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न्यू बठिंडा की तस्वीर प्रदर्शित करती घटनाएं, फिर चुप्पी क्‍यों

कुलवंत हैप्पी / गुडईवनिंग/ समाचार पत्र कॉलम पिछले दिनों स्थानीय सिविल अस्पताल से खिडक़ी तोडक़र भागी युवती का तो कुछ अता पता नहीं, लेकिन फरार युवती पीछे कई तरह के सवाल छोड़ गई। वह युवती सहारा जनसेवा को बेसुध अवस्था में मिली थी एवं सहारा जनसेवा ने उसको इलाज हेतु सिविल अस्पताल दाखिल करवाया, तभी होश में आने के बाद युवती ने जो कुछ कहा, उसको नजरंदाज नहीं किया जा सकता, क्‍योंकि वह युवती उस क्षेत्र से संबंध रखती है, जहां शहर की ८० हजार से ज्यादा आबादी रहती है। युवती सिविल अस्पताल में उपचाराधीन पड़ी नशा दो नशा दो की रट लगा रही थी, जब मांग पूरी न हुई तो वहां से सहारा वर्करों को चकमा देकर भाग निकली। उसके बाद पता नहीं चला कि युवती आखिर गई कहां एवं प्रशासन भी कारवाई के लिए उसकी स्थिति सुधरने का इंतजार करता रहेगा। इस घटनाक्रञ्म से पूर्व स्थानीय रेलवे रोड़ स्थिति एक होटल से मृतावस्था में एक युवक मिला था, जो होटल में किसी अन्य जगह का पता देकर ठहरा हुआ था। उस युवक के पास से नशे की गोलियों के पते मिले थे, जो साफ साफ कह रहे थे कि नशे ने एक और जिन्दगी निगल ली। यह युवक भी लाइनों पार क्षेत्र से संबंधित था। इन

आखिर कहां सोते रहे मां बाप

मीडिया पर भी लगे सवालिया निशान कुलवंत हैप्पी / गुड ईवनिंग / समाचार पत्र कॉलम आज सुबह अखबार की एक खबर ने मुझे जोरदार झटका दिया, जिसमें लिखा था एक सातवीं की छात्रा ने दिया बच्चे को जन्म एवं छात्रा के अभिभावकों ने शिक्षक पर लगाया बलात्कार करने का आरोप। खबर अपने आप में बहुत बड़ी है, लेकिन उस खबर से भी बड़ी बात तो यह है कि आखिर इतने महीनों तक मां बाप इस बात से अभिज्ञ कैसे रहे। किसी भी समाचार पत्र ने इस बात पर जोर देने की जरूरत नहीं समझी कि आखिरी इतने लम्‍बे समय तक लडक़ी कहां रही? अगर घर में रही तो मां बाप का ध्यान कहां था ? खबर में लिख गया केवल इतना, सातवीं कक्षा की छात्रा ने दिया बच्चे को जन्म, जिसकी पैदा होते ही मौत हो गई। गर्भ धारण से लेकर डिलीवरी तक का समय कोई कम समय नहीं होता, यह एक बहुत लम्‍बा पीरियड होता है, जिसके दौरान एक गर्भवती महिला को कई मेडिकल टेस्टों से गुजरना पड़ता है। इतना ही नहीं, इस स्थिति में परिवार का पूर्ण सहयोग भी चाहिए होता है। अभिभावकों ने अपनी प्रतिक्रिया प्रकट करते हुए कहा, उनको शक है कि इसके पीछे छात्रा के शिक्षक का हाथ है, लेकिन सवाल उठता है कि शिक्षक तो इसके पा

अंक तालिका से परे जिन्दगी, जरा देखें

कुलवंत हैप्पी, गुड ईवनिंग   समाचार पत्र कॉलम इंदौर शहर के एक मार्ग किनारे लगे होर्डिंग पर लिखा पढ़ा था, जिन्दगी सफर है, दौड़ नहीं, धीरे चलो, लेकिन बढ़ती लालसाओं व प्रतिस्पर्धाओं ने जिन्दगी को सफर से दौड़ बनाकर रख दिया। हर कोई आगे निकलने की होड़ में जुटा हुआ है, इस होड़ ने रिश्तों को केवल औपचारिकता बनाकर रख दिया, मतलब रिश्ते हैं, इनको निभाना, चाहे कैसे भी निभाएं। रिश्तों के मेले में सबसे अहम रिश्ता होता है मां पिता व बच्चों का, लेकिन यह रिश्ता भी प्रतिस्पर्धावादी युग में केवल एक औपचारिकता बनकर रह गया है। अभिभावक बच्चों को अच्छे स्कूल में डालते हैं ताकि उनके बच्चे अच्छी शिक्षा ले सके, उनको अच्छे स्कूल में पढ़ाने के लिए अच्छे पैसों की जरूरत होती है, जिसके लिए ब्‍लॉक की सूईयों की तरह मां बाप चलते हैं, और पैसा कमाते हैं। उनको रूकने का समय नहीं, वह सोचते हैं बच्चों को अच्छे स्कूल में डाल दिया, दो वक्त की रोटी दे दी, और उनकी जिम्‍मेदारी खत्म हो गई। अच्छे स्कूल में डालते ही बच्चों को अच्छे नतीजों लाने के लिए दबाव डाला जाता है, बिना बच्चे की समीक्षा किए। बच्चे भी अभिभावकों की तरह

