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हैप्पी अभिनंदन में यशवंत महेता "फकीरा"

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क्षमा चाहता हूँ, पिछले मंगलवार को मैं आपके सामने किसी भी ब्लॉगर हस्ती को पेश नहीं कर पाया। समय नहीं था कहना तो केवल बहाना होगा, इसलिए खेद ही प्रकट करता हूँ। हैप्पी अभिनंदन में आज आप जिस ब्लॉगर हस्ती से मिलने जा रहे हैं, उनको अनुभवी जनों और बुद्धिजीवियो का साथ, चाय पीना, खेतों की हरियाली, बच्चन की मधुशाला को बार-बार पढना, बच्चों से बातें करना और बच्चों के संग बच्चा बन जाना बेहद अच्छा लगता है। इंदौर से दिल्ली तक का सफर तय करने वाली इस ब्लॉगर हस्ती को हम सब युग क्रांति ब्लॉग पर यशवंत महेता 'फकीरा' के नाम से पढ़ते हैं। जी हाँ, इस बार हमारे साथ यशवंत महेता फकीरा हैं, जिनके विचारों के धागों से बुनी हुई कविताएं रूपी चादरें फकीरा का कोना ब्लॉग पर भी सजी हुई हैं। आओ जानते हैं ब्लॉग जगत और खुद के बारे में यशवंत महेता "फकीरा" क्या कहते हैं? कुलवंत हैप्पी : आप यशवंत महेता से फकीरा कैसे बने? फकीरा : यह तो बहुत ही खतरनाक सवाल है। बस एक दिन किसी से प्यार हो गया था। उसके दर पर गए जब तो उसने फकीरा बोल दिया और उस दिन से यशवंत महेता फकीरा बन गया। कुलवंत हैप्पी : आपकी जन्मस्थली

लफ्जों की धूल-6

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लेखक कुलवंत हैप्पी (1) जिन्दगी सफर है दोस्तो, रेस नहीं, रिश्ता मुश्किल टिके, अगर बेस नहीं, वो दिल ही क्या हैप्पी जहाँ ग्रेस नहीं, (2) कभी नहीं किया नाराज जमाने को, फिर भी मुझसे एतराज जमाने को, जब भी भटकेगा रास्ते से हैप्पी, मैं ही दूँगा आवाज जमाने को (3) क्या रिश्ता है उस और मुझ में जो दूर से रूठकर दिखाता है मेरे चेहरे पर हँसी लाने के लिए वो बेवजह भी मुस्कराता है चेहरे तो और भी हैं हैप्पी, मगर ध्यान उसी पर क्यों जाता है (4) कभी कभी श्रृंगार, कभी कभी सादगी भी अच्छी है कभी मान देना, तो कभी नजरंदाजगी भी अच्छी है जैसे हर रिश्ते में थोड़ी थोड़ी नाराजगी भी अच्छी है (5) जरूरी नहीं कि मेरे हर ख़त का जवाब आए वो किताब ले जाए, और उसमें गुलाब आए बस तमन्ना इतनी सी है हैप्पी रुखस्त हूँ जब मैं, उस आँख में आब आए *आब-पानी (6) हाथ मिलाते हैं हैप्पी रुतबा देखकर, दिल मिलाने की रिवायत नहीं तेरे शहर में इसलिए खुदा की इनायत नहीं तेरे शहर में *रिवायत-रिवाज

इससे बड़ी दुर्घटना क्या होगी?

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लेखक कुलवंत हैप्पी जिन्दगी सफर थी, लेकिन लालसाओं ने इसको रेस बनाकर रख दिया। जब सफर रेस बनता है तो रास्ते में आने वाली सुंदर वस्तुओं का हम कभी लुत्फ नहीं उठा पाते, और जब हम दौड़ते दौड़ते थक जाते हैं अथवा एक मुकाम पर पहुंचकर पीछे मुड़कर देखते हैं तो बहुत कुछ छूटा हुआ नजर आता है। उसको देखकर हम फिर पछताने लगते हैं, और हमें हमारी जीत भी अधूरी सी लगती है। अगर जिन्दगी को सफर की तरह लेते और रफतार धीमे रखते तो शायद मंजिल तक पहुंचने में देर होती, लेकिन दुर्घटना न होती। उससे बड़ी दुर्घटना क्या होगी, रूह का दमन हो जाए, और हड्डियों का साँचा बचा रह जाए। जिन्दगी जैसे खूबसूरत सफर को हम दौड़ बनाकर रूह का दमन ही तो करते हैं, जिसका अहसास हमको बहुत देर बाद होता है। जो इस अहसास को देर होने से पहले महसूस कर लेते हैं, वो इस सफर के पूर्ण होने पर खुशी से भरे हुए होते हैं, उनके मन में अतीत के लिए कोई पछतावा नहीं होता। पिछले दिनों बीबीसी की हिन्दी वेबसाईट पर रेणु अगाल का भूटान डायरी सिरलेख से लिखा एक लेख पढ़कर इसलिए अच्छा लगा क्योंकि उन्होंने अपने लेख के मार्फत दुनिया के विकासशील देशों को आईना दिखाने की कोशिश क

