रिक्शे वाला बना ब्लॉगर
वैसे थोड़ा पागल तो मैं शुरू से ही रहा हूं. और यक़ीन मानिए, ये अपने-आप में एक पूरा जवाब है कि आखिर मैं एक रिक्शावाला क्यों बना. लेकिन अगर आप इससे ही संतुष्ट नहीं हैं तो आइए मिलकर कोशिश करते हैं जवाब ढूंढने की, क्योंकि शायद इससे पहले मैंने भी कभी इतनी गहराई से इस बारे में नहीं सोचा! ज़्यादातर जन कल्याण योजनाओं के आलोचक अक्सर ये तर्क देते हैं कि "सरकार ज़मीन से जुड़ी नहीं है". वो कहते हैं कि कि लोगों की क्या ज़रूरते हैं, ये एसी कमरों में बैठने वाले मंत्रियों और नौकरशाहों को पता ही नहीं है. जिस तरह की विवादास्पद नीतियां सरकार और योजना आयोग द्वारा बीते कुछ सालों में लाई गई हैं, उनसे इस तर्क को और भी बल मिलता है. तो मुझे कहीं-न-कहीं ये लगा कि अगर मुझे अपने लोगों को बेहतर तरीके से जानना है और ये समझना है कि ग़रीबी क्या होती है, तो एक दर्शक की तरह इसे समझ पाना थोड़ा मुश्किल होगा. इसके लिए मुझे वो ज़िंदगी जीनी होगी. मगर ग़रीबी के तो कई रूप हैं और एक रिक्शे वाले से कहीं ज़्यादा भयावह. लेकिन शायद एक रिक्शा वाला बनना मुझे सबसे ज़्यादा सहज और व्यावहारिक लगा. वो इसलिए क्योंकि साइकिल चलान