बच्चों को दोष देने से बेहतर होगा उनके मार्गदर्शक बने

कुलवंत हैप्पी/ गुड ईवनिंग सेक्‍स एजुकेशन को शिक्षा प्रणाली का हिस्सा बनाया जाए, का जब भी मुद्दा उठता है तो कुछ रूढ़िवादी लोग इसके विरोध में खड़े हो जाते हैं, उनके अपने तर्क होते हैं, लागू करवाने की बात करने वालों के अपने तर्क। इसमें भी कोई दो राय नहीं कि इस मुद्दे पर सहमति बन पानी मुश्किल है। मुश्किल ही नहीं, असंभव लगती है। आज के समाज में जो घटित हो रहा है, उसको देखते हुए सेक्‍स एजुकेशन बहुत जरूरी है, लेकिन यह जरूरी नहीं कि इसको शिक्षा प्रणाली का ही हिस्सा बनाया जाए। इसको लागू करने के और भी विकल्प हो सकते हैं, जिन पर विचार किया जाना अति जरूरी है। अब तक समाज दमन से व्यक्‍ति की सेक्‍स इच्छा को दबाता आया है, लेकिन अब सब को बराबर का अधिकार मिल गया, लड़कियों को घर से बाहर कदम रखने का अधिकार। ऐसे में जरूरी हो गया है कि बच्चों को उनको अन्य अधिकारों के बारे में भी सजग किया जाए, और आज के युग में यह हमारी जिम्मेदारी भी बनती है, ताकि वह कहीं भी रहे, हम को चिंता न हो। वह जिन्दगी में हर कदम सोच समझ कर उठाएं। आए दिन हम अखबारों में पढ़ते हैं कि एक नाबालिगा एक व्यक्‍ति के साथ भाग गई। आखिर दोष किसका, बहका

पति से त्रसद महिलाएं न जाएं सात खून माफ

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सात खून माफ फ‍िल्‍म से पूर्व मैंने फ‍िल्‍म निर्देशक विशाल भारद्वाज की शायद अब तक कोई फ‍िल्‍म नहीं देखी, लेकिन फ‍िल्‍म समीक्षकों की समीक्षाएं अक्‍सर पढ़ी हैं, जो विशाल भारद्वाज की पीठ थपथपाती हुई ही मिली हैं। इस वजह से सात खून माफ देखने की उत्‍सुकता बनी, लेकिन मुझे इसमें कुछ खास बात नजर नहीं आई, कोई शक नहीं कि मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक फ‍िल्‍म ने बॉक्‍स आफि‍स पर अच्‍छी कमाई की, फि‍ल्‍म कमाई करती भी क्‍यों न, आख‍िर सेक्‍स भरपूर फ‍िल्‍म जो ठहरी, ऐसी फ‍िल्‍म कोई घर लाकर कॉमन रूम में बैठकर देखने की बजाय सिनेमा घर जाकर देखना पसंद करेगा। मेरी दृष्टि से तो फ‍िल्‍म पूरी तरह निराश करती है, मैंने समाचार पत्रों में रस्‍किन बांड को पढ़ा है, और उनका फैन भी बन गया, मुझे नहीं लगता उनकी कहानी इतनी बोर करती होगी। कुछ फ‍िल्‍म समीक्षक लिख रहे हैं कि फ‍िल्‍म बेहतरीन है, लेकिन कौन से पक्ष से बेहतरीन है, अभिनय के पक्ष से, अगर वो हां कहते हैं तो मैं कहता हूं एक कलाकार का नाम बताए, जिसको अभिनय करने का मौका मिला।  अगर निर्देशन पक्ष की बात की जाए, जिसके कारण फ‍िल्‍म की सफलता का श्रेय विशाल भारद्वाज को जाता है, ल