संदेश

संघर्ष का दूसरा नाम 'अक्षय'

'कौन कहता है आसमान में सुराख नहीं, एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारो' यह पंक्ति उस वक्त बिल्कुल हकीकत नजर आती है, जब हम पिछले साल चार हिट फिल्में देकर सफलता की शिख़र पर बैठने वाले अक्षय कुमार की जिन्दगी में झाँकते हैं. आज अक्षय कुमार का नाम सफलतम सितारों में शुमार हो गया, हर किसी को उसका हर लुक भा रहा है, चाहे वो एक्शन हो, चाहे रोमांटिक या चाहे कामेडी. आज दर्शक उसकी सफलता देखकर वाह अक्षय वाह कह रहे हैं, मगर ज्यादातर दर्शकों को अक्षय के संघर्षशील दौर के बारे में पता नहीं, हां मगर, जिनको पता है वो अक्षय को संघर्ष का दूसरा नाम मानते हैं. गौरतलब है कि होटलों, ट्रेवल एजेंसी व आभूषण बेचने जैसे धंधों में किस्मत आजमाने वाले राजीव भाटिया ने बच्चों को मार्शल आर्ट भी सिखाया. इसी संघर्ष के दौर में उनको मॉडलिंग करने का ऑफर मिला. जिसके बाद दिल्ली के चांदनी चौक में रहने वाला राजीव भाटिया अक्षय कुमार के रूप में ढल गया और बड़े पर्दे पर अपनी अदाकारी के जलवे दिखाने लगा. अक्षय कुमार ने फिल्म 'सौगंध' के मार्फत बालीवुड में कदम रखा, उसके बाद खिलाड़ी, सैनिक, मोहरा, हम हैं बेमिसाल, वक्त हमारा ह

पता नहीं

कब दिन, महीने साल गुजरे पता नहीं, कैसे और किस हाल गुजरे पता नहीं, कितना कुछ खो दिया कितना पा लिया पता नहीं, कब घर छोड़ा, अपने छोड़े और परदेस में काम से मन लगा लिया पता नहीं जिसे समझे रोशने साधन उसी दीये से कब घर जला लिया पता नहीं सूर्यादय और अस्त होता देखे कितने दिन हुए पता नहीं कितने मिलकर बिछड़े और कितने दोस्तों में गिन हुए पता नहीं कब खत्म होगा सफर ये अलबेला पता नहीं कब देखूंगा वो गलियां, वो अपनों का मेला पता नहीं

तुम तो....

तुम तो दूर चली गई लेकिन मैं तो आज भी वहीं हूं उन्हीं गलियों में, उन्हीं बगीचों में, जहां कभी हम तुम एक साथ चला करते थे/ हवाहवा दे जाती है पुरानी यादों को/ हां,आंख भर जाती है याद कर वादों को// चुप हो जाता हूं, जब पूछते हैं नदियां के किनारे/ कहां गए नजर नहीं आते तुम्हारे जानशीं जान से प्यारे// मैं खामोश हूं, तुम ही बताओ क्या जवाब दूं/ मुझे तांकता है किसको तोड़कर वो गुलाब दूं// तुम्हें देखता था जहां से, आज उसी छत पर जाने से डरता हूं/ तुम न जानो, मैं किस तरह प्यार के गवाह सितारों का सामना करता हूं// हँसने नहीं देती याद तेरी रोने पर जमाना सौ सवाल करता है/ अब जाना, तुम से दूर होकर बिरहा कितना बुरा हाल करता है//

छंटनी की सुनामी

छंटनी की सुनामी हमारे पड़ोस में रहने वाले नंबरदार के कुत्ते जैसी है, जो चुपके से राहगीर की टांग को पीछे से आकर पकड़ लेता है, जिसके बाद राहगीर की एक नहीं चलती, बस फिर इलाज के लिए टीके पर टीके लगवाने पड़ते हैं. एक डेढ़ सौ साल पुरानी बैंक लेहमन ब्रदर से शुरू ही छंटनी की सुनामी, अब तक दुनिया भर के लाखों लोगों को आपना शिकार बना चुकी है एवं करोड़ों लोग घर से दुआ करते हुए काम पर निकलते हैं, हे भगवान! उनको छंटनी की सुनामी से बचाकर रखना, क्योंकि नौकरी के अलावा उनके पास अन्य कमाई का कोई साधन नहीं.छंटनी वो सुनामी है जो अब तक करोड़ों लोगों के सपनों को रौंद चुकी है और लगातार अपना कहर बरपा रही है. कुछ दिन पहले मैं एक बड़ी कंपनी में काम करने वाले अपने एक दोस्त से मिला था, जो काम पर महीने में से केवल दस बारह दिन ही दिखाई पड़ता था, इसलिए मैंने व्यंग कसते हुए कहा कि क्या बात है, जनाब आपकी तो ऐश है, आपकी कंपनी बड़ी दियालु है, जो आपको इतने दिन की छुट्टी प्रदान कर देती है. तो उसने कहा कि उसके परिवार में कुछ ऐसे घटनाक्रम लगातार हो रहे थे, जिसके कारण उसको बार बार घर जाना पड़ रहा था. फिर उसने बड़े जोश और उल्लास के साथ क

क्या ये आतंकवाद से गंभीर विषय नहीं ?

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पिछले दिनों मुम्बई में हुए आतंकवादी हमले का विरोध तो हर तरफ हो रहा है, क्योंकि उस हमले की गूंज दूर तक सुनाई दी, लेकिन हर दिन देश में 336 आत्महत्याएं होती हैं, उसके खिला फ तो कोई विरोध दर्ज नहीं करवाता और सरकार के नुमाइंदे अपने पद से नैतिकता के आधार पर त्याग पत्र नहीं देते. ऐसा क्यों ? क्या वो देश के नागरिक नहीं, जो सरकार की लोक विरोधियों नीतियों से तंग आकर अपनी जान गंवा देते हैं. आपको याद हो तो मुम्बई आतंकवादी हमले ने तो 56 घंटों 196 जानें ली, लेकिन सरकार की लोक विरोधी नीतियां तो हर एक घंटे में 14 लोगों को डंस लेती हैं, अगर देखा जाए तो 24 घंटों में 336 लोग अपनी जीवन लीला समाप्त कर लेते हैं. मगर कभी सरकार ने इन आत्महत्याओं के लिए खुद को जिम्मेदार ठहराकर नैतिकता के तौर पर अपने नेताओं को पदों से नहीं हटाया, क्योंकि उस विषय पर कभी लोग एकजुट नहीं हुए, और कभी सरकार को खतरा महसूस नहीं हुआ.ऐसा नहीं कि मुम्बई से पहले इस साल भारत में कोई आतंकवादी हमला नहीं हुआ, इस साल कई बड़े बड़े शहरों को निशाना बनाया गया एवं बड़े बड़े धमाके किए, लेकिन उन धमाकों में मरने वाले ज्यादातर गरीब लोग थे, उनका बड़े घरों से