ष्य पर रख निगाह एकलव्य की तरह जो भी कर अच्छा कर एक कर्तव्य की तरह कह गया एक अजनबी राहगीर चलते चलते जितनी चादर पैर उतने पसारो, मुँह दूसरी की थाली में न मारो  कह गया एक अजनबी राहगीर चलते चलते कबर खोद किसी ओर के लिए वक्त अपना जाया न कर कहना है काम जमाने का, बात हर मन को लगाया न कर कह गया एक अजनबी राहगीर चलते चलते आ भार

आओ चलें आनंद की ओर

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हिन्दुस्तान में एक परंपरा सदियों से चली आ रही है, बचपन खेल कूद में निकल जाता, और जवानी मस्त मौला माहौल के साथ। कुछ साल परिवार के लिए पैसा कमाने में, अंतिम में दिनों में पूजा पाठ करना शुरू हो जाता है, आत्मशांति के लिए। हम सारी उम्र निकाल देते हैं, आत्म को रौंदने में और अंत सालों में हम उस आत्म में शांति का वास करवाना चाहते हैं, कभी टूटे हुए, कूचले हुए फूल खुशबू देते हैं, कभी नहीं। टूटे हुए फूल को फेवीक्विक लगाकर एक पौधे के साथ जोड़ने की कोशिश मुझे तो व्यर्थ लगती है, शायद किसी को लगता हो कि वो फूल जीवित हो जाएगा। और दूसरी बात। हमने बुढ़ापे को अंतिम समय को मान लिया, जबकि मौत आने का तो कोई समय ही नहीं, मौत कभी उम्र नहीं देखती। जब हम बुढ़ापे तक पहुंच जाते हैं, तब हमें क्यों लगने लगता है हम मरने वाले हैं, इस भय से हम क्यों ग्रस्त हो जाते हैं। क्या हमने किसी को जवानी में मरते हुए नहीं देखा? क्या कभी हमने नवजात को दम तोड़ते हुए नहीं देखा? क्या कभी हमने किशोरावस्था में किसी को शमशान जाते हुए नहीं देखा? फिर ऐसा क्यों सोचते हैं  कि बुढ़ापा अंतिम समय है, मैंने तो लोगों को 150 वर्ष से भी ज्यादा जीते हुए

और खुद को जाना

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भी ड़ से निकल, शोर-गुल से दूर हो, जिम्मेदारियों को अलहदा कर खुद से रात को चुपके से, नींद के ताबूत में अपने आपको रख हर रात की तरह गहरी नींद में सोई आँखों के बंद दरवाजे पर ठक ठक हुई, स्वप्न बन आया कोई पकड़ हाथ मेरा  मुझे उठाकर ले गया साथ अपने वहाँ, देखती थी रोज जिसके सपने मेरे सूखे, मुरझाए ओंठों पर घिस डाला तोड़कर गुलाब उसने गालों पर लगा दिया हल्का सा स्पर्श का गुलाल उसने चुपके से खोल दिए बाल उसने फिर गुम हो गया, मैं झूमने को तैयार थी बाँहें हवा में लहराने को बे-करार थी शायद सुनी हवाओं ने दिल की बात या फिर वो हवा बन बहने लगा पता नहीं मीठी मीठी पवन चलने लगी जुल्फें उड़ने लगी बाँहें खुद ब खुद तनने लगी, मन का बगीचा खिल उठा, बाहर के बगीचे की तरह आनंद के भँवर आने लगे गीत गुनगुनाने लगे पैर थिरकने लगे, मैं पगलाने लगी तितलियों के संग उड़ते, मस्त हवाओं, झूमते पौधों के साथ झूमते हुए गुनगुनाने लगी हर तरफ आनंद ही आनंद जिसकी तलाश थी पल पल भूल गई, कौन हूँ, किसी दुनिया से आई हूँ, बस ऐसा लगा, कुदरत ने इसके लिए बनाई हूँ, जो हूँ, वो ही बनना था मुझे, देर से समझ पाई हूँ, क

वो रोज मरती रही

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क र कर सवाल खुद से वो रोज मरती रही, अपने दर्द को शब्दों के बर्तन भरती रही, कुछ लोग आए कहकर कलाकारी चले गए और वो बूंद बूंद बन बर्तन के इस पार झरती रही। खुशियाँ खड़ी थी दो कदम दूर, लेकिन दर्द के पर्दे ने आँखें खुलने न दी वो मंजिल के पास पहुंच हौंसला हरती रही। उसने दर्द को साथी बना लिया, सुखों को देख, कर दिए दरवाजे बंद फिर सिकवे दीवारों से करती रही। रोज चढ़ता सूर्य उसके आंगन, लेकिन अंधेरे से कर बैठी दोस्ती वो पगली रोशनी से डरती रही। इक दिन गली उसकी, आया खुशियों का बनजारा, बजाए इक तारा, गाए प्यारा प्यारा, बाहर जो ढूँढे तू पगली, वो भीतर तेरे, कृष्ण तेरा भीतर मीरा, बैठा लगाए डेरे, सुन गीत फकीर बनजारे का, ऐसी लगन लगी, रहने खुद में वो मगन लगी देखते देखते दिन बदले, रात भी सुबह हो चली, हर पल खुशनुमा हो गया, दर्द कहीं खुशियों की भीड़ में खो गया। कई दिनों बाद फिर लौटा बनजारा, लिए हाथ में इक तारा, सुन धुन तारे की, मस्त हुई, उसके बाद न खुशी की सुबह कभी अस्त हुई। आ भार

हैप्पी अभिनंदन में वृंदा गांधी

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है प्पी अभिनंदन में आज मैं आपको जिस ब्लॉगर हस्ती से रूबरू करवाने जा रहा हूँ, उसको ब्लॉग जगत में आए भले ही थोड़ा समय हुआ हो, लेकिन वो हस्ती जिस सोच और जिस ऊर्जा के साथ ब्लॉगिंग की दुनिया में आई है, उसको देखने के बाद नहीं लगता कि वो लम्बी रेस का घोड़ा नहीं। उसके भीतर कुछ अलग कुछ अहलदा करने की ललक है, वो आससान को छूना चाहती है, लेकिन अपने बल पर, शॉर्टकट उसको बिल्कुल पसंद नहीं। वो जहाँ एक तरफ पटियाला यूनिवर्सिटी से पत्रकारिता की पढ़ाई कर रही है, वहीं दूसरी तरफ ब्लॉगिंग की दुनिया में अपने लेखन का लोहा मनवाने के लिए उतर चुकी है। पत्रकारिता और ब्लॉगिंग से रूबरू हो चुकी वृंदा गांधी आखिर सोचती क्या हैं ब्लॉग जगत और बाहरी जगत के बारे में आओ जानते हैं उन्हीं की जुबानी :- कुलवंत हैप्पी : आप ब्लॉग जगत में कैसे आए, और आपको यहाँ आकर कैसा लग रहा है? वृंदा गांधी : कुछ समय पहले तक ब्लॉग मेरे लिए एक स्वप्न था क्योंकि इसके बारे में अधिक जानकारी नहीं थी। मेरा यह स्वप्न हकीकत में तब्दील हुआ, जब में अपनी ट्रेनिंग जनसत्ता समाचार-पत्र में करने गई। वहाँ सबके ब्लॉग देख एक इच्छा जागृत हुई और अरविन्द शेष जो वहाँ