चर्चा विराम का नुस्खा : अधजल गगरी छलकत जाय

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लेखक कुलवंत हैप्पी   यह कहावत तब बहुत काम लगती है, जब खुद को ज्ञानी और दूसरे को मूर्ख साबित करना चाहते हों। अगर आप चर्चा करते हुए थक जाएं तो इस कहावत को बोलकर चर्चा समाप्त भी कर सकते हैं मेरी मकान मालकिन की तरह। जी हाँ, मेरी जब जब भी मेरी मकान मालकिन के साथ किसी मुद्दे पर चर्चा होती है तो वे अक्सर इस कहावत को बोलकर चर्चा को विराम दे देती है। इसलिए अक्सर मैं भी चर्चा से बचता हूँ, खासकर उसके साथ तो चर्चा करने से, क्योंकि वो चर्चा को बहस बना देती है, और आखिर में उक्त कहावत का इस्तेमाल कर चर्चा को समाप्त करने पर मजबूर कर देती है। मुझे लगता है कि चर्चा और बहस में उतना ही फर्क है, जितना जल और पानी में या फिर आईस और स्नो में। कभी किसी ने सोचा है कि सामने वाला अधजल गगरी है, हम कैसे फैसला कर सकते हैं? क्या पता हम ही अधजल गगरी हों? मुझे तो अधजल गगरी में भी कोई बुराई नजर नहीं आती। कुछ लोगों की फिदरत होती है, हमेशा सिक्के के एक पहलू को देखने की। कभी किसी ने विचार किया है कि अधजल गगरी छलकती है तो सारा दोष उसका नहीं होता, कुछ दोष तो हमारे चलने में भी होगा। मुझे याद है, जब खेतों में पानी वाला

नित्यानंद सेक्स स्केंडल के बहाने कुछ और बातें

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लेखक कुलवंत हैप्पी नई दिल्ली से इंदौर तक आने वाली मालवा सुपरफास्ट रेलगाड़ी की यात्रा को मैं कभी नहीं भूल सकता, अगर भूल गया तो दूसरी बार उसमें यात्रा करने की भूल कर बैठूँगा। इस यात्रा को न भूलने का एक और दूसरा भी कारण है। वो है, हमारे वाले कोच में एक देसी साधू और उसकी विदेशी चेली का होना। साधू चिलम सूटे का खाया हुआ 32 साल का लग रहा था, जबकि उसके साथ साधुओं का चोला पहने बैठी वो लड़की करीबन 25-26 की होगी। उन दोनों की जोड़ी पूरे कोच मुसाफिरों का ध्यान खींच रही थी, हर कोई देखकर मेरी तरह शायद हैरत में पड़ा सोच रहा था कि आखिर ऐसी कौन सी नौबत आई होगी कि भरी जवानी में साधुओं का साथ पसंद आ गया, और वो भी चिलमबाज साधु का। मैं एक और बात भी सोच रहा था कि अगर एक महिला साथी ही चाहिए तो गृहस्थ जीवन में क्या बुराई है? जिसको त्यागकर लोग साधु सन्यासी बन जाते हैं। शायद जिम्मेदारियों से भाग खड़े होने का सबसे अच्छा तरीका है साधु बन जाना। स्वर्ग सा गृहस्थ जीवन छोड़कर पहले साधु बनते हैं, फिर समाधि छोड़कर संभोग की तरफ आते हैं, और जन्म देते हैं सेक्स स्केंडल को। स्वामी नित्यानंद जी आजकल सेक्स स्केंडल के कारण ही त