संदेश

क्यों मेरा रविवार नहीं आता

तुम थक कर हर शाम लौटते हो काम से, आैर मैं खड़ी मिलती हूं हाथ में पानी का गिलास लिए हफ्ते के छः दिन फिर आता है तुम्हारा बच्चों का रविवार, तुम्हारी, बच्चों की फरमाइशों का अंबार मुझे करना इंकार नहीं आता क्यों मेरा रविवार नहीं आता मैं जानती हूं तुमको भी खानी पड़ती होगी कभी कभार बाॅस की डांट फटकार, मैं भी सुनती हूं पूरे परिवार की डांट सिर्फ तुम्हारे लिए, ताकि शाम ढले तुमको मेरी फरियाद न सुननी पड़े काम करते हुए टूट जाती हूं बिख़र जाती हूं घर संभालते संभालते चुप रहती हूं, दर्द बाहर नहीं आता क्यों मेरा रविवार नहीं आता तुम को भी कुछ कहती हूं, तो लगता है तुम्हें बोलती हूं तुम भी नहीं सुनते मेरी दीवारों से दर्द बोलती हूं मगर, रूह को करार नहीं आता क्यों मेरा रविवार नहीं आता

जरूरी तो नहीं

जरूरी तो नहीं तेरे लबों पर लब रखूं तो चुम्बन हो जरूरी तो नहीं मेरी उंगलियां बदन छूएं तो कम्पन हो जरूरी तो नहीं तुझे अपनी बांहों में भरूं तो शांत धड़कन हो एेसा भी तो हो सकता है मेरे ख्यालों से भी तुम्हें चुम्बन हो मेरे ख्यालों से भी तुम्हें कम्पन हो मेरे ख्यालों से भी शांत धड़कन हो

उर्दू साहित्य की बहती त्रिवेणी 'रेख़्ता''

अमेरिकी उपन्यासकार, संपादक, और प्रोफेसर टोनी मॉरिसन ने लिखा है कि जो किताब आप पढ़ना चाहते हैं, यदि बाजार में उपलब्ध नहीं है, यदि अभी तक लिखी नहीं गर्इ तो वो किताब आपको लिखनी चाहिए। यह कथन उस समय मेरे सामने सच बनकर आया, जब मैं शायरोशायरी की तलाश में भटकता हुआ रेख़्ता डाॅट ओआरजी पर पहुंचा। दरअसल, रेख़्ता का जन्म भी कुछ इस तरह हुआ है। रेख़्ता के जनक संजीव सर्राफ, जो पेशे से व्यवसायी हैं, एक हिन्दी दैनिक समाचार पत्र को दिए साक्षात्कार में बताते हैं कि उनको उर्दू शायरी पढ़ने का पुराना शौक था, मगर, कुछ शब्द जब उनको समझ नहीं आते थे, तो उनको घुटन महसूस होती थी। दरअसल, यह बहुत सारे लोगों के साथ होता है, लेकिन, जो साहस संजीव सर्राफ ने किया, वो हर कोर्इ नहीं सकता। उनके इस प्रयास ने न जाने कितने लोगों की समस्या को हल कर दिया। सबसे दिलचस्प बात तो यह है कि रेख़्ता हिन्दी, इंग्लिश (लिप्यंतरण) एवं उर्दू में उपलब्ध है। इस पर गजल, कविता, शेयर, वीडियो, कहानियों सहित न जाने साहित्य कृतियों के कितने ही प्रारूप उपलब्ध हैं। यदि आप उर्दू शेयरोशायरी का शौक रखते हैं। या कभी कभार आपको उर्दू शायरी के शब्द समझ मे

राहुल गांधी बोल रहे हैं !

मेरी मां मुझे अक्सर कहती थी कि समय पर काम होते हैं आैर बे समय केवल सिर पटकना होता है। आज मां तो नहीं है, लेकिन उनकी कही बात मुझे याद आ रही है, क्योंकि कांग्रेस के उपाध्‍यक्ष राहुल गांधी आज जगह जगह सिर जो पटक रहे हैं। मैं साफ कर दूं कि राहुल गांधी की वापसी कांग्रेस के लिए उम्मीदजनक, आशा की किरण, डूबने वाले तिनके का सहारा आदि हो सकती है। मगर, देश के आम नागरिक की नजर में केवल मौकापरस्ती या अवसरवाद है। इस बात में कोर्इ शक नहीं है कि कांग्रेस के उपाध्यक्ष वापसी के बाद काफी सक्रिय हो चुके हैं। मगर, इस बात का राष्ट्र के सुनहरे भविष्य से कोर्इ लेन देन नहीं है, क्योंकि अब तक सत्ता उसी परिवार के हाथों में रही है, जिस परिवार के उत्तराधिकारी राहुल गांधी हैं। गत दिवस फिल्म एंड टेलीविजन इंस्टिट्यूट ऑफ इंडिया के नए अध्यक्ष गजेन्द्र चौहान की नियुक्ति के खिलाफ विरोध कर रहे छात्रों के समर्थन में खड़े होते हुए कांग्रेस उपाध्‍यक्ष राहुल गांधी ने कहा, ''लोकतांत्रिक रूप से अगर ज्यादातर छात्र यह कहते हैं कि उन्हें वह अध्यक्ष के रूप में स्वीकार नहीं है तो उनको वहां नहीं होना चाहिए।''

याकूब मेमन की फांसी बहाने कुछ और भी

मेमन समुदाय के सर्वश्रेष्ठ चार्टेर्ड अकाउंट याकूब मेमन को उसके जन्म दिवस के मौके पर फांसी दी गर्इ। याकूब मेमन ने सीए की डिग्री लेने के बाद एक हिन्दु मित्र के साथ कारोबार शुरू किया। मगर, जल्द ही दोनों अलग हो गए, और देखते देखते मेमन समुदाय का याकूब सर्वश्रेष्ठ चार्टेर्ड अकाउंट बन गया। याकूब मेमन के पास सब कुछ था, नाम, शोहरत, दौलत। मगर, मृत्यु के समय उसके चरित्र पर एक काला धब्बा था, देशद्रोही होने का। हां, एक समय था, जब फांसी के रस्से चूमने वालों को भारत अपनी सर आंखों पर ही नहीं बल्कि रग रग में बसा लेता था। मगर, उस समय भारत की लड़ार्इ कुछ एेसे लोगों के खिलाफ थी, जो बर्बरता की हद पार किए जा रहे थे। मगर, याकूब मेमन के गले में डाला फांसी का रस्सा एक समाज को शर्मिंदा कर रहा था, गर्वित नहीं क्योंकि याकूब मेमन उस साजिश का हिस्सा था, जिसने कर्इ हंसते खेलते हुए घरों को एक झटके में बर्बाद कर दिया था। याकूब मेमन, जिस आतंकवादी हमले में शामिल थे, दाउद अब्राहिम के समूह ने उसको बाबरी मस्जिद पर हमले का बदला कहा, मगर, चकित करने वाली बात तो यह थी कि बम्ब धमाकों में मरने वालों का बाबरी मस्जिद गिराने में ज