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'भारत मां की जय' पर बहस बवाल क्‍यों ?

'भारत मां की जय' बोलने और न बोलने को लेकर बड़ा युद्ध छिड़ चुका है। हालांकि, इस तरह के मामले व्‍यक्‍तिगत सोच पर छोड़ने चाहिए। किसको क्‍या बोलना चाहिए या नहीं, यह व्‍यक्‍तिगत मामला होना चाहिए। मगर, भारत में हर चीज को व्‍यक्‍तिगत स्‍वार्थों से जोड़कर बड़ा मामला बना दिया जाता है। एक तरफ शिवसेना ओवैसी के बयान पर गंभीरता दिखाते हुए भारत मां की जय नहीं बोलने वालों की सदस्‍यता रद्द करने का आह्वान कर रही है। वहीं, दूसरी तरफ हैदराबाद में इस्लामिक संगठन जामिया निजामिया ने भारत माता की जय बोलने के खिलाफ फतवा जारी किया है। हैदराबाद के इस संगठन के मुताबिक, इस्लाम मुस्लिमों को इस नारे की इजाजत नहीं देता। यदि एक दृष्‍टिकोण से देखा जाए तो अपने देश की जय बुलाने में किसी तरह की शर्म नहीं आनी चाहिए। यदि आप अपने देश को सम्‍मान नहीं दे सकते, तो दूसरे देश को कभी भी सम्‍मान नहीं दे पाएंगे। दूसरा दृष्‍टिकोण यह कहता है कि किसी भी व्‍यक्‍तिगत पर विचारों को थोपा नहीं जाना चाहिए। ओवैसी ने पिछले दिनों संसद में अपना भाषण जय हिन्‍द के साथ खत्‍म किया। मगर, भारत मां की जय बोलने में एतराज जता दिया। बात समझ

महिला दिवस - बराबरी की दौड़ में दोहरापन क्‍यों ?

अंतरराष्‍ट्रीय महिला दिवस के मौके पर पहले तो देश विदेश की हर महिला को बधाई हो। और उनको भी जो महिला हितैषी का मॉस्‍क लगाकर व्‍यावसायिक लाभ ले रहे हैं। भारत में महिलाओं के हकों के लिए लड़ने वाले हमेशा चीख चीख कहते हैं, महिलाओं को बराबरी के अधिकार नहीं हैं। उनको बराबरी के अधिकार मिलने चाहिए। मैं ही नहीं, देश के बहुत सारे युवा सोचते होंगे, महिलाओं को ही नहीं, बल्‍कि देश के हर नागरिक को बराबरी का अधिकार मिलना चाहिए। मगर, सवाल तो यह है कि क्‍या दोहरी सोच समाज में इस तरह का हो पाना संभव है। वीआईपी संस्‍कृति से लेकर महिलाओं को विशेष अधिकार देने तक की प्रथा ही बराबरी के राह में सबसे बड़ा रोड़ा है। पिछले दिनों मुझे किसी काम से इंदौर जाना था। मैंने अहमदबाद के बस स्‍टैंड तक जाने के लिए बीआरटीएस को चुना। बीआरटीएस के स्‍टैंड पर मैं बस का इंतजार कर रहा था। मेरी मंजिल तक जाने वाली बस आई, जो खाली थी, मगर जैसे ही उसके भीतर बैठने के लिए कदम आगे बढ़ाए तो अंदर से महिला चीखी, ये महिला बस है। ऐसा एक नहीं तीन बार हुआ, थोड़े थोड़े अंतराल पर। इतना ही नहीं, एक लड़की अपने पुरुष दोस्‍त के साथ खड़ी थी। जब वे भी बस

पति पीड़ित लड़की की दास्‍तां भी है 'नीरजा'

