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'मिस्त्र में जनाक्रोश जिम्मेदार कौन' विषय पर विचार गोष्ठी आयोजित

जिम्मेदार : अमेरिकी रणनीति व अन्य अरब देशों में फैला जनाक्रोश बठिंडा। बठिंडा विकास मंच द्वारा 'मिस्त्र में जनाक्रोश जिम्मेदार कौन' विषय पर विचार गोष्ठी शिव मंदिर स्ट्रीट में लेखक व समाज शास्त्री राजिंदर चावला की अध्यक्षता में आयोजित की गई, जिसमें प्रोफेसर एन के गोसाई मुख्य प्रवक्‍ता के तौर पर उपस्थित हुए। विचार चर्चा शुरू करते हुए बठिंडा विकास मंच के अध्यक्ष राकेश नरूला ने कहा कि वर्तमान राष्ट्रपति के दिन अब गिने चुने रह गए लगते हैं, पिछले तीन दशकों से उन्होंने फौलादी मुट्ठी व फौजी बूट का इस्तेमाल कर विपक्ष को दबाया है, वहां आज स्थिति इतनी भयावह हो गई है कि आम आदमी जी जान पर खेलकर सड़कों पर उतर आया है। प्रिंसिपल एनके गोसाई ने कहा कि एक जमाने में मिस्त्र की साख अंतर्राष्ट्रीय मंच पर थी, मिस्त्र के राष्ट्रपति नासिर ने न सिर्फ स्वेज नहर का राष्ट्रीयकरण किया बल्कि उसके बाद हुए हमलों में साम्राज्‍यवादियों के दांत खट्टे किए, जबकि मिस्त्र ने आसवान बांध का निर्माण किया तो अरबों का सिर गर्व से उंच्चा हो गया। हजारों साल पहले बने पिरामिड इस बात के गवाह हैं कि मिस्त्र की संस्कृति प्राचीनत

बहुत कुछ कहते हैं दिल तो बच्चा है के महिला किरदार

पिछले दिनों हालिया रिलीज अजीम बाज्मी की नो प्रोब्‍लम, क्रित खुराना की टुनपुर का सुपरस्टार, फरहा खान की तीस मार खां व मधुर भंडारकर की दिल तो बच्चा है देखी। नो प्रोब्‍लम को छोडक़र बाकी सब फिल्में फिल्मी दुनिया से जुड़ी हुई थी, इनमें से मधुर भंडारकर की फिल्म हिन्दी फिल्मी फार्मुले से कुछ हटकर नजर आई, जो हर हिन्दी फिल्म की तरह सुखद अंत के साथ समाप्त नहीं होती। इस फिल्म के जरिए मधुर भंडारकर बहुत कुछ कह गए, लेकिन फिल्म समीक्षक फिर भी कहते रहे कि फिल्म में कुछ कसर बाकी है। मधुर भंडारकर ने तीन किरदारों को आपस में जोडक़र एक आधुनिक समय की तस्वीर पेश की। इस फिल्म में निक्की नारंग का किरदार अदा करने वाली श्रुति हसन, जब अभय (इमरान हश्मी) का दिल तोड़ते हुए कहती है कि यह तेरे लिए या मेरे के लिए कोई नई बात नहीं, एक लडक़ी का इस तरह उत्‍तर देना, अपने आप में चौंकने वाला था, यह वैसा ही था, जैसे फिल्म मर्डर में मल्लिका शेरावत का मेडिकल दुकान पर जाकर निरोध मांगना। इसमें कोई दो राय नहीं कि समय बदल रहा है, और बदलते समय की तस्वीर को पेश किया है मधुर भंडारकर ने। वहीं नरैन अहुजा (अजय देवगन) व उनकी पत्नि का रिश्ता

