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पंजाबी जानने वालों के लिए धमाका न्यूज

मैं पंजाब का रहने वाला हूं और पंजाबी माँ बोली को कैसे भूल सकता हूं। इस लिए मैंने बहुत पहले ब्लॉग तो शुरू कर लिया था,लेकिन सरगर्म अब हुआ हूं। मैंने उस पर ऑनलाइन नावल पंजाबी में इश्क दे वरके भाव इश्क के पन्ने शुरू किया है। पढ़ने के लिए एक बार जरूर आओ। अच्छा लगे तो टिप्पणी छोड़ जाना, बुरा लगे तो वो भी लिख जाना। मुझे दोनों चीजें पसंद हैं।

कागज से बना रावण, कब तक जलाते रहोगे

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कागज से बना रावण, कब तक जलाते रहोगे और कितने दिन खुद को मूर्ख बनाते रहोगे अब छोड़ो यूं पुतले बनाकर जलाने हकीकत में रावण को जलाना सिखो रावण सी हैं कई समस्या देश में सब जोश के साथ उसको मिटाना सिखो यूं झूठी जीत का जश्न कब तक मनाते रहोगे कागज से बना रावण, कब तक जलाते रहोगे गरीब की इच्छा, आजादी, उड़न जहां तक नींद अगवा है मैं अकेला कहता नहीं यारों पूरा देश इसका गवाह है झूठी आजादी का स्वांग कब तक रचाते रहोगे कागज से बना रावण, कब तक जलाते रहोगे शहीदों को तो बस फूल मिले मिली कुर्सी स्वार्थियों को बस वोट बैंक बनाकर रख दिया अपनों और शर्णार्थियों को कब तक आंख मूँदे यूं ही बटन दबाते रहोगे कागज से बना रावण, कब तक जलाते रहोगे

दसमें दिन मां दुर्गा क्यों नहीं

हर बार नवरात्र समाप्त होते ही दसमें दिन श्रीराम एक नायक के रूप में उभरकर सामने आते हैं, और रावण खलनायक के रूप में पेश किया जाता है। विजयदशमी को बुराई पर अच्छाई की जीत के रूप में भी देखा जाता है। मैंने शायद एक दो बार ही रावण को जलते हुए देखा है, शायद एक दफा बठिंडा और एक दफा पिछले साल इंदौर में। आज भी रावण जलेगा, और राम एक नायक के रूप में उभरकर आएंगे, लेकिन पिछले कुछ दिनों से सोच रहा था कि नौ दिन मां के और दसमें दिन नायक बनकर श्रीराम सामने आ जाते हैं। मां दुर्गा को नायक क्यों नहीं बनाया जाता, जिसने नौ दिन तक महिसासुर से युद्ध कर दसमें दिन विजय प्राप्त करते हुए स्वर्ग लोक और अन्य देवी देवताओं को बचाया। महिसासुर के पुतले क्यों नहीं जलाए जाते, क्यों जहां भी महिला के साथ अन्याय होता आ रहा सालों से। क्यों किसी ने आवाज नहीं उठाई। क्यों हर साल रावण को ही जलाया जाता है, क्या मां दुर्गा ने बुराई पर जीत दर्ज नहीं की थी, क्या महिसासुर बुराई का प्रतीक नहीं था। मां के नौ दिन खत्म होते ही पुरुष जाति की अगुवाई करते हुए श्रीराम एक नायक के रूप में उभर आते हैं, मां दुर्गा को क्यों नहीं पेश किया जाता। महिल

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पिंजरों में बंद परिंदे क्या जाने कि पर क्या होते हैं, कुएं के मेंढ़क क्या जाने यारों समंदर क्या होते हैं, जंगलों में भटकने वाले क्या जाने घर क्या होते हैं, भागती जिन्दगी में अपनों संग वक्त बिताना मुश्किल है, जैसे मंदिर मस्जिद के झगड़े में इंसां बचाना मुश्किल है, मैं मंदिर, मस्जिद और चर्च गया, न जीसस, न अल्लाह और न राम मिला जब निकल बाहर तो इनके नाम पर दंगा फसाद आम मिला

सुधारो, बिगाड़ो न हिन्दी को

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मुझे गुस्सा आता कभी कभी अखबार समूहों के बड़े बड़े ज्ञानियों पर जब वो लिखते हैं कि 'राहुल का स्वयंवर' ! खुद को हिन्दी के सबसे बड़े हितैषी कहते हैं, लेकिन हिन्दी के शब्दों के सही अर्थ देखे बिना ही बस झेपे जा रहे हैं फटे नोटों पर चेपी की तरह। सीता माता ने स्वयंवर रचा था, वो सही था क्योंकि सीता माता ने स्वयं के लिए वर चुना था, जिसको मिलकर एक शब्द बना स्वयंवर मतलब खुद के लिए वर चुनना। अगर उस समय श्री राम स्वयं के लिए वधू चुनते तो क्या तब भी उसको स्वयंवर कहा जाता, कदापि नहीं क्योंकि उस समय के लोगों की हिन्दी आज से कई गुना बेहतर थी, वो स्वयंवधू कहलाता। वर लड़की चुनती है और वधू लड़का। शायद मीडिया राखी का स्वयंवर देख भूल गया कि स्वयंवधू नामक भी कोई शब्द होता है। हां, तब शायद राहुल का स्वयंवर शब्द ठीक लगता, अगर वो भी लड़कों में से ही अपना जीवन साथी चुनते, दोस्ताना फिल्म की तरह। मुझे लगता है कि राहुल को ऐसा ही करना चाहिए, क्योंकि वो लड़की के साथ तो शादी जैसा संबंध निभा नहीं पाए, शायद लड़कों संग चल जाए जिन्दगी की गाड़ी। कभी कभी सोचता हूं कि कि मीडिया वाले भी इस लिए राहुल का स्वयंवर लिख रहे है