राम माधवानी निर्देशित 'नीरजा' में सोनम कपूर ने शानदार अभिनय किया। यह फिल्‍म केवल प्‍लेन हाइजैक घटना आधारित नहीं है। इस फिल्‍म के जरिये राम माधवानी ने फ्लैशबैक का सहारा लेते हुए नीरजा भनोट के उस पक्ष को भी उभारा है, जिससे देश की बहुत सारी नीरजाएं परेशान हैं। एयरप्‍लेन हाइजैक के दौरान लड़की नीरजा आतंकवादियों के चुंगल से तो सैंकड़े जानें बचाने में सफल हुई। मगर, विवाहित जीवन में एक दहेज लोभी पति के उत्‍पीड़न का शिकार होकर जीना भूल गई थी। इस तरह के हजारों मामले हमारी आंखों के सामने घटित होते हैं। हम आंख मूंद लेते हैं। मगर, अब आंख खोलने की जरूरत है। घर परिवार में कहीं भी नीरजा उदास नहीं होनी चाहिए। जरूरी तो नहीं कि नीरजा आपकी बेटी हो, तभी आवाज उठाएंगे। कभी नीरजा भाभी का पक्ष भी लिया जा सकता है। कभी नीरजा मां का समर्थन भी किया जा सकता है। यदि नीरजा की बहादुरी पर आप ने तालियां बजाई हैं। कोई नीरजा मर मर नहीं जीए, यह संकल्‍प लें। नीरजा एक बहादुर फ्लाइट अटेंडन्‍ट होने के कारण साथ एक आम लड़की भी थी, जो अपने पति के लिए सब कुछ करने के लिए तैयार थी। मगर, पति को अहं से आगे सूझती नहीं थी। लड़कि

हे प्रभु! मेरी क्षमा याचना तो लेते जाएं।

हे प्रभु! मैं बहुत परेशान हूं। मुझे समझ नहीं आता कि मैं क्या करूं ? दिशा से उम्मीद लगाउं बदलाव की ? रोज सोचता हूं कि मेरी समस्याएं भी चर्चा का विषय बनेंगी। इस उम्मीद को दिल में लिए रोज सुबह शाम समाचार की दुनिया में नजर दौड़ाता रहता हूं। सोचता हूं कि शायद अख़बारनवीस मेरी समस्या का समाधान लाएं। कोर्इ ख़बर, खुशख़बर पाती जैसी बनकर सामने आए। जिसको पढ़कर मैं झूम उठूं। जैसे सावन में कोर्इ मोर। मगर, अब तक एेसा हुआ नहीं। रोज घिसीपिटी ख़बरों के साथ कुछ मसालेदार रोचक समाचार आते हैं। हे प्रभु! आज कल तो बाॅलीवुड गाॅशिप से ज्यादा राजनीतिक गाॅशिप को जगह दी जाती है। पहले मन खुश तो हो जाता था। जब समाचारों में आता था कि विश्व सुंदरी ने अपने पुराने प्रेमी मित्र को छोड़कर नामी गरामी अभिनेता के पुत्र से विवाह रचा लिया। रैंप पर चलते हुए एक माॅडल टाॅप लैस हो गर्इ। आज बाॅलीवुड की बिंदास माॅडल ने भारत की जीत पर न्यूड होने की घोषणा की। मगर, आज कल तो अजीबोगरीब समाचार आते हैं। लोक सभा में पूछा जाता है कि सुषमा स्वराज ने पाकिस्तान यात्रा पर हरी साड़ी क्यों पहननी। तो सुषमा स्वराज उसके पीछे का महत्व बताती है कि

क्यों मेरा रविवार नहीं आता

तुम थक कर हर शाम लौटते हो काम से, आैर मैं खड़ी मिलती हूं हाथ में पानी का गिलास लिए हफ्ते के छः दिन फिर आता है तुम्हारा बच्चों का रविवार, तुम्हारी, बच्चों की फरमाइशों का अंबार मुझे करना इंकार नहीं आता क्यों मेरा रविवार नहीं आता मैं जानती हूं तुमको भी खानी पड़ती होगी कभी कभार बाॅस की डांट फटकार, मैं भी सुनती हूं पूरे परिवार की डांट सिर्फ तुम्हारे लिए, ताकि शाम ढले तुमको मेरी फरियाद न सुननी पड़े काम करते हुए टूट जाती हूं बिख़र जाती हूं घर संभालते संभालते चुप रहती हूं, दर्द बाहर नहीं आता क्यों मेरा रविवार नहीं आता तुम को भी कुछ कहती हूं, तो लगता है तुम्हें बोलती हूं तुम भी नहीं सुनते मेरी दीवारों से दर्द बोलती हूं मगर, रूह को करार नहीं आता क्यों मेरा रविवार नहीं आता