धन काला है या नहीं पहले इसकी जांच हो - बूटा सिंह

बठिंडा। पंजाब की बिहार से तुलना किसी भी स्तर पर हो ही नहीं सकती, वहां और यहां के हालातों में जमीं आसमान का फर्क है, यह शब्‍द बिहार के पूर्व राज्यपाल व एनसीएससी के चेयरमैन बूटा सिंह ने स्थानीय सर्किट हाउस में समाचार पत्र टरूथ वे के प्रतिनिधि कुलवंत हैप्‍पी से हुई विशेष बातचीत के दौरान कहे, जोकि बलराम जाखड़ के बेटे सुरेंद्र जाखड़ के भोग में शामिल होने के लिए आए थे। शिरोमणि अकाली दल के तेज तर्रार नेता व पंजाब उप मुख्‍यमंत्री सुखबीर सिंह बादल द्वारा पंजाब में बिहार की तर्ज पर दोहराव की बात कहे जाने के संबंध में जब बूटा सिंह से सवाल पूछा गया तो उन्होंने अपने पुराने दिनों की तरफ लौटते हुए कहा कि बिहार और पंजाब में तुलना करना गलत है। बिहार की तुलना तो अन्य राज्यों से भी नहीं की जा सकती। उन्होंने कहा कि बिहार पर सबसे लम्‍बे समय तक राज लालू व उसके रिश्तेदारों ने किया, वहां की सरकारी संपत्‍त‍ि पर उनका एकाधिकार था एवं वहां नीतिश कुमार के आने से पूर्व कानून नाम की कोई चीज नहीं थी, जबकि पंजाब व अन्य राज्यों में किसी भी पार्टी की सरकार के दौरान ऐसे हालात पैदा नहीं हुए, जो लालू व उसके रिश्तेदारों के

संक्रांति है संस्कार-क्रांति

उ त्सव और त्योहार किसी भी देश और जाति के रहन-सहन, चरित्र, मूल्य, मान्यता, धर्म, दर्शन आदि का परिचय कराते हैं। कुछ त्योहार परमात्मा से, कुछ धर्मस्थापकों से, कुछ देवी-देवताओं से, कुछ विजय के अवसरों से और कुछ लोगों की मानवीय भावनाओं और कुछ प्रकृति के परोपकारों के प्रति कृतज्ञता भाव से जुड़े होते हैं। इन त्योहारों पर की जाने वाली सब प्रकार की पूजा, ध्यान, अनुष्ठान, पकवान, साज-सज्जा, सज-धज, राग-रंग के पीछे मूल उद्देश्य आत्मा का परमात्मा से मंगल मिलन कराना और आत्मा को ईश्‍वरीय विरासत से भरपूर करना ही होता है। त्योहार न हों तो जन-जीवन सूखा, बासी, रसहीन, सारहीन और उबाऊ हो जाए। लेकिन यह भी एक साथ तथ्य है कि विदेशी आक्रमणों, आपसी फूट, नैतिकता की उत्‍तरोत्‍तर गिरावट और धर्मग्रन्थों में क्षेपक और मिलावट हो जाने के कारण आज त्योहार विशुद्ध भौतिक आधार पर मनाए जाने लगे हैं। इसी कारण से समाज को वो लाभ नहीं दे पाते हैं जो कि ये दे सकते थे। अतः इनके विरुद्ध आध्यात्मिक अर्थ को समझकर उसमें टिकना हमारे लौकिक और पारलौकिक जीवन की उन्नति के लिए अति अनिवार्य, लाभकारी और मंगलकारी है। त्योहारों की कड़ी में, कड़

सुंदर मुंदरीए को मिले गए दुल्ला भट्टी

सुंदर मुंदरीए हो, तेरा कौन बेचारा, ओ दुल्ला भट्टी वाला। यह लोहड़ी का लोकप्रिय गीत तो लोहड़ी के त्योहार के आस पास आम सुनाई पड़ता है, लेकिन पिछले कई दशकों से यह गीत केवल एक औपचारिकता मात्र बना हुआ था, क्‍योंकि सुंदर मुंदरियां तो हर वर्ष पैदा होती रहीं, लेकिन उनकी कदर करने वाला दुल्ला भट्‌टी किसी मां की कोख से नहीं जन्मा। किसी ने सच ही कहा कि आखिर बारह वर्ष बाद तो रूढ़ी की भी सुन ली जाती है, यह तो फिर भी कन्याएं हैं, इनकी तो सुनी जानी जायज थी। दुल्ले भट्टी की मृत्यु के दशकों बाद ही सही, लेकिन इन सुंदर मुंदरियों को दुल्ले भट्टी जैसे महान लोग मिलने शुरू हो गए। लड़कों की लोहड़ी, नव विवाहित जोड़ों की लोहड़ी तो पंजाब में हर लोहड़ी के दिन मनाई जाती है, लेकिन दुल्ले भट्टी के बाद लड़कियों की लोहड़ी मनाने का रुझान मर गया, क्‍योंकि लड़कियों को लड़कों से कम आंका जाने लगा, जबकि गुरूओं पीरों ने इनकी कोख से जन्म लिया एवं उन गुरूओं पीरों ने भी औरत को पूजनीय तक बताया, मगर समाज ने समाज को चलाने वाली कन्या को ही भुला दिया। समय ने करवट बदली, आज से करीब चार पांच साल पहले बठिंडा की समाज सेवी संस्था सुरक्षा हेल्पर रजि. बठि