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ओबामा को प्राईज नहीं, जिम्मा मिला

अमेरिका राष्ट्रपति बराक ओबामा उस समय हैरत में पड़ गए, जब नोबेल शांति पुरस्कार के लिए उनका नाम घोषित कर दिया गया। ज्यादातर लोग खुश होते हैं, जब उनको सम्मानित किया जाता है, लेकिन ओबामा परेशान थे। शायद उन्होंने सोचा नहीं था कि उनकी राह और मुश्किल हो जाएगी, उनके कंधों पर अमेरिका के अलावा विश्व में शांति कायम करने का जिम्मा भी आ जाएगा। अगर ओबामा को पहले पता चल जाता कि नोबेल शांति पुरस्कार देने के लिए उनके नाम पर विचार किया जा रहा है तो शायद विचार को वो उसी वक्त ही खत्म कर देते, और ये पुरस्कार हर बार की तरह किसी ऐसे व्यक्ति के हाथों में चला जाता, जो काम कर थक चुका था, जो आगे करने की इच्छा नहीं रखता। बस वो थका हुआ, इस पुरस्कार को लेकर खुशी खुशी इस दुनिया से चल बसता। मगर अबकी बार ऐसा कुछ नहीं होने वाला, क्योंकि कमेटी ने पासा ही कुछ ऐसा फेंका है कि अब पुरस्कार की कीमत चुकानी होगी। अब वो करना होगा जो पुरस्कार की कसौटी पर खरा उतरता है। जब ओबामा को पुरस्कार देने की घोषणा हुई तो हर जगह खलबली सी मच गई, इसको पुरस्कार क्यों दिया जा रहा है। आखिर इसने क्या किया है? ये कैसी पागलभांति है? लेकिन लोग क्यों

बाजारवाद में ढलता सदी का महानायक

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इसमें कोई शक नहीं कि रुपहले पर्दे पर अपने रौबदार एवं दमदार किरदारों के लिए हमेशा ही वाहवाही बटोरने वाला सदी का महानायक अमिताभ बच्चन अब बाजारवाद में ढलता जा रहा है, या कहूं वो पूरी तरह इसमें रमा चुका है। ऐसा लगता है कि या तो बाजार को अमिताभ की लत लग गई या फिर अमिताभ को बाजार की। एक समय था जब अमिताभ की जुबां से निकले हुए शब्द लोगों के दिल-ओ-दिमाग में सीधे उतर जाते थे, उस वक्त के उतरे हुए शब्द आज भी उनकी जुबां पर बिल्कुल पहले की तरह तारोताजा हैं। उस समय कि दी यंग एंग्री मैन की छवि को आज का बिग बी टक्कर नहीं दे सकता। सत्य तो ये है कि आज का बिग बी तो उसके सामने बिल्कुल बौना नजर आता है। सदी के इस महानायक का हाल एक शराबी जैसा हो गया है, जिसको देखकर कभी समझ नहीं आती कि शराब को वो पी रहा है या फिर शराब उसको पी रही है। आज बाजार अमिताभ को खा रहा है या अमिताभ बाजार को समझ नहीं आ रहा है, बस सिलसिला दिन प्रति दिन चल रहा है। असल बात तो यह है कि बीस तीस साल पुराना लम्बू और आज के बिग बी या अमिताभ बच्चन में बहुत बड़ा अंतर आ चुका है। जहां बीस तीस साल पहले लम्बू बड़े पर्दे पर गरीबों दबे कुचले लोगों की

शेयर-ओ-शायरी

आज ज्यादातर ब्लॉगरों के ब्लॉगों पर धर्म युद्ध चल रहा है। जिनको पढ़ने के बाद मन में कुछ शेयर उभरकर आए। जो आपकी नजर करने जा रहा हूं। वैसे उन ब्लॉगों पर भी छोड़ आया। मेरा धर्म बड़ा और तेरा छोटा, जब तक कमबख्त बहस चलती रहेगी। जलते रहेंगे मासूम परवाने, जब तक शमां नफरत की जलती रहेगी॥ धर्म के नाम पे तुम दुकानदारी यूं ही चलाते रहो। दंगे फसादों में इंसां को पुतलों की तरह यूं जलाते रहो॥

'XXX' से घातक है 'PPP'

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'ट्रिपल एक्स' ने देश के युवाओं को बिगाड़कर रख दिया, खासकर गांव वाले अशिक्षित वर्ग के युवाओं, जो भूल जाते हैं कि रियल और रील जिन्दगी में क्या फर्क है। उनको दोनों ही एक जैसी नजर आती हैं खासकर ट्रिपल एक्स रील और रियल लाईफ। मगर मेरे देश को बर्बाद करने में ट्रिपल एक्स से ज्यादा योगदान 'ट्रिपल पी' का है, जिस दिन इस ट्रिपल पी में सुधार हो गया, उस दिन देश अन्य देशों के लिए प्रेरणास्रोत बनकर उभरेगा। आप सोच रहें होंगे कि ट्रिपल एक्स तो समझ में आ रहा है, लेकिन ये मूर्ख ट्रिपल पी कहां से लेकर आए। मगर सच कहता हूं ट्रिपल एक्स में तो नहीं ट्रिपल पी में तो मैं भी आता हूं और आप भी। हां, अगर आप ट्रिपल एक्स का पूरा नाम ढूंढने जाओगे तो नहीं मिलेगा, मगर मेरे ट्रिपल पी का पूरा नाम है पुलिस पब्लिक और प्रेस। जिस दिन इन तीनों ने अपनी जिम्मेदारियां ईमानदारी से निभानी शुरू कर दी, उस दिन भारत को बदलने से कोई नहीं रोक सकेगा, भारत का ही नहीं हर देश का भविष्य ट्रिपल पी पर ही टिका है। जनसेवा के लिए बनी पुलिस अगर असल में ही जनसेवा करने लगे, और जनता की आवाज बुलंद करने के लिए बनी प्रेस उसकी आवाज क

तब तक पैदा होंगे जिन्ना

कोई माने या ना माने, लेकिन मेरा तो यही माना है कि किसी को जिन्ना करार देने में और खुद को गांधी कहने में केवल दो मिनट लगते हैं। अगर यकीन न आता हो तो बाल ठाकरे का वो लेख देखा जा सकता है जो पिछले दिनों सामना में प्रकाशित हुआ, जिसमें उन्होंने अपने ही भतीजे को जिन्ना का नाम दे दिया। इस लेख के प्रकाशित होने के बाद राज ठाकरे एक बार फिर से चर्चा में आ गया, वो कहां कम था, उसने भी पोल खोल दी कि संपादकीय कौन लिखता है सब जानते हैं। लेकिन राज ठाकरे को जिन्ना कहकर खुद को गांधी साबित करना कहां तक ठीक है। शायद 6वीं कक्षा तक पढ़ाई करने के बाद रंगों की दुनिया में रहने वाले बाल ठाकरे भूल गए कि उन्होंने भी जवानी के जोश में वो ही किया था, जो आज राज ठाकरे कर रहा है, वो कार्टूनों का सहारा नहीं ले रहा, ये बात दूसरी है। जिन कार्टूनों से बाल ठाकरे अपना घर चलाते थे, अब उन्होंने उन्हीं कार्टूनों से एक राजनेता बनने की तरफ कदम बढ़ा लिया, अपने हुनर को हथियार बना लिया। जिस मुम्बई के स्कूल ने उनको फीस न भरने के चलते निकाल दिया था, उन्होंने जवानी पार करते करते उस मुम्बई पर अपनी पकड़ बना ली। एक कार्टूनिस्ट शिव सेना